अलौकिक अवतार गुरु नानकदेव जी

“गुरु नानकदेव जी” अलौकिक अवतार

अलौकिक अवतार गुरु नानकदेव जीअलौकिक अवतार गुरु नानकदेव जी

भारत की पावन भूमि पर कई संत-महात्मा अवतरित हुए हैं, जिन्होंने धर्म से विमुख सामान्य मनुष्य में अध्यात्म की चेतना जागृत कर उसका नाता ईश्वरीय मार्ग से जोड़ा है। ऐसे ही एक अलौकिक अवतार गुरु नानकदेव जी हैं। कहा जाता है कि गुरु नानकदेवजी का आगमन ऐसे युग में हुआ जो इस देश के इतिहास के सबसे अंधेरे युगों में था। उनका जन्म 1469 में लाहौर से 30 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में तलवंडी रायभोय नामक स्थान पर हुआ जो अब पाकिस्तान में है। बाद में गुरुजी के सम्मान में इस स्थान का नाम ननकाना साहिब रखा गया। श्री गुरु नानकदेव संत, कवि और समाज सुधारक थे।

धर्म काफी समय से थोथी रस्मों और रीति-रिवाजों का नाम बनकर रह गया था। उत्तरी भारत के लिए यह कुशासन और अफरा-तफरी का समय था। सामाजिक जीवन में भारी भ्रष्टाचार था और धार्मिक क्षेत्र में द्वेष और कशमकश का दौर था। न केवल हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में ही, बल्कि दोनों बड़े धर्मों के भिन्न-भिन्न संप्रदायों के बीच भी।

इन कारणों से भिन्न-भिन्न संप्रदायों में और भी कट्टरता और बैर-विरोध की भावना पैदा हो चुकी थी। उस वक्त समाज की हालत बहुत बदतर थी। ब्राह्मणवाद ने अपना एकाधिकार बना रखा था। उसका परिणाम यह था कि गैर-ब्राह्मण को वेद शास्त्राध्यापन से हतोत्साहित किया जाता था। निम्न जाति के लोगों को इन्हें पढ़ना बिलकुल वर्जित था। इस ऊँच-नीच का गुरु नानकदेव पर बहुत असर पड़ा। वे कहते हैं कि ईश्वर की निगाह में सब समान हैं। ऊंच-नीच का विरोध करते हुए गुरु नानकदेव अपनी मुखवाणी ‘जपुजी साहिब’ में कहते हैं कि ‘नानक उत्तम-नीच न कोई’ जिसका भावार्थ है कि ईश्वर की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपको उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति के हर समय साथ है। यह तभी हो सकता है जब व्यक्ति ईश्वर के नाम द्वारा अपना अहंकार दूर कर लेता है। तब व्यक्ति ईश्वर की निगाह में सबसे बड़ा है और उसके समान कोई नहीं।

गुरु नानक देव (जन्म- 15 अप्रैल, 1469, तलवंडी, पंजाब, भारत; मृत्यु- 22 सितंबर, 1539, भारत) सिखों के प्रथम गुरु (आदि गुरु) हैं। इनके अनुयायी इन्हें गुरु नानक, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं।

  • परिचय: पंजाब के तलवंडी नामक स्थान में 15 अप्रैल, 1469 को एक किसान के घर गुरु नानक उत्पन्न हुए। यह स्थान लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है। अब यह ‘नानकाना साहब’ कहलाता है। तलवंडी का नाम आगे चलकर नानक के नाम पर ननकाना पड़ गया। नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था। उनके पिता खत्री जाति एवं बेदी वंश के थे। वे कृषि और साधारण व्यापार करते थे और गाँव के पटवारी भी थे। गुरु नानक देव की बाल्यावस्था गाँव में व्यतीत हुई। बाल्यावस्था से ही उनमें असाधारणता और विचित्रता थी। उनके साथी जब खेल-कूद में अपना समय व्यतीत करते तो वे नेत्र बन्द कर आत्म-चिन्तन में निमग्न हो जाते थे। इनकी इस प्रवृत्ति से उनके पिता कालू चिन्तित रहते थे।

  • आरंभिक जीवन: सात वर्ष की आयु में वे पढ़ने के लिए गोपाल अध्यापक के पास भेजे गये। एक दिन जब वे पढ़ाई से विरक्त हो, अन्तर्मुख होकर आत्म-चिन्तन में निमग्न थे, अध्यापक ने पूछा- पढ़ क्यों नहीं रहे हो? गुरु नानक का उत्तर था- मैं सारी विद्याएँ और वेद-शास्त्र जानता हूँ। गुरु नानक देव ने कहा- मुझे तो सांसारिक पढ़ाई की अपेक्षा परमात्मा की पढ़ाई अधिक आनन्दायिनी प्रतीत होती है, यह कहकर निम्नलिखित वाणी का उच्चारण किया- मोह को जलाकर (उसे) घिसकर स्याही बनाओ, बुद्धि को ही श्रेष्ठ काग़ज़ बनाओ, प्रेम की क़लम बनाओ और चित्त को लेखक। गुरु से पूछ कर विचारपूर्वक लिखो (कि उस परमात्मा का) न तो अन्त है और न सीमा है।[1] इस पर अध्यापक जी आश्चर्यान्वित हो गये और उन्होंने गुरु नानक को पहुँचा हुआ फ़क़ीर समझकर कहा- तुम्हारी जो इच्छा हो सो करो। इसके पश्चात गुरु नानक ने स्कूल छोड़ दिया। वे अपना अधिकांश समय मनन, ध्यानासन, ध्यान एवं सत्संग में व्यतीत करने लगे। गुरु नानक से सम्बन्धित सभी जन्म साखियाँ इस बात की पुष्टि करती हैं कि उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधु-महत्माओं का सत्संग किया था। उनमें से बहुत से ऐसे थे, जो धर्मशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। अन्त: साक्ष्य के आधार पर यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि गुरु नानक ने फ़ारसी का भी अध्ययन किया था। ‘गुरु-ग्रन्थ साहब’ में गुरु नानक द्वारा कुछ पद ऐसे रचे गये हैं, जिनमें फ़ारसी शब्दों का आधिक्य है।

  • बचपन: गुरु नानक की अन्तमुंखी-प्रवृत्ति तथा विरक्ति-भावना से उनके पिता कालू चिन्तित रहा करते थे। नानक को विक्षिप्त समझकर कालू ने उन्हें भैंसे चराने का काम दिया। भैंसे चराते-चराते नानक जी सो गये। भैंसें एक किसान के खेत में चली गयीं और उन्होंने उसकी फ़सल चर डाली। किसान ने इसका उलाहना दिया किन्तु जब उसका खेत देखा गया, तो सभी आश्चर्य में पड़े गये। फ़सल का एक पौधा भी नहीं चरा गया था। 9 वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। यज्ञोपवीत के अवसर पर उन्होंने पण्डित से कहा – दया कपास हो, सन्तोष सूत हो, संयम गाँठ हो, (और) सत्य उस जनेउ की पूरन हो। यही जीव के लिए (आध्यात्मिक) जनेऊ है। ऐ पाण्डे यदि इस प्रकार का जनेऊ तुम्हारे पास हो, तो मेरे गले में पहना दो, यह जनेऊ न तो टूटता है, न इसमें मैल लगता है, न यह जलता है और न यह खोता ही है।

  • विवाह: सन 1485 ई. में नानक का विवाह बटाला निवासी, मूला की कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके वैवाहिक जीवन के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी है। 28 वर्ष की अवस्था में उनके बड़े पुत्र श्रीचन्द का जन्म हुआ। 31 वर्ष की अवस्था में उनके द्वितीय पुत्र लक्ष्मीदास अथवा लक्ष्मीचन्द उत्पन्न हुए। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु उनके सारे प्रयास निष्फल सिद्ध हुए। घोड़े के व्यापार के निमित्त दिये हुए रुपयों को गुरु नानक ने साधुसेवा में लगा दिया और अपने पिताजी से कहा कि यही सच्चा व्यापार है। नवम्बर, सन् 1504 ई. में उनके बहनोई जयराम (उनकी बड़ी बहिन नानकी के पति) ने गुरु नानक को अपने पास सुल्तानपुर बुला लिया। नवम्बर, 1504 ई. से अक्टूबर 1507 ई. तक वे सुल्तानपुर में ही रहें अपने बहनोई जयराम के प्रयास से वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत ख़ाँ के यहाँ मादी रख लिये गये। उन्होंने अपना कार्य अत्यन्त ईमानदारी से पूरा किया। वहाँ की जनता तथा वहाँ के शासक दौलत ख़ाँ नानक के कार्य से बहुत सन्तुष्ट हुए। वे अपनी आय का अधिकांश भाग ग़रीबों और साधुओं को दे देते थे। कभी-कभी वे पूरी रात परमात्मा के भजन में व्यतीत कर देते थे। मरदाना तलवण्डी से आकर यहीं गुरु नानक का सेवक बन गया था और अन्त तक उनके साथ रहा। गुरु नानक देव अपने पद गाते थे और मरदाना रवाब बजाता था। गुरु नानक नित्य प्रात: बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे। कहते हैं कि एक दिन वे स्नान करने के पश्चात वन में अन्तर्धान हो गये। उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा- मैं सदैव तुम्हारे साथ हूँ, मैंने तुम्हें आनन्दित किया है। जो तुम्हारे सम्पर्क में आयेगें, वे भी आनन्दित होगें। जाओ नाम में रहो, दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओं। इस घटना के पश्चात वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर मूला को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे। मरदाना उनकी यात्रा में बराबर उनके साथ रहा।

  • व्यक्तित्व: गुरुनानक का व्यक्तित्व असाधारण था। उनमें पैगम्बर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, समाज-सुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबन्धु सभी के गुण उत्कृष्ट मात्रा में विद्यमान थे। उनमें विचार-शक्ति और क्रिया-शक्ति का अपूर्व सामंजस्य था। उन्होंने पूरे देश की यात्रा की। लोगों पर उनके विचारों का असाधारण प्रभाव पड़ा। उनमें सभी गुण मौजूद थे। पैगंबर, दार्शनिक, राजयोगी, गृहस्थ, त्यागी, धर्मसुधारक, कवि, संगीतज्ञ, देशभक्त, विश्वबंधु आदि सभी गुण जैसे एक व्यक्ति में सिमटकर आ गए थे। उनकी रचना ‘जपुजी’ का सिक्खों के लिए वही महत्त्व है जो हिंदुओं के लिए गीता का है।

  • रचनाएँ और शिक्षाएँ: ‘श्री गुरु-ग्रन्थ साहब’ में उनकी रचनाएँ ‘महला 1’ के नाम से संकलित हैं। गुरु नानक की शिक्षा का मूल निचोड़ यही है कि परमात्मा एक, अनन्त, सर्वशक्तिमान, सत्य, कर्त्ता, निर्भय, निर्वर, अयोनि, स्वयंभू है। वह सर्वत्र व्याप्त है। मूर्ति-पूजा आदि निरर्थक है। बाह्य साधनों से उसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। आन्तरिक साधना ही उसकी प्राप्ति का एक मात्र उपाय है। गुरु-कृपा, परमात्मा कृपा एवं शुभ कर्मों का आचरण इस साधना के अंग हैं। नाम-स्मरण उसका सर्वोपरि तत्त्व है, और ‘नाम’ गुरु के द्वारा ही प्राप्त होता है। गुरु नानक की वाणी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत-प्रोत है। उनकी वाणी में यत्र-तत्र तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक स्थिति की मनोहर झाँकी मिलती है, जिसमें उनकी असाधारण देश-भक्ति और राष्ट्र-प्रेम परिलक्षित होता है। उन्होंने हिंन्दूओं-मुसलमानों दोनों की प्रचलित रूढ़ियों एवं कुसंस्कारों की तीव्र भर्त्सना की है और उन्हें सच्चे हिन्दू अथवा सच्चे मुसलमान बनने की विधि बतायी है। सन्त-साहित्य में गुरु नानक ही एक ऐसे व्यक्ति हैं; जिन्होंने स्त्रियों की निन्दा नहीं की, अपितु उनकी महत्ता स्वीकार की है। गुरुनानक देव जी ने अपने अनु‍यायियों को जीवन की दस शिक्षाएँ दी-

  • ईश्वर एक है।

  •    सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।

  •    ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है।

  •    ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।

  •    ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।

  •    बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ।

  •    सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा माँगनी चाहिए।

  •    मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।

  •    सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।

  •    भोजन शरीर को ज़िंदा रखने के लिए ज़रूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।

मृत्यु: गुरु नानक की मृत्यु सन् 1539 ई. में हुई। इन्होंने गुरुगद्दी का भार गुरु अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में ‘ज्योति’ में लीन हो गए। गुरु नानक आंतरिक साधना को सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे। वे रूढ़ियों के कट्टर विरोधी थे। गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु-सभी के गुण समेटे हुए थे।

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