किसी व्यक्ति, परिवार या बस्ती के ‘धियाण‘ की विशालता वहां की उदारता की द्योतक
होली रंगों का त्यौहार है। होली में सब लोग अपने सब पुराने मन मुटाव भुलाकर मिलकर होली का त्योहर एक दुसरे पर रंग लगाकर या फिर माथे पर टीका लगाकर मनाते हैं । वहीं हम आपको इस बार हिमाचल के जन-जातीय क्षेत्रों में होली का पर्व कैसे मनाया जाता है इस बारे में जानकारी देने जा रहे हैं ।
होली जलाने के लिए लकड़ियां व अन्य सामग्री प्रत्येक घर से की जाती है एकत्रित
सांयकाल को होली जलाने के बाद लोग पवित्र अग्नि की पूजा जल एवं धूप-दीप से करते हैं
अग्नि की परिक्रमा करते समय मक्की, सिपूलों तथा भुने अनाज की आहुति दी जाती है
हिमाचल के जन-जातीय क्षेत्रों में यह उत्सव अपने ही ढंग से मनाया जाता है। यहां इसे ‘धियाणा‘ ‘हरण‘ त्यौहार भी कहा जाता है। होली जलाने हेतु लकड़ियां तथा अन्य सामग्री प्रत्येक घर से एकत्रित की जाती है। इसी कारण इस उत्सव में सामूहिकता, एकता, मिलन एवं स्नेह की भावना झलकती है। सांयकाल को होली जलाने के बाद भी लोग पवित्र अग्नि की पूजा जल एवं धूप-दीप से करते हैं। अग्नि की परिक्रमा करते समय मक्की, सिपूलों तथा भुने अनाज की आहुति दी जाती है। भुने हुए अनाज को स्थानीय बोली में ‘खड्डे‘ कहा जाता है। इसी का प्रसाद भी बंटता है। यह एक प्रकार से पुराने अनाज की समाप्ति तथा नए अनाज के स्वागत-आशीर्वाद का उपक्रम है। गद्दी जाति की महिलाएं चूल्हे के ऊपर जमी कालिख (करा) को, होली की संध्या को, थाली में इक्ट्ठा कर होली को अर्पित करती हैं। ‘होली‘ के ढेर को स्थानीय बोली में ‘धियाणा‘ कहते हैं। किसी व्यक्ति, परिवार या बस्ती के ‘धियाण‘ की विशालता वहां की उदारता की द्योतक है। इस होली मिलन में हास्य-व्यंग्य का वातावरण रहता है। हो हो! जोगिए के ढालुए के वराड़तों (जोगी तुम्हारा कोई ठौर-ठिकाना नहीं-तुम ऐसी धातु के बने औजार हो, जो शीघ्र पिघल जाते हो- अस्थिर स्वभाव) आदि व्यंग्य-बाणों का प्रहार होता है। एक पक्ष का दूसरे पक्ष पर प्रहार दमदार होता है।
होली की अग्नि के शान्त होने पर रचा जाता है ‘हरनात्र स्वांग‘
परस्पर हास-परिहास से लोगों का मनोरंजन होता है
होली की अग्नि के शान्त होने पर ‘हरनात्र स्वांग‘ रचा जाता है। ‘खप्पर‘ स्वांग भरने वाले के चेहरे पर ‘खप्पर‘ (मुखौटा) के साथ सिर पर पग्गड़ (बड़ी पगड़ी), कमर पर डोला और चोला हास्यप्रद ढंग से पहना जाता है। ऐस स्वांग के साथ हाथ में डंडा लेकर काफी हंसी मजाक चलता है। प्रत्येक ‘खप्पर‘ के संग एक चंद्रौली-महिला को चोली. सलवार, मोटा दुपट्टा कटि में डोरा तथा नारी आभूषणों से अलंकृत पुरुष- अभिनय करता है। गद्दी का स्वांग रचने वाला सिर पर नोकदार टोपी, शरीर पर चोला तथा कमर में डोरा धारण करता है। चेहरे पर नकली दाढ़ी-मूछ और शिव के चेले के अभिनय के लिए हाथ में त्रिशूल। पुरुष ही गद्दन का स्वांग रचता है। इनके परस्पर हास-परिहास से लोगों का मनोरंजन होता है। जब गद्दी ‘खप्पर‘ (मृतक) का अभिनय करता है तो ‘चन्द्रौली‘ को रोने धोने का स्वांग रचना होता है। ‘हरण‘ का स्वांग रचने वाला पशु चर्म ओढ़कर, सिर पर सींग भी लगा लेता है। लोग सवारी कर, ‘भाड़ा‘ भी देते हैं। इन स्वांगों में मानवीय प्रवृत्तियों का सजीव-सार्थक प्रदर्शन निहित रहता है। स्वांगकर्ताओं के मुखिया को ‘साहब‘ कहा जाता है। चेहरे पर पुता आटा और सिर पर टोप- शायद अंग्रेज शासकों पर व्यंग्य हो। साहब के आगे-आगे ढोल वादक तथा शहनाई वादक पशु चर्म ओढ़े चलते हैं। ‘हर नात्र‘ के इस जुलूस में ग्राम देवता का जयकार लोकगीत के रूप में होता है-
प्रीतिभोज भी मनोरंजन ‘स्वांग‘ के माध्यम से होता है
अपनी-अपनी खाटों पर आसीन ‘मंजिहाणिए‘ (बैठे-लेटे ग्रामीण) जुलूस का स्वागत करते हुए मुंह मांगा ‘बकरोटा‘ (दान) देते हैं। रात-भर इस प्रकार के स्वांग अभिनय, हास-परिहास से पर्याप्त बरू (दोनों ओर पैसों के रूप में प्राप्ति) एकत्र हो जाता है। प्रातः ‘हरण‘ का ‘विसर्जन‘ होता है, जब सभी अभिनेता अपने ‘साहब‘ के नेतृत्व में उसी देवालय में लौटते हैं, जहां से शोभा यात्रा शुरू हुई थी। विदाई होने से पूर्व ‘कगोल‘ (प्रीतिभोज) की तिथि तय हो जाती है, जिसकी व्यवस्था ‘बरू‘ से प्राप्त राशि सामग्री से होती है। प्रीतिभोज भी मनोरंजन ‘स्वांग‘ के माध्यम से होता है।