हिमाचल के पहाड़ी रूमाल व हस्तशिल्प-कलाएं…..

जम्मू के बसोहली से चम्बा आई थी रूमाल कला

पहाड़ी हस्तकला लोक-शिल्प में पहाड़ी-रूमालका महत्वपूर्ण स्थान है। ये रूमाल चम्बा, कांगड़ा, मण्डी, बिलासपुर तथा कृत्तु में बनते हैं। यह कला जम्मू के बसोहली से चम्बा आई थी। संसार चन्द के काल में यह कांगड़ा में लोकप्रिय हुई और से हिमाचल के अन्य भागों में गई। चम्बा में राजा राज सिंह और रानी शारदा के समय इसे विशेष प्रोत्साहन मिला और इसे “था रूमालका नाम दिया गया। ये रूमाल अधिकतर चौकोर और कार्यों-कातें आयताकार कपड़े पर बनते हैं। इन पर रंग-बिरंगे पक्के रेशमी द्वारा रासलीला, कृष्णलीला, राग-रागनियों तथा पौराणिक चित्रों का चित्रण मिलता है। फुलकारी में कशीदे गए चित्रों के मध्य कार शीशे भी जड़े जाते हैं।

कुल्लू के शाल-दुशाले, साहोल के नमदे, गलीचे आदि भी कलात्मक

इस कला में थापड़ा (विशाल चादरनुमा कपड़ा), कोहारा (दीवार लटकाने का कपड़ा), तकिए के कवर, गिलाफ, चोलियों, टोपियों की कशीदाकारी भी पहाड़ी हस्तशिल्प कला के नमूने हैं। ये कस्तुएं प्रायः घर-गृहस्थी की शोभा बढ़ाने के लिए बनाई जाती हैं। इसी प्रकार कुल्लुई, सिरमौरी, किन्नौरी तथा लाहौली टोपियों की साज-सज्जा में की इस कला रूपों के संकेत मिलते हैं। कुल्लू के शाल-दुशाले, साहोल के नमदे, गलीचे आदि भी कलात्मक होते हैं। नए कपड़ों में घटे-पुराने चीथड़े भरकर गुड़ियां और हाथी आदि बनाने की परम्परा हिमाबास में हैं जो कि दहेज में भी दिए जाते हैं। रंग-बिरंगे कपड़ों की कतरने जोड़कर बनाए गए बिछौने भी आकर्षक होते हैं।

छक्कू, पटारू, बाँया, पेड़, किरनियां, श्रृंगारदान, फूलदान, कुर्सियां, मेज, कौच और कुर रैक आदि वस्तुएं कलात्मक अभिरूचि का परिचय देती हैं

कपड़ों की रंगाई, बांस के विभिन्न प्रकार के औजार और बर्तन जिने होम बनाते हैं, साज-सज्जा संबंधी उपकरण जिनपर लाल-पीले रंग चित्रकारी की जाती है, लोक कलाओं के नमूने हैं। छक्कू, पटारू, बाँया, पेड़, किरनियां, श्रृंगारदान, फूलदान, कुर्सियां, मेज, कौच और कुर रैक आदि वस्तुएं कलात्मक अभिरूचि का परिचय देती हैं।

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