हिमाचल: कांगड़ा का इतिहास जितना पुराना है उतनी ही पुरानी लोगों की आभूषण और परिधान शैली…
हिमाचल: कांगड़ा का इतिहास जितना पुराना है उतनी ही पुरानी लोगों की आभूषण और परिधान शैली…
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पुरुषों का पहनावा
सिर पर पहने जाने वाले वस्त्र : टोपी : टोपियों के भिन्न रूप हैं। पुराने समय में चकलू टोपी होती थी जो छोटे छक्कू या चौड़ी प्याली नुमा आकार में होती थी। लड़कियां तथा स्त्रियां इन्हें रंगीन धागों से कढ़ाई करती थीं। बेल-बूटे रंगीन धागों से बनाती थीं। इसके साथ सफेद गांधी टोपी भी पहनते थे। धीरे-धीरे कालान्तर में बनी बनाई किश्तीदार टोपी बाज़ार में चली, उसमें तिल्ला, बेल बूटा भी किसी पर लाल रंग का होता जो संस्कारों में पहनते थे। उसके उपरान्त डग्गू टोपियां चलीं। काले रंग की यह सुन्दर बनकर आती और बाजार से खरीदी जाती रही। तत्पश्चात् धीरे-धीरे टोपी गायब हो गयी।
पगड़ी, साफा, टोपी स्थानीय भाषा में इन्हें चकलू, टोपी, कनपटी टोपी किश्तीदार टोपी, डग्गू टोपी कहा जाता है। विवाह या शुभ संस्कार में संतरी रंग की और बंसत पंचमी को पीले रंग की पगड़ी बांधते हैं। हिमाचल प्रदेश के पारम्परिक परिधान एवं आभूषण पगड़ी साफाः पुराने समय से ही मुख्यतः सिर वस्त्र पगड़ी या साफा रहा है। इसकी लम्बाई वर्ग एवं आकारानुसार भिन्न रहती है। इसकी प्रायः लम्बाई 5.6 गज और चौड़ाई 9 से 1 फुट तक होती है। निम्नवर्ग में इसकी लम्बाई कम होती जाती है। यह मलमल का बना होता है और प्रायः रंगकर मांड देकर अपने-अपने ढंग से इसे पहनते हैं। पंडित वर्ग सफेद साफा पहनते हैं, अन्य वर्ग रंग कर मांड युक्त तुर्रा कलगीनुमा पहनते हैं।
कनपटी टोपी : यह टोपी गोलाकार सिर ढकी और कानों तक लम्बी होती थी। नीचे दो तणियां कपड़े की होती हैं जिन्हें ठोडी पर बांध लेते हैं। प्रायः वृद्धों और बालकों को शीत ऋतु में यह पहनाई जाती थी। आज उस का स्थान ऊन की टोपी ने ले लिया है।
शरीर के वस्त्र: पुराने समय से ही लम्बा कुर्ता पहनने का रिवाज रहा है। यह दो प्रकार का होता था। पूरे बाजू वाला और आधी बाजू वाला। यह बंद गले वाला बिना कालर के होता था। पुराने समय में बटन के स्थान पर घुड़ी होती थी जो कपड़े के सम्पुट की होती थी। प्राचीन काल में शरीर वस्त्र अंगरखा कुर्ता ऊपर से और नीचे से बहुत घेरा नुमा राजाओं-योधाओं का वस्त्र रहा है।
अघो वस्त्र : लंगोटी या लंगोट पहनते थे। निम्नवर्ग में “लांगड” होती थी। आकार में नितम्ब भाग में कपड़े से सिली और आगे लंगोट लगी पहलवानों के प्रकार की। धीरे-धीरे रिवाज बदला और उसका स्थान कच्छे ने ले लिया।
पड़तणी, तौलिया, धोती : पुराने समय में पड़तणी सफेद लम्बी तौलियानुमा होती थी । फिर तौलिया तथा परना प्रचलित हुआ। पंडित लोग धोती पहनते थे। अन्य लोग भी रूचि अनुकूल धोती पहनते, रसोईयों को तौलिया या परना लगाकर ही रसोई करनी होती थी। पूजा-पाठ में धोती का प्रयोग होता था। आधुनिक काल में सब गायब है। अब कोई ब्राह्मण, पंडित, पुजारी वर्ग ही धोती का प्रयोग करते हैं।
पृष्ठ या पीठ वस्त्र पुराने समय में अंगरखा होता था। सेनापति सैनिकों के चित्रों में आज भी इस का स्वरूप मिलता है। कांगड़ा शैली के चित्रों में यह दृष्टिगोचर होता है। कालान्तर में अभिजात्य वर्ग में इस का स्थान अचकन ने ले लिया है। कालान्तर में इस का स्थान कोट ने ले लिया जो दो प्रकार का होता है। बंद गले वाला बिना कालर के। दूसरा कालर वाला सिंगल ब्रेस्ट या डबल ब्रेस्ट। बास्कट या कमरी का प्रचलन भी रहा है। कई स्थानों पर कोट की जगह कमरी या बास्कट का प्रयोग होता, जो कालर तथा भुजा (बाजू) रहित होती है।
धोती और परने या तौलिये के अतिरिक्त पायजामा पहनने का भी रिवाज़ रहा है। प्रायः रात्रि वस्त्र के स्थान पर कमीज, पायजामा पहनते हैं। खेलते तथा व्यायाम के समय निक्कर पहनते हैं। छात्रों का परिधान भी कई जगह निक्कर या हाफ पैंट है। पुराने समय में अचकन के साथ चूड़ीदार पायजामा भी रहा है। पायजामा खुले पाँचे का या तंग रूप में प्रयुक्त होता है।
मफलर, स्वैटर, कोटी: शीत ऋतु में मफलर गले का वस्त्र और स्वैटर तथा कोटी पहने जाते हैं। गर्मियों में मफलर के स्थान पर परना भी लपेटते हैं।
पादत्राण: जुराबे भी पहनी जाती हैं। जो सर्दियों में गर्म और गर्मियों में सूती होती है। पुराने समय में चमड़े के जूते मोची बनाते थे। अब उसका स्थान गुराबी और बूट ने ले लिया है।