आज भी जीवित है लाहौल-स्पीति में बौद्ध सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन इतिहास

हिमाचल: आज भी कायम है लाहौल-स्पीति में बौद्ध सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन इतिहास

फागली’ और 'हालदा’ पर्व भी लाहौली जनजाति के प्रमुख मेले

फागली’ और ‘हालदा’ पर्व भी लाहौली जनजाति के प्रमुख मेले

लदर्चा लाहौलियों का सबसे पसंदीदा मेला

फागलीऔर हालदापर्व भी लाहौली जनजाति के प्रमुख मेले

इंसानी जिंदगी में खुशियों के रंग भरते हैं मेले और त्योहार। लाहौलियों का सबसे पसंदीदा मेला है ‘लदर्चा’। यह वार्षिक मेला अपने विविध आयोजनों मसलन पशुव्यापार, नृत्यसंगीत और पारंपरिक वस्तुओं के खरीद-बिक्री का महत्वपूर्ण माध्यम है। भगवान शिव के त्रिलोकनाथ मंदिर के समीप ‘पोरी’ मेला आस्था और विश्वास की अमिट छाप लिए हुए है। वहीं ‘सिससु’ मेले में बौद्ध मान्यताओं के दर्शन होते हैं। इसके अलावा  ‘फागली’ और ‘हालदा’ पर्व भी लाहौली जनजाति के प्रमुख मेलों में शामिल हैं।

नृत्य और संगीत से लाहौली जनजाति का लगाव सदियों पुराना

नृत्य और संगीत से लाहौली जनजाति का लगाव सदियों पुराना

नृत्य और संगीत से लाहौली जनजाति का लगाव सदियों पुराना

लाहौली समाज में लोग तमाम मुश्किलों को झेलते हुए भी खुश रहना जानते हैं। नृत्य और संगीत से लाहौली जनजाति का लगाव सदियों पुराना है। खुशी का कोई भी अवसर बिना नृत्य और संगीत के अधूरा होता है। लाहौली समाज में स्त्री और पुरूष दोनों ही नृत्य की विधा में पारंगत होते हैं। छंग और अराक, नृत्य संगीत का ऐसा समां बांधता है कि सारी दुश्वारियों को भूल लाहौली लोग नाचते और झूमते हैं। बांसुरी की धुन और नगाड़ो की छाप पर पुरूष और महिलाएं अलग-अलग समूह में ‘शेहनी’ नृत्य करते हैं।

लाहौली जनजाति में बौद्ध मान्यता पर आधारित  ‘छम’ नृत्य भी अपनी खास पहचान बनाये हुए हैं। ‘छम’ नृत्य मुखौटा लगा कर किया जाता है। यानी नृत्य करने वाले मुखौटों के द्वारा दूसरे का रूप धारण करके ‘छम’ को जीवंत रूप में प्रस्तुत करते हैं। इसके अलावा लाहौलियों में ‘धुरे’ नृत्य भी खासा प्रचलित है। इस नृत्य में नर्तक अर्द्धगोलाकार और गोलाकार घेरा बना कर आकर्षक नृत्य की प्रस्तुती करते हैं। यह नृत्य मुख्य रूप से गायन पर आधारित है और इसमें वाद्ययंत्रों के संगीत अभाव होता है। इस नृत्य में गायन की शैली इतनी प्रभावशाली होती है कि संगीत नहीं भी होने पर असर नहीं पड़ता ‘धुरे’ नृत्य में रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर नाट्य नृत्यों की प्रस्तुती की जाती है।

वेद रचना स्थल

महर्षि वेद व्यास ने यहीं तपस्या की थी और संसार की प्रथम पुस्तक ‘वेद की रचना की थी। महाभारत काल में अर्जुन ने भी यहीं इन्द्रकील पर्वत की गोद में तपस्या की थी, जिस पर भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उसे पाशुपत अस्त्र दिया था। यही नहीं, रोहतांग पांडवों के स्वर्गारोहरण का पथ भी रहा है। कुछ लोगों की मान्यता है कि अपनी अंतिम यात्रा के दौरान पांडवों व द्रौपदी ने यहीं पर अंतिम श्वास ली थी। पौराणिक महाकथाओं में जिन विशाल पर्वतों-भृगतुंग, इंद्रासन और देव टिब्बा का उल्लेख आया है, वे सभी यहीं पर स्थित हैं। रोहतांग दर्रा प्रति वर्ष मई या जून महीने में खुलता है व अक्तूबर-नवंबर तक यहां सैलानियों की खूब चहल-पहल रहती है। इन्हीं दिनों रोहतांग दर्रा लांघ कर लाहौल स्पीति जाया जाता है। रोहतांग दर्रे को पार करते ही लाहौल स्पीति जिले की सीमा शुरू हो जाती है। रोहतांग से सात किलोमीटर नीचे उतर कर कई घुमावदार मोड़ों को तय करते हुए ‘ग्राम्फू’ नामक स्थल आता है यहां से स्पीति घाटी के लिए दाई ओर से और लाहौल घाटी के लिए बाई ओर से रास्ता जाता है। यहां से जब हम लाहौल घाटी के लिए पहले सफर शुरू करते हैं तो चन्द्रा नदी हमारी पथ प्रदर्शक बन जाती है। तांडी नामक स्थान पर केलांग से आती ‘भागा’ नामक एक अन्य नदी इस नदी में आ मिलती है और इनका नाम ‘चन्द्रभागा’ पड़ जाता है।

झीलें: सूरजताल, चन्द्रताल, मनि यंग छोह और ढंकर छोह लाहौल स्पीति की चार प्रमुख झीलें हैं जो बर्फीले शैल शिखरों के बीच में स्थित हैं। इन झीलों का सौंदर्य नयनाभिराम है। लेकिन ये अत्यंत दुर्गम स्थलों पर स्थित हैं। जिनके पांवों में दमखम है और सीने में एडवेंचर, वह इन झीलों के सौंदर्य को आत्मसात कर सकते हैं। यहां के गांव, झीलें, बर्फीले दर्रे, बौद्ध मठ देखने लायक हैं। स्पीति घाटी में पिन नदी के दोनों ओर पिन घाटी है। यह घाटी अपने शानदार घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है। यह इलाका कितना निर्जन है और यहां रहना कितना मुश्किल है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि लाहौल व स्पीति जिलों की कुल आबादी महज 33 हजार है। यहां कोई शहर नहीं, पूरी आबादी ग्रामीण है और कुल 521 गांवों में से आधे में ही लोग बसते हैं। इलाका जितना दुर्गम है, उसमें तो पंद्रह हजार फुट की ऊंचाई तक बस से रास्ता तय करने की कल्पना ही अद्भुत और रोमांचक है। गर्मियों में बड़ी संख्या में रोमांच प्रेमियों और विदेशी सैलानियों को इन झीलों के किनारे तम्बू लगाये देखा जा सकता है।

दो नदियों की प्रेमगाथा

हिमाचल के लाहौल स्पीति जिले में बहती चंद्रभागा नदी का सौंदर्य और बहाव अनोखा है। किवदंतियों और पौराणिक कथाओं से जुड़ी यह नदी तीर्थयात्रियों के साथ ही दूसरे पर्यटकों को भी आकर्षित करती है। इसके धार्मिक महत्व और सुंदरता के बारे में बता रहे हैं अश्वनी वर्मा। चंद्र और भागा नदी का मिलन स्थलचंद्र और भागा नदी का मिलन स्थल हिमाचल के लाहौल स्पीति जिले में अथाह सौंदर्य है। हिमालय की गोद में बसे इस जिले में चंद्रभागा नदी में अनोखा प्रवाह है। चंद्र नदी चंद्रमा की पुत्री और भागा सूर्य का पुत्र माना जाता है। किसी कारणवश इनकी शादी में अड़चने आईं लेकिन इन्होंने अपना मिलन नदी के रूप में एक होकर किया। इन्होंने जल तत्व के रूप में अपना ठिकाना यहां बनाया। एक तरफ से चंद्र आती है तो दूसरी तरफ से भागा। तांदी नामक स्थल पर ये दोनों एकरूप हो जाती हैं। यहां पर ये बड़ी नदी का रूप ले लेती हैं। कहते हैं कि बाद में यह चंबा जिले में पहुँचकर चिनाब का नाम ले लेती है। तांदी में इनके मिलन को चंद्रभागा के रूप में देखा जाता है। चंद्रभागा को गंगा-सा पवित्र माना जाता है। लोग अभी भी नदी की पवित्रता के कारण यहां अस्थियां बहाते हैं। जहां से चंद्र नदी बहती है, उसे रंगोली घाटी के नाम से जाना जाता है। जबकि भागा नदी के बहाव के स्थान को पत्तन घाटी के रूप से जाना जाता है। मिलने से पहले चंद्र और भाग के बीच के स्थान में एक बड़ी त्रिभुज की आकृति बनती है। इन नदियों के अलावा जंस्कर नदी, स्पीति नदी और पिन नदी भी लाहौल स्पीति से गुजरती है। यह लाहौल घाटी के उत्तर में बहती है। इसे भागा की ही सहायक नदी माना जाता है।

स्पीति नदी स्पीति में है जो किन्नौर जिले के खाब स्थान पर सतलुज में मिल जाती है। पिन नदी स्पीति की सहायक नदी है। यहां घाटियों में चंद्रा घाटी, तीनन घाटी, पट्टन घाटी, मयाड़ घाटी, गोर घाटी, तोद घाटी और स्पीति घाटी मशहूर है। तीनन घाटी के लोगों को तिनबबा कहते हैं। यहां राजा घेपन का मंदिर है। घेपन का अध्यात्म की दृष्टि में ऊंचा स्थान है। लाहौल में प्रवेश करते ही सबसे पहले मनमोहक चंद्र घाटी के दर्शन होते हैं। यहां पर बौद्ध धर्म से जुड़े अधिक लोग हैं। पट्टन घाटी में बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हुआ माना जाता है लेकिन यहां पर अधिकतर हिंदू लोग ही रहते हैं। त्रिलोकीनाथ मंदिर और मृकुला देवी मंदिर इसी घाटी में पड़ते हैं। मयाड़ नाले के निकट मयाड़ा घाटी बसी है। गार घाटी जिला मुख्यालय केलंग का ही हिस्सा है। लद्दाख की तरफ तोद घाटी है। बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाले अधिकतर लोग स्पीति घाटी में रहते हैं। यहां के मठों की चित्रकला प्रसिद्ध है।

उदयपुर एक गांव है जो चंद्रभागा के बाईं ओर है। जहां चंद्र और भागा का मिलन होता है, वहां से करीब सैंतीस किलोमीटर की दूरी पर त्रिलोकनाथ गांव है। हिंदुओं के लिए यह भक्ति केंद्र रहा है। जिसे शैव पीठ भी कहा जाता है। यहां मंदिर शिखर शैली का है, जहां पत्थर

दो नदियों की प्रेमगाथा

दो नदियों की प्रेमगाथा

का ही प्रयोग हुआ है। साथ ही सीढ़ियां उतरकर बौद्ध मंदिर है। इसमें एक बड़ा धर्म चक्कर है। दूसरे गेट पर मुख्य मंदिर है। यहां छह भुजाओं वाली भगवान त्रिलोकी नाथ का मंदिर है। सिर पर बौद्ध की आकृति है। बौद्ध त्रिलोकीनाथ की प्रतिमा को अवलोकितेश्वर के रूप में तो हिंदू शिव के रूप में पूजते हैं। यानी हिंदुओं और बौद्धों के लिए यह स्थान साझा आध्यात्मिक स्थल है। मंदिर से जुड़ी अपनी गाथा है। भगवान शिव यहां तपस्या में मग्न रहे। मान्यता है कि वे यहां अज्ञात रूप से रहते हैं। पार्वती शिव से मिलने के लिए बेचैन थीं तो नारद और पार्वती ने उन्हें ढूंढा। लोककथा है कि शिव ने पार्वती को यहां अपने तीन विराट रूप दिखाए थे। तभी स्थान की मान्यता त्रिलोकीनाथ के तौर पर है। गांव त्रिलोकपुर के नाम से जाना जाता है।

 किवदंतियां इस मंदिर के बारे में कई  प्रचलित है। एक गड़रिए और त्रिलोकनाथ के पत्थर होने की कहानी भी इस स्थान से जुड़ी है। पहले इस गांव का नाम तुंदा बताया जाता है। इस गांव की कुछ दूरी पर हिन्सा गांव था। जहां टिंडणू गड़रिया रहता था। जो गांव वालों की भेड़-बकरियां चराता था। पर इन बकरियों का दूध कोई दुह लेता था। इसका न तो गांव वालों को और न ही गड़रिए को पता चलता था। गांव वालों ने मिथ्या आरोप टिंडणू पर जड़ दिए कि वह उनकी बकरियों का दूध चुरा लेता है। इस आरोप से टिंडणू तिलमिला गया।

अपमान के घूंट पीकर रह गया था वह। पर उसने इस आरोप को झूठा साबित करने और चोर को ढूंढ निकालने का संकल्प लिया। उसने एक स्थान पर देखा कि एक पानी के स्रोत से सात मानव आकृतियां निकलीं और उन्होंने बकरियों को दुहना शुरू कर दिया। इन्हें पकड़ने की टिंडणू ने कोशिश की लेकिन सफेद कपड़ों में एक व्यक्ति को ही पकड़ पाया। इस व्यक्ति ने टिंडणू से उसे छोड़ने का आग्रह किया। पर टिंडणू पर तो चोर को पकड़ने से अधिक वह अपने मिथ्या आरोप को झुठलाना चाहता था। पर वह उसे गांव हिन्सा तक ले आया। वहां गांव वालों को उसने इस चोर के बारे में बताया। पर ग्रामीणों को लगा कि यह व्यक्ति मानव नहीं है। उन्हें लगा कि यह कोई देवता है। जिस कारण वहां के लोगों ने घी और दूध से उस व्यक्ति की पूजा की।

उसने बताया कि वह त्रिलोकनाथ है और यहीं कहीं वह रहना चाहेंगे। उन्हें तुंदा गांव बहुत पसंद आया। बाद में उन्होंने टिंडणू को कहा कि वह उस जगह पर भी पूजा करके आएं जहां से वह उन्हें लेकर आया है। पर पीछे मुड़कर न देखने की त्रिलोकनाथ ने उसे सलाह दी। पूजा करने गए टिंडणू को वहां सात झरने दिखाई दिए। जिन्हें अब सप्तधारा के नाम से जाना जाता है। पर टिंडणू ने मुड़कर अपने गांव हिन्सा पहुंचने पर ही देखा। ऐसा करने से त्रिलोकनाथ और स्वयं टिंडणू भी पत्थर हो गए। जिस कारण तुंदा गांव का नाम त्रिलोकीनाथ पड़ा। यहां पर मंदिर बना। कहते हैं कि पांडव बनवास के समय यहां आए थे। उन्होंने इस मंदिर को फिर से बनाना शुरू किया था। लेकिन, गुप्तचरों ने कौरवों को यहां होने की खबर दे दी, जिसे पांडवों ने जान लिया और पांडव यहां से निकल गए।

इस कारण मंदिर का काम यहां अधूरा रह गया था। बाद में भी मंदिर का जीर्णोद्धार होता रहा। यहां पर फागली और कुह मेले का आयोजन होता है। लोहिड़ी और फागली के मेले भी होते हैं। हर तीसरे साल त्रिलोकीनाथ की जुलाई में शोभायात्रा निकाली जाती है। यह यात्रा सप्तधारा तक जाती है। कहा जाता है कि त्रिलोकीनाथ सप्तधारा में अपने साथियों से मिलने जाते हैं। अगस्त में यहां पोरी मेला होता है। मनाली-केलांग-उदयपुर सड़क बन जाने के कारण यहां पर अब मेलों के अवसर पर बहुत भीड़ होती है।

हिमालय की गोद में बसे इस जिले में चंद्रभागा नदी में अनोखा प्रवाह

जारी…..

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3 Responses

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  1. विक्रम सिंह शाशनी
    Sep 17, 2015 - 08:13 PM

    लाहुल स्पिति मे बौद्ध धर्म का इतिहास
    लाहुल और स्पिति भारत का एक ऐसा क्षेत्र जिसकी जानकारी बहुत ही कम लोगों को है।“यहां की संस्कृति यहां के लोगों का रहन सहन और यहां के लोगों का धर्म”, इनके बारे मे बहुत कम लोग जानते हैं। मुझे आज अपनी संस्कृति के बारे में लिखने का मौका मिला इसे मैं अपनी खुशकिस्मती मानता हूँ। लाहुल स्पिति ने अनेक उतार चढाव देखे हैं।17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लद्दाखी साम्राज्य से अलग होने के बाद लाहुल कुल्लू के मुखिया के हाथों मे चला गया। सन् 1840 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहुल और कुल्लू को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1846 तक उस पर राज किया। सन् 1846 से 1940 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा। सन् 1941 में लाहुल स्पिति को एक उपतहसील बनाकर कुल्लू उपमंडल से संबद्ध कर दिया गया।1960 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने लाहुल-स्पिति को पूरे जिले का दर्जा प्रदान कर दिया और 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद लाहुल-स्पिति जिले को हिमाचल प्रदेश में मिला लिया गया।
    प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भारत में भोट बौद्ध संस्कृति को सीमावर्ती बौद्धों ने ही सुरक्षित कर रखा है। यहां की संस्कृति का इतिहास हज़ारों साल पुराना है। लाहुल स्पिति, लद्दाख, किन्नौर, सिक्किम,और भुटान, आदि के लोगों की एक ही संस्कृति है। यहां के लोगों ने अनेक कष्टों को सहते हुए अपनी संस्कृति को संभाल कर रखा है। सभी क्षेत्रों की तरह यहां के लोगों का धर्म भी बौद्ध धर्म ही है। हिमाचल प्रदेश में लाहौल स्पिती तथा किन्नौर की संस्कृति एक अत्यन्त श्रेष्ट संस्कृति मानी जा सकती है। क्योंकि यहां की संस्कृति हज़ारों वर्षों पुरानी है। लाहुल तथा स्पिति दो अलग क्षेत्र है। अतः दोनो क्षेत्रों का इतिहास भी भिन्न है।
    लाहुल
    लाहुल भारत के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित विभिन्न सुन्दर घाटियों में से एक अत्यन्त ही सुन्दर घाटी है। इस घाटी को लाहुल कहने के पीछे मान्यता यह है कि यह प्रदेश आदि काल से देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों, और मनुष्यों की मिली जुली जातियों का संगम स्थल रहा है। इसलिए इसका प्रारम्भिक नाम ल्ह युल पड़ा। तिब्बती भाषा मे ल्ह का मतलब देवता तथा युल का मतलब प्रदेश है, अर्थात ल्ह युल का मतलब देवताओं का प्रदेश है। जिसे लोगों द्वारा लाहुल तथा कहा जाने लगा। तिब्बती तथा लद्दाखी लोगों में यह गरजा नाम से प्रसिद्ध है। तथा कुछ लोग इसे करजा भी कहते हैं। गरजा शब्द गर तथा जा दो शब्दों की सन्धि से बना है। भोट भाषा मे गर का अर्थ नृत्य तथा जा का अर्थ कदम है अर्थात कदमों का नृत्य। य़हाँ की सांस्कृतिक नृत्यों मे कदमों का बहुत महत्व है। अत: इस क्षेत्र का नाम गरजा पड़ा। दुसरे शब्दों में करजा भी दो शब्दों के मेल से बना है। कर अर्थात श्वेत तथा जा अर्थात टोपी। कहा जाता है कि प्राचीन काल मे लाहुल की संस्कृति में श्वेत टोपी का प्रचलन था। इसी कारण स्थानीय लोग इसे करजा कहने लगे।
    विद्वानों के अनुसार लाहुल क्षेत्र में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित पुरातत्विक प्रमाण ना के बराबर हैं। वर्तमान काल में त्रिलोकीनाथ मन्दिर के सामने कुछ प्राचीन काल के शिलापट्ट देखे जा सकते हैं। इन शिलापट्टों को देखकर प्रतीत होता है कि कभी वहां पर कोइ विशेष विहार रहा होगा,जहाँ कालान्तर में केवल मन्दिर ही शेष रह गया है। वहीं पर खुदाई के समय शोधकर्ताओं को तल से आर्य अवलोकितेशवर की एक मुर्ति भी प्राप्त हुई थी। तथा विद्वानों के अनुसार विहारों के अवशेष से यह भी प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में भिक्षु यहाँ निवास करते थे। और यहाँ बौद्ध परम्परा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त लाहुल के कुछ अन्य स्थानो में भी बौद्ध धर्म के प्राचीन अवशेष प्राप्त होने के प्रमाण मिलते हैं। जैसे- गन्धोला के विहार का खण्डहर। कुछ विद्वानों के मत्तानुसार यह भी कहा जाता है कि यहाँ कुक्कुट देश के राजा महाकप्पिन ने भगवान बुद्ध से अपने दर्शन स्थली होने के कारण एक स्मारक स्वरुप विहार का निर्माण करवाया तथा बौद्ध भिक्षुऔं को इस स्थान पर रहने के लिए कठिनाई का सामना न करना पड़े इसलिए इस विहार की स्थापना की गई थी। भक्त गण जब भगवान बुद्ध के दर्शन करने जाते तो सुगन्धित पुष्प अर्पित करते थे। अत: सुगन्धित पुष्पों के परम्परा के कारण ही भगवान बुद्ध की कुटी “गन्धकुटी कही जाने लगी। सम्भवत: भगवान बुद्ध की गन्धकुटी ही बोल चाल के प्रभाव के कारण ही पहले गुन्धकुटी और फिर गन्धोला मे परिवर्तित हो गई। कहा जाता है कि इस मठ का निर्माण नवीं शताब्दी में किया गया था। यह विद्वानो का मत है।
    इसके अतिरिक्त और भी कुछ बातें हैं जिनसे लाहुल मे बोद्ध भिक्षुओं के आगमन का पता चलता है। अंग्रेज़ों के समय में गन्धोला के आसपास लोगों को एक पीतल का लोटा मिला था। कहा जाता है कि वह किसी भिक्षु का भिक्षा पात्र था। उस पर अंकित चित्रों के आधार पर विद्वानों ने इसे पहली शताब्दी से लेकर दूसरी शताब्दी बीच का माना है। विद्वानो ने इसे बोद्ध भिक्षुओं का लाहुल के रास्ते तिब्बत की ओर जाने का प्रमाण माना है। कहा जाता है कि ईसा पुर्व कई बोद्ध भिक्षुओं को विभिन्न जगहों पर भेजा गया था। जिनमे से पाँच को हिमवत्त (हिमालय) क्षेत्र की ओर भेजा गया। इसी के आधार पर कहा जाता है कि शायद इन्ही मे से किसी का भिक्षा पात्र वहाँ पर रह गया था। तथा इसे लाहुल मे बोद्ध भिक्षुओं के होने का प्रमाण भी माना जाता है।
    इस प्रकार के अनेक विवरण प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध है। विद्वानों के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों को जानने के तीन स्रोत कहे गए हैं। पुरातत्व, शास्त्र और परम्परा। इन स्रोतों से लाहौल के विभिन्न स्थानों, नदियों, तथा जातियों के बारे मे जो जानकारी प्राप्त होती है, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि इस घाटी में बौद्ध धर्म का प्रवेश ईसा पुर्व से होकर वर्तमान काल तक इसका विस्तार होता रहा है।
    स्पिति
    स्पिति भारत और तिब्बत की सीमा पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है। जो आजकल हिमाचल प्रदेश का अभिन्न अंग है। किन्तु इस प्रदेश की जानकारी बहुत ही कम लोगों को है। शायद यही कारण है कि यहाँ के लोगों ने अपनी संस्कृति और अपने रिति रिवाज़ों को आज तक संभाल कर रखा है। संस्कृति के मामले में स्पिति अभी भी कहीं अधिक समृद्ध क्षेत्र है। स्पिति के इतिहास की बात करे तो पता चलता है कि स्पिति ने भी कई उथल पुथल झेले हैं। कभी तिब्बत के राजाओं के कारण ,कभी लद्दाख के , कभी बुशहर, कभी कुल्लू के राजाओं के आक्रमणों के कारण । परन्तु इसकी संस्कृति पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक झलक से आज भी हमें आकर्षित करता है।
    विद्वानों के अनुसार इस पर सबसे पहले पश्चिमी तिब्बत के राजाओं की नज़र पड़ी। क्य़ोकि आज भी पिन घाटी में बुछेन लामाओं द्वारा तिब्बत के राजा पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया जाता है। यह नाटक तिब्बत के तैंतीसवें राजा सोंगच़ेन गम्पो के जीवन पर आधारित है।ज्यादातर विद्वान उनका शासन काल 617ई0 से 650ई0 तक मानते हैं। जिनके शासन काल मे ही तिब्बत मे बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई थी। विद्वानों के मतानुसार स्पिति मे बौद्ध धर्म की उत्पत्ति तथा प्रसार में आचार्य रत्नभद्र का नाम अविस्मरणिय है। भोट भाषा मे उन्हें लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के नाम से जाना जाता है। अत: स्पिति के इतिहास के बारे मे लिखने से पहले लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के बारे मे थोड़ा विवरण देना आवश्यक है। लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो हंगरंग वादी के सुमरा गांव से थे। जो तब ग्युगे राज्य का एक भाग था। 1937 मे राहुल सांकृत्यायन अपनी यात्रा के दौरान कश्मीर के रास्ते हंगरंग वादी से होकर लद्दाख व स्पिति मे आए थे। उन्होने अपनी यात्राओं के वर्णन मे बताया है कि जब वे तिब्बत से स्पिति आये थे तो किन्नर गावों से होकर लौटे थे।
    स्पिति को गोम्पाओं तथा मठों का देश कहना भी अनुचित नहीं है। जहाँ पर बौद्ध भिक्षु बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं। इनमे से ताबो ,डंखर ,की ,करज़ेग ,ल्हा-लुङ ,गुंगरी आदी प्रमुख हैं। विद्वानों के अनुसार ताबो गोम्पा लोच़ावा रिन्छेन जांगपो द्वारा सन् 996 में देवी देवताओं की कृपा से बनाया गया था। उनकी योजना 108 गोम्पा बनाने की थी किन्तु सुबह होते तक सिर्फ आठ ही बना पाएं। ताबो गोम्पा मे हर साल सितम्बर मे (छम) मुखोटा नाच भी होता है। कहा जाता है कि राजा यिशे होद ने रिन्छेन ज़ांगपो को 21 युवकों के साथ कश्मीर में संस्कृत पढ़ने के लिए भेजा था तथा बौद्ध ग्रन्थों को लाने का कार्य भी दिया था। बिमारी के कारण 19 युवक काल का ग्रास हुए केवल रिन्छेन ज़ांगपो तथा लेग-पई शेरब ही शिक्षा पुर्ण कर अपने देश लौट पाये थे। रिन्छेन ज़ांगपो ने कंग्युर के कई ग्रन्थो का संस्कृत से तिब्बती भाषा मे अनुवाद किया । सन् 1000 मे गुगे राज्य में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान हुआ।
    किद्-दे-ञिमा-गोन के शासनकाल मे स्पिति लद्दाख का एक हिस्सा था। ञिमा-गोन ने अपने राज्य को अपने तीन बेटों के बीच बांट दिया। बड़े लड़के को लद्दाख, दूसरे को गुगे और पुरांग, सबसे छोटे को स्पिति तथा जंस्कर दिया। देचुक गोन जो सबसे छोटा था। उसने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाए। उसने राज्य के कुछ गावों को गोम्पाओं तथा कुछ स्थानीय लोगों को बांट दिया। दक्षिणी स्पिति पर कई वर्षो तक गुगे राजाओं का राज रहा। विद्वानों ने गोन वंश के राजाओं का भी वर्णन किया है। इनमे प्रमुख किद्-दे-ञिमा-गोन का वर्णन मिलता है। यह राजा लङ-दरमा का पोता था। इसके बाद लद्दाख और ल्हासा की लड़ाई का भी स्पिति की संस्कृति पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसके बाद कुल्लू के राजा मानसिंह ने स्पिती पर कब्ज़ा किया तथा स्पिति को कुल्लू राज्य मे सम्मिलित किया गया। सन् 1941 मे लाहौल के साथ मिलाकर इसे उपतहसील का दर्जा दिया गया।

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  2. विक्रम सिंह शाशनी
    Sep 17, 2015 - 08:21 PM

    मै बनारस तिब्बती विश्व विद्यालय मे अध्ययनरत छात्र हूंँ , मुझे यह जानकर अतयन्त गर्व महसूस हो रहा है कि मेै आज भी ऐसे धर्म तथा ऐसे समाज का हिस्सा हूँ.

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  3. ashish mishra
    Aug 17, 2016 - 02:23 AM

    mujhe bhi aj bahut harsh ho rha hai yah jankar ki hamari sanskriti ko kitna acche tareeke se dekhbhal karte hai ham log mai abhi banaras hindu university se addyan kar rha hu

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