नौणी : जलवायु परिवर्तन की शमन रणनीतियों पर चर्चा, करीब 250 लोगों ने कार्यक्रम में लिया हिस्सा

नौणी : हाई-टेक बागवानी और वानिकी आधारित ईको टूरिस्म, स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्रियों का उपयोग और एक साधारण जीवन शैली को अपनाकर पर्यावरण और आजीविका संरक्षण के उद्देश्यों को पूरा किया जा सकता है। इसके अलावा,कृषि के लिए अलग अलग जगह पर छोटी छोटी भूमि की समस्या से निपटने के लिए सामुदायिक खेती भी एक प्रभावी तरीका हो सकता है।

ये कुछ सिफारिशें थीं जो डॉ. वाईएस परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय नौणी में आयोजित जलवायु कार्रवाई और टिकाऊ विकास पर व्याख्यान-एवं-संगोष्ठी के दौरान दी गई। कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य इस विषय पर ज्ञान और अनुभवों के आदान-प्रदान के लिए संवाद को बढ़ावा देना था। यह कार्यक्रम नौणी विवि के पर्यावरण विज्ञान विभाग द्वारा सेंटर फॉर एनवायरनमेंटल एजुकेशन (सीईई) और जीआईज़ेड-इंडिया के साथ संयुक्त रूप से आयोजित किया गया।

यह व्याख्यान सीईई और जीआईज़ेड का भारत-जर्मन पहल के दूसरे चरण का हिस्सा था जिसमें भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन अनुकूलन पर चार भारतीय राज्यों- तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और तेलंगाना में 16 व्याख्यान आयोजित किया जा रहे हैं । इन व्याख्यान के जरिये छात्रों, शोधकर्ताओं, नीति निर्माताओं, एनजीओ के प्रतिनिधियों और हितधारकों के एक विविध समूह को एक साथ लाने का प्रयास है।

दिन के मुख्य लैक्चर में नौणी विवि के कुलपति डा एचसी शर्मा ने फसलों की ट्रांसजेनिक किस्मों को विकसित करने की आवश्यकता पर बल दिया जो कीट प्रतिरोधी और प्रतिकूल जलवायु स्थितियों में भी ठीक से पैदा की जा सकती है। उन्होनें कहा कि पिछले 50 वर्षों में हमने अपने जीवन शैली में एक काफी परिवर्तन किया है। तापमान में वृद्धि फसल विविधता और जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगी।

डॉ. शर्मा ने मिट्टी में पानी को रिचार्ज करने और कृषि गतिविधियों को बनाए रखने के लिए जल संरक्षण तकनीकों को अपनाने की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया। उन्होनें कहा कि जलवायु परिवर्तन ट्रोपिकल और सब-ट्रोपिकल क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता पर प्रभाव डालेगा जिसके परिणामस्वरूप निकट भविष्य में खाद्य संकट पैदा हो सकता है। उन्होनें वैज्ञानिकों से उच्च पैदावार रोग प्रतिरोधी फसल किस्मों को विकसित करने का आग्रह किया ताकि इनपुट की प्रति इकाई अधिक भोजन उगाया जा सके। सेमिनार के दौरान आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी उपकरणों से कीड़ों के प्रति फसल प्रतिरोध बढ़ाने के लिए जंगली फसलों का शोषण करने की आवश्यकता पर भी चर्चा की गई।

मुख्य लैक्चर के बाद विभिन्न विषयों पर तीन विषयगत कार्यशालाओं का आयोजन किया गया। इन कार्यशालाओं को डॉ. आनंद शर्मा,  डीडीजी आईएमडी, डॉ. एस के भारद्वाज, हेड पर्यावरण विज्ञान विभाग नौणी, और डॉ.  कृष्ण कुमार, हैड फल विज्ञान विभाग नौणी, के द्वारा नियंत्रित किया गया था। अंतिम सत्र के दौरान इन सत्रों की सिफारिशों पर चर्चा की गई।

जलवायु क्रियाओं और युवाओं के सत्र में डॉ. एस के भारद्वाज ने बताया कि भारत एक ऐसा युवा देश है जहां दो तिहाई आबादी 35 साल से कम उम्र की है। इस युवा आबादी को जलवायु परिवर्तन का अधिकतम सामना करना पड़ेगा और इसलिए यह समय की मांग है कि प्रकृति के अनुरूप रहकर अपनी जीवन शैली को बदलने के लिए इन्हें शिक्षित किया जाए। कार्यक्रम के दौरान पर्यावरण संरक्षण में युवाओं की भूमिका पर भी चर्चा की गई। पर्यावरण संरक्षण के लिए शमन रणनीतियों के बारे में सोशल मीडिया अभियान,शिक्षितछात्रों को ईको-जोखिम प्रबंधकों के रूप में काम करने और फीडबैक तंत्र स्थापित करना भी सेमिनार की अन्य महत्वपूर्ण सिफारिशें रहीं।

इससे पहले, डॉ. पूजा और सीईई के कार्यक्रम निदेशक डॉ॰ अब्देश गंगवार ने जलवायु परिवर्तन से निपटने और टिकाऊ जीवन शैली और विकास की दिशा में काम करने में समुदायों को सशक्त बनाने के लिए शिक्षा की भूमिका के बारे में बात की। डीईएसटी, भारत मौसम विज्ञान विभाग, नौणी विवि, सीईई, वानिकी कॉलेज के रिसर्च स्टूडेंट्स समेत 250 लोगों ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया।

विशेषज्ञों का मानना रहा कि आपदा न्यूनीकरण तंत्र और मल्टी हज़ार्ड चेतावनी प्रणाली स्थापित करने की आवश्यकता है। नीति तंत्र से संबंधित एक महत्वपूर्ण सिफारिश यह रही कि उन जगह, जहां आपदा का पिछला इतिहास हो वहाँ दोबारा से विकास गतिविधियों नहीं होने देनी चाहिए।

गैर सरकारी संगठनों की भूमिका पर चर्चा के दौरान, यह सिफारिश सामने आई कि इन संगठनों को विभिन्न सरकारी संगठनों के साथ निकट समन्वय और आधिकारिक नीतियों के अनुसार काम करना चाहिए। पर्यावरण के संरक्षण के लिए अपनी आवाज़ उठाने वाले लोगों की पहचान की जानी चाहिए और इस क्षेत्र में काम कर रहे एनजीओ द्वारा समर्थित भी किया जाना चाहिए।

 

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