हिमाचल: बागवानी विभाग ने लीची खाने से चमकी बुखार की अटकलों को नकारा

आइये जाने कैसे करें “लीची की बागवानी”

  • लीची की किस्में:

भारत में लीची की लगभग 50 किस्में पैदा की जाती है, किन्तु कुछ भागों में विभिन्न नामों से पुकारी जाती है। बिहार में उगायी जाने वाली मुख्य किस्में है- पुरवी, कसबा, शाही, चाइना, अरली बेदाना, लाल मुम्बई आदि है तथा उत्तरप्रदेश और बंगाल में भी विभिन्न प्रकार की किस्में उगायी जाती है, जिससे कि बेदाना किस्मों की विशेषता है कि इनमें बीज छोटा (लौगं के आकार) का होता है तथा गूदे की मात्रा अधिक होती है। फल के विकास के लिए इसमें परागण आवश्यक होता है। इसमें चीनी की मात्रा 14 प्रतिशत होती है, जबकि अन्य किस्मों में 10-11 प्रतिशत ही होती है।

  • प्रमुख रोग एवं कीट:

लीची में किसी भी प्रकार की बीमारी या हानिकारक कीटों का प्रकोप कम देखने को मिलता है।

  • लीची माइट:

यह कीट पत्तियों के निचले भाग पर पाया जाता है, जो पत्तियो का रस चूसता है तथा पत्तियाॅं भूरे रंग की व मखमली हो जाती है और इसकी पत्तियाँ मुड़ जाती है तथा इनका परिसंकुचन इतना अधिक बढ़ जाता है कि यह पूर्ण रूप से मुड़कर गोल हो जाती है। अन्त में पत्तियाॅं सूख जाती है। यह कीट मार्च-जुलाई तक लीची के पौधे पर काफी देखने को मिलता है।

  • रोकथाम:

इसकी मखमली पत्तियों को सावधानी पूर्वक तोड़कर जला देना चाहिए तथा नीचे गिरी पत्तियों को भी एकत्रित कर जला देना चाहिए तथा इसके पेड़ पर 0.05 प्रतिशत पैराथियान का छिड़काव किया जाना चाहिए।

  • मीलीबग:

लीची और आम के मिश्रित बागों व उद्यानों में इस कीट का प्रकोप पाया जाता है। यह फूलों तथा नई कोपलों से रस चूसता है।

  • रोकथाम:

इस कीट की रोकथाम के लिए 0.05 प्रतिशत पैराथियान का छिड़काव किया जाए तथा पक्षी और चमगादड़ को आने से रोकने के लिए अच्छी रखवाली की जानी चाहिए।

लीची में किसी भी प्रकार की बीमारी या हानिकारक कीटों का प्रकोप कम देखने को मिलता है।

लीची में किसी भी प्रकार की बीमारी या हानिकारक कीटों का प्रकोप कम देखने को मिलता है।

  • खाद और पानी:

लीची के पौधों में खाद की मात्रा फल की वृद्धि पर निर्भर करती है। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार 454 कि.ग्रा. ताजे फल की वृद्धि के लिए 1.36 कि.ग्रा पोटाश, 455 ग्राम फास्फोरस, 455 ग्राम नाइट्रोजन, 342 ग्राम चूना तथा 228 ग्रा. मैग्नीशियम का उपयोग किया जाए। लीची के लिए सिंचाई आमतौर पर गर्मी में की जानी चाहिए।

यदि गर्मी में आर्द्रता बढ़ जाय और मिट्टी की जल धारण क्षमता अच्छी हो तो सिंचाई की मात्रा को कम किया जाना चाहिए तथा गर्मी में छोटे पौधो के लिए प्रति सप्ताह सिंचाई करना लाभदायक है। फल की वृद्धि के समय सिंचाई 10-15 दिनों तक नियमित करना चाहिए।

  • निराई-गुड़ाई:

लीची के बगीचे को घासपात-खरपतवार से साफ करना चाहिए जो वृक्षों के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। गहरी जुताई या खुदाई लीची के बाग में नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसकी जड़े भूमि तल के पास ही होती है।

  • फलों की कटाई:

लीची के फलों को तोड़ते समय गुच्छे से टहनी वाला भाग काट लेना चाहिए, जिससे अगले साल शाखाओं की वृद्धि के साथ फल लगते रहे।

  • फलत और उपज:

उत्तर भारत की जलवायु में लीची के प्ररोह जनवरी-अक्टूबर के बीच में निकलते है, परन्तु फरवरी में निकलने वाले प्ररोहो पर अधिक फूल निकलते है। लीची में तीन तरह के फूल आते हैं। नर, उभयलिंगी तथा झूठे उभयलिंगी, विभिन्नों किस्मों में उभयलिंगी तथा झूठे उभयलिंगी फूलों की संख्या 20-26 प्रतिशत होती है।

लीची में परागण मधुमक्खियों द्वारा होता है। इनकी क्रियाशीलता को बनाये रखने के लिए कीटनाशक दवाओं का प्रयोग नहीं करना चाहिए। बेदाना किस्मों में परागण अधिक होता है साथ ही इनके बागों में या आसपास मधुमक्खी पालन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

  • विपणन:

फलों की भंडारण क्षमता कम होने के कारण स्थानीय बाजारों में खरीदा जाता है तथा उत्पादन विशिष्ट स्थानों पर सीमित होने के कारण देश तथा देश के बाहर निर्यात करने की काफी प्रबल संभावना रहती है।

लीची के फलों को सावधानीपूर्वक तुड़ाई के बाद ठंडे हवादार स्थान पर पैकिंग करना चाहिए तथा बांस की छोटी टोकरियों अथवा लकड़ी के बक्सों में लीची के फल को पैक किया जाना चाहिए तथा उसके चारों ओर लीची की हरी पत्तियाँ रखी जाना चाहिए, जिससे इसका दूर-दूर तक विपणन किया जा सकता है।

स्त्रोत : http://kisanhelp.in/

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