इतिहास: हिमाचल के कांगड़ा राज्य का राजपूती शासन काल…..

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कांगड़ा की उपजाऊ भूमि तीन वर्ष तक अराजकता का शिकार रही

संकटग्रस्त राजा ने रणजीत सिंह से सहायता मांगी…

अगले वर्ष उसने हुश्यारपुर पर चढ़ाई कर दी। रणजीत सिंह ने पीछे हटने पर मजबूर किया। मैदानी इलाके पर आक्रमण का इरादा तो छोड़ा। किन्तु 1805 ई. में कहलूर पर आक्रमण कर दिया और महलमोरी के साथ के तालुका बाटी पर कब्जा कर लिया, यहां एक किला बनाया। कहलूर राजा ने गोरखों से सहायता मांगी। वे तो ऐसे अवसर की ताक में थे, पहले ही गोगरा-सतलुज के बीच पहाड़ी इलाका को हड़प चुके थे। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से उत्तर दिया। 1806 ई. में महलमोरी में युद्ध हुआ। कटोच हार गए और टीरा को भाग गए। यहीं पर बस नहीं की तो गोरखा कांगड़ा की ओर बढ़े। कुछ इलाके जीत लिए। राजा कटोच के पास कांगड़ा का दुर्ग और अन्य कुछ किले ही रह गए। गोरखों ने खूब लूट पाट की। बिलासपुर और अन्य पहाड़ी राजा भी बदले की भावना से गोरखों के साथ हो गए। कांगड़ा की उपजाऊ भूमि तीन वर्ष तक अराजकता का शिकार रही। यह हालत थी कि नगर में घास छा गई, गलियों में जंगली जानवर शेर-चीते घूमते रहते थे। संकट ग्रस्त राजा ने रणजीत सिंह से सहायता मांगी। सिखों ने अगस्त, 1809 में कांगड़ा प्रवेश किया और गोरखों से युद्ध हुआ। देर तक घेराव के कारण गोरखों में बीमारी फैली, सेना निर्बल हो गई। गोरखा हार गए और सतलुज तक सारे क्षेत्र को छोड़ गए।

रणजीत सिंह ज्वाला मुखी तक बढ़ता चला गया

ज्वालामुखी में सिखों और संसारचन्द में सन्धि हुई

राजा ने किला सुपुर्द करके अपने भाग्य का दरवाजा बन्द कर दिया और अन्य पहाड़ी राज्यों के पतन का भी कारण बना

 किन्तु संसार चन्द की आजादी भी समाप्त हो गई। रणजीत सिंह ज्वालामुखी तक बढ़ता चला गया। ज्वालामुखी में सिखों और संसारचन्द में सन्धि हुई। रणजीतसिंह ने कांगड़ा का दुर्ग और घाटी के 60 गांव अपने अधिकार में ले लिये। शेष क्षेत्र संसार चन्द को छोड़ दिया। बाद में भी राजा की स्वतंत्रता पर आघात किया जाता रहा। राजा ने किला सुपुर्द करके अपने भाग्य का दरवाजा बन्द कर दिया और अन्य पहाड़ी राज्यों के पतन का भी कारण बना। रणजीत सिंह की पहाड़ी राजपूत राजाओं से कोई सहानुभूति नहीं थी।

20 वर्ष पहले वह पर्वतीय क्षेत्र का परमोधस्वामी था और रणजीत सिंह का विकट प्रतिस्पर्धी

अनिरूद्ध चन्द्र का लड़का रामवीरचन्द कुछ समय अर्की में रहा

…इस प्रकार विश्व के सबसे प्राचीन राजवंश के राज्य का अन्त हो गया

राज्यकाल वंशावली अनुसार कम से कम 12,000 वर्ष रहा होगा

राजा संसारचन्द की मृत्यु 1828 ई. में हो गई, 20 वर्ष पहले वह पर्वतीय क्षेत्र का परमोधस्वामी था और रणजीतसिंह का विकट प्रतिस्पर्धी। अपनी लोलूस्ता और उग्रता से उसका पतन हो गया। मृत्यु से काफी पहले उसे लाहौर का कर दाता बनना पड़ा। उसका पुत्र अनिरूद्ध उस का उत्तराधिकारी हुआ। वह लाहौर गया तो उसके पास प्रस्ताव आया कि वह अपनी बहिन का विवाह राजा ध्यानचन्द के लड़के हीरासिंह से कर दे। यह प्रस्ताव उस वंश का परम्परा अनुसार हीनतासूचक था, स्वीकार नहीं हुआ। उसने परिवार समेत अंग्रेजी इलाके में आश्रय लिया। रणजीतसिंह क्रुद्ध हुआ। राजा ने अपनी इज्जत पर राज्य को कुर्बान कर दिया। हरिद्वार पहुंचने पर उसने अपनी बहिन गढ़वाल के राजा सुदर्शन सिंह को ब्याह दी। उसी वर्ष अद्धरंग के कारण उसकी मृत्यु हो गई। अनिरूद्ध चन्द्र का लड़का रामवीर चन्द कुछ समय अर्की में रहा। 1833 में उसने रणजीत सिंह से महल मोरियां में पच्चास हजार की जागीर स्वीकार करली इस प्रकार विश्व के सबसे प्राचीन राजवंश के राज्य का अन्त हो गया। जिसका राज्यकाल वंशावली अनुसार कम से कम 12,000 वर्ष रहा होगा। उस समय आज के यूरोप, रोमन देश बर्बर, जंगली अवस्था में थे।

कश्मीर के श्रेष्ठसेन ने त्रिगर्त देश को कश्मीर में प्रवरेश मन्दिर की भेंट कर दिया

पहला इतिहासिक वर्णन प्रसिद्ध इतिहासकार फरिश्ता का पहली शताब्दी ईसा का है। उसमें वर्णन किया है कि कन्नौज के सम्राट रामदेव ने कुमाऊं पर आक्रमण किया और कश्मीर तक के सारे पहाड़ी राजाओं को रौंद डाला। 500 छोटे बड़े राजाओं को जीता जिनमें नगरकोट का राजा भी था। नगरकोट के राजा ने अपनी लड़की रामदेव के लड़के को ब्याह दी। राजतरंगिनी में भी त्रिगर्त का उल्लेख है और लिखा है कि कश्मीर के श्रेष्ठसेन ने त्रिगर्त देश को कश्मीर में प्रवरेश मन्दिर की भेंट कर दिया। 470 ई. और फिर 520 ई. में प्रवरसेन द्वितीय ने त्रिगर्त को जीता।

चीनी यात्री ह्यून त्सांग ने 635 ई. में जलन्धर का प्रवास किया। चार मास तक जलन्धर के राजा के पास ठहरा और कांगड़ा घाटी का भी समुचित वर्णन किया। उस समय जलन्धर कन्नौज के हर्ष वर्धन के आधीन था। शंकरवर्मन 853-903 ने स्वयं गुजरात को जीतने के लिए सेना का नेतृत्व किया। इसके विरोध में त्रिगर्त का राजा आया जो शायद गुजरात का सहायक था। किन्तु शंकर वर्मन की सेना जो नौ लाख पैदल, 300 हाथी और एक लाख घुड़सवार युक्त थी, देखकर भयभीत हो कर  भाग गया। ऐसे लगता है कि उस समय त्रिगर्त कश्मीर के आधीन था जिसके राज्य का विस्तार सतलुज तक था। इसका साक्ष्य ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य के दो ताम्रपत्र हैं। इन पर दशवी शताब्दी की प्रारम्भिक घटनाओं का वर्णन है-फिर विदेशी जाति के चम्बा पर आक्रमण और तुरुशकों का पंजाब पर आक्रमण। काबुल के तुर्की साही वंश जिस ने काबुल पर कई शताब्दी राज किया जिस राजा लालित्य के ब्राह्मण वजीर ने उखाड़ फेंका और हिन्दू साही वंश की नींव डाली। तुरूशक के साथ युद्धों में काबुल और मोहिन्द के राजाओं को पंजाब की रियासतों की सहायता प्राप्त थी जिनमें कांगड़ा और चम्बा भी शामिल थे। चम्बा के राजा ने इन युद्धों में ख्याति प्राप्त की थी। अन्ततः 980 में काबुल पर विजय पाई।

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