अनमोल प्राकृतिक सम्पदा के लिये विख्यात “भंगाल”

धरती पर प्रकृति का स्वर्ग “हिमाचल का भंगाल”

  •  देवता की अनुमति से होती है फसल की बीजाई

देवी-देवताओं की इस समाज में बहुत मान्यता है और हर महत्वपूर्ण काम यहां तक की फसल की बिजाई भी देवता की अनुमति से होती है। ‘अजय पाल’ और ‘गोहरी’ इस घाटी के प्रमुख ग्रामीण देवता हैं। ये देवता प्रतीकात्मक रूप से मन्दिरों में विराजमान हैं और अपने

देवता की अनुमति से होती है फसल की बीजाई

देवता की अनुमति से होती है फसल की बीजाई

चेलों, जिन्हें गुर कहा जाता है, के माध्यम से जनता को आदेश सुनाते हैं। गुर को देवता का प्रवक्ता माना जाता है और उसकी हर बात को गांववासी सिर मत्थे लेते हैं। उपरोक्त देवताओं के अलावा ‘कैलू’ देवता के प्रति यहां के लोगों की अगाध आस्था है। लेकिन यह देवता आदेश नहीं सुनाता। वास्तव में कैलू शब्द कुल अर्थात वंश का अपभ्रंश है यानी कुल का देवता। इस देवता से सम्बन्धित एक विचित्र बात यह है कि केवल स्त्रियां ही इस देवता की पूजा-अर्चना कर सकती हैं। पुरुषों का देवता के स्थान पर प्रवेश वर्जित है। कैलू देवता की आराधना भी केवल शादीशुदा स्त्रियां ही करती हैं। स्थानीय परम्पराओं के अनुसार जब युवती की शादी हो जाती है, तो उस दिन से वह कैलू देवता की पूजा-अर्चना शुरू कर देती है। अगर शादी के बाद लड़की कैलू देवता को अपने ससुराल भी ले जाना चाहे तो उस पर कोई रोक नहीं है। कैलू देवता की स्थापना तब ससुराल पक्ष के घर से कुछ ही दूरी पर कर दी जाती है। यदि ऐसा न हो पाये तो देवता की आराधना के लिये लड़की को अपने मायके आना पड़ता है।

घाटी के गांवों में किसी के यहां जन्म और मौत पर लोग खेतों पर काम नहीं करते। अगर कोई ऐसा करता है तो उसे जुर्माने के रूप में बकरे या भेडू की बलि देवता को चढ़ानी पड़ती है। जन्म या मृत्यु की सूचना देने के लिये गांव का एक व्यक्ति पूरे गांव में आवाज लगाता है- जूठ, जूठ। गांववासी इसका अर्थ समझ जाते हैं। घाटी के 95 फीसदी लोग मांसाहारी हैं और शराब के भी शौकीन होते हैं। हर त्यौहार को ये बड़े चाव से मनाते हैं और लोकनृत्यों में भी पूरी उमंग से हिस्सा लेते हैं।

इस घाटी के भ्रमण के लिये अप्रैल से मई तक और फिर सितम्बर से नवम्बर तक का मौसम सर्वाधिक उपयुक्त है। जून-जुलाई में भारी वर्षा से भूस्खलन का खतरा हर पल बना रहता है और दिसम्बर में बर्फबारी से इस घाटी का सम्पर्क शेष दुनिया से कट जाता है। कई बार तो नवम्बर माह के शुरू में ही बर्फबारी से सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं। यहां के रमणीय स्थलों का अस्सी फीसदी सफर पैदल ही तय करना पड़ता है।

  •  भंगाल क्षेत्र की एक प्राचीन गाथा

भंगाल क्षेत्र की एक प्राचीन गाथा प्रचलित है

भंगाल क्षेत्र की एक प्राचीन गाथा प्रचलित है

भंगाल में रावी नदी के साथ कालीहाण की सहायक नदी मिलती है। इस नदी का उदगम ‘रई गाहर’ नामक स्थान से हुआ है और रावी नदी का नाद दूसरी नदियों से अधिक है। रई गाहर को सात बहनों का निवास स्थान माना जाता है। भंगाल क्षेत्र में इस बारे में एक प्राचीन गाथा प्रचलित है। इसके अनुसार रई गाहर में एक प्राचीन दुर्ग था, जिसे हनुमान का किला कहा जाता था। इस किले में ‘सत भाजणी’ (सात भगनियां) रहा करती थीं। इनमें आपस में बहुत स्नेह था। किसी अनकहे कारण या घटनावश एक रात छह बड़ी बहनें छोटी बहन को सोया छोड़ रई गाहर से दूर विभिन्न स्थानों को चली गईं। बेचारी छोटी बहन जब जागी, स्वयं को अकेला पाकर रोने लगी। उसके नेत्रों से इतने आंसू बहे कि उन्होंने नदी का रूप धारण कर लिया और स्वयं रावी नदी बन गई। अपने उदगम क्षेत्र में काफी दूर तक रावी का बहाव बहुत तेज, भयंकर आवाज करता है। यह आवाज उसके करुण क्रंदन की है। उसकी बहनों के कान में भी यह घोर ध्वनि पहुंची। वे जान गईं कि उनकी लाडली बहन निराश, हताश, असहाय पड़ी रो रही हैं। वे भी रो पड़ी और रोते रोते नदियां बन गईं। इस प्रकार वे सात बहने, सात भजणियां, विभिन्न उदगमों से प्रवाहित होने लगीं। उनका नाम पड़ा- गंगा, यमुना, सरस्वती, सतलुज, व्यास और चिनाब।

रावी भले ही आज देश की अन्य नदियों की भीड़-भाड़ में खोई-खोई लगे, किन्तु वैदिक काल में इस नदी ने समाज तथा राष्ट्र के जीवन में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऋग्वेद में रावी, जिसे तब ‘परुष्णी’ कहा जाता था, काफी चर्चित थी। इसकी गणना सप्त सिन्धु अथवा सप्त नदों में होती थी। शायद यही वैदिक कालीन विश्वास की ही प्रतिछाया है कि भंगाल के लोग सतभाजणी को देवी रूप में पूजते हैं। इसके अलावा लोग यहां अजयपाल, केलंग वीर, शिवशक्ति, इलाके वाली भगवती, डंगे वाली भगवती और मराली देवी के उपासक हैं। गांव में इन सभी देवी-देवताओं के मन्दिर हैं। गांववासी इन देवताओं की रहनुमाई में ही सारा कामकाज करते हैं। यहां तक फसल की बिजाई व कटाई भी।

  • पुश्तैनी व्यवसाय है भेड़-बकरी पालन

भंगाल के लोगों का पुश्तैनी व्यवसाय भेड़-बकरी पालन

भंगाल के लोगों का पुश्तैनी व्यवसाय भेड़-बकरी पालन

भंगाल के लोगों का पुश्तैनी व्यवसाय भेड़-बकरी पालन है और जड़ी बूटियों की भी इन्हें खासी पहचान है। भंगाल के लोगों की वेशभूषा भी निराली है और आगन्तुक को सहज ही आकर्षित करती है। पुरुष ऊनी चोला, कमर पर काला डोरा और सिर पर पगड़ी पहनते हैं। महिलाएं गद्दिनों की तरह चादरु ओढ़ती हैं और ‘लुआंचडी’ भी लगाती हैं। लुआंचडी यहां की महिलाओं के परम्परागत परिधान का नाम है।

  • कांगड़ा की इस दुर्गम घाटी में प्रकृति, झूमती-गाती मालूम पड़ती है। इस घाटी को आप ‘लघु कश्मीर’ भी कह सकते है। इस घाटी के लोगों की अनूठी संस्कृति, दिलचस्प परम्पराएं, खानपान व पहनावा है। कांगड़ा के बाकी क्षत्रों से यहां की परम्परा व पहनावा मेल नहीं खाता। यही भिन्नता इस घाटी को विशिष्ट बनाती है।

    छोटा भंगाल

    Pages: 1 2 3

सम्बंधित समाचार

अपने सुझाव दें

Your email address will not be published. Required fields are marked *