पांगी घाटी की सांस्कृतिक पहचान और शान “जुकारू उत्सव”
पांगी घाटी की सांस्कृतिक पहचान और शान “जुकारू उत्सव”
“जुकारू उत्सव” पर पांगी घाटी की परंपरा कायम
एक-दूसरे के गले मिलते हैं और पूछते हैं-‘तकड़ा थियां न’
हमारी देवभूमि हिमाचल प्रकृति जन्नत से लबालब है।
तो वहीं प्राचीन संस्कृति, लोक कलाएँ, त्यौहार, खानपान, रहन सहन, वेशभूषा, आचार-विचार और परम्पराओं को संजोये हुए भी है। जिन्हें न केवल देश में अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी एक खास पहचान कायम किये हुए है। हिमाचल को देवभूमि कहने के साथ-साथ अगर त्यौहारों और उत्सवों की भूमि भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रदेश के कोने-कोने में अपने उत्सवों व त्योहारों को अनूठे व पारम्परिक ढंग से मनाने की सदियों से चली आ रही परम्परा हिमाचल प्रदेश में अभी भी जीवित है। पहाड़ी संस्कृति को संजोये रखने के लिए इस प्रकार के कई उपहार विरासत में मिले हैं जिन्हें संजोये रखना सबकी और आने वाली पीढ़ियों का कर्तव्य है। ऐसा ही एक बहुत ही प्रसिद्ध और अनोखा उत्सव जिला चंबा की पांगी घाटी में 12 दिनों तक चलने वाला “जुकारू उत्सव” बड़े उत्साह से मनाया जाता है। जिसके बारे में हम आपको इस बार जानकारी देने जा रहे हैं। हम आपको हिमाचल प्रदेश के पांगी घाटी में मनाये जाने वाले प्रसिद्ध त्यौहार “जुकारू उत्सव” के विषय में बताने जा रहे हैं।
जुकारू उत्सव पांगी घाटी में एक जैसा ही मनाया जाता है। पांगी घाटी को इस त्यौहार की सांस्कृतिक पहचान और शान कहते हैं। इसी त्यौहार पर आज भी घाटी की परंपरा कायम है। जुकारू को तीन चरणों में मनाया जाता है- सिल्ह, पड़ीद और मांगल। यह त्यौहार फाल्गुन मास की अमावस्या को मनाया जाता है। अमावस्या की रात राजा बली को अर्पित रहती है। लोग इस उत्सव का साल भर बड़ी बेसब्री से इंतजार करते हैं तथा कई दिन पहले से ही लोग इसकी तैयारियां शुरु कर देते हैं।
सिल्ह की शाम घर का मुखिया बनाता है आटे के बकरे
जुकारू उत्सव की पांगी घाटी में बड़ी महत्ता है। घरों को सजाया जाता है। घर के अंदर लिखावट के माध्यम से लोक शैली को रेखांकित किया जाता है।विशेष पकवान मंडे के अतिरिक्त अन्य सामान्य पकवान भी बनाए जाते हैं। धरती माता की पूजा के दौरान सभी गाँव वासी एक जगह एकत्रित होकर धरती माता की पूजा करते हैं तथा अच्छे अनाज सुख-समृद्धि व सम्पूर्ण जीवात्माओं को सुरक्षित रखने की धरती माता से प्रार्थना की जाती है। इस दौरान प्रसाद के रूप में सभी गाँव वासियों के लिए प्रसाद हेतू मंडे सतु व घी का प्रसाद बनाया जाता है। सिल्ह की शाम को घर के मुखिया द्वारा भ्रेस (भंगड़ी) और आटे के बकरे बनाए जाते हैं। बकरे बनाते समय कोई किसी से बात नहीं करता, सब शांत रहते हैं । पूजा की सामग्री को एक अलग कमरे में ही रखा जाता है। रात्रि भोजन के उपरांत चौका यानी गोबर की लिपाई की जाती है।
गेहूं के आटे या सतुओं से लिखते हैंमंडल, मंडल के ऊपर रखे जाते हैं बकरे, मेढ़े
गोमूत्र और गंगा जल छिड़का जाता है। गेहूं के आटे या जौ के सतुओं से मंडल लिखा जाता है। इसे भी ‘चौका’ कहा जाता है। मंडल के ऊपर “बलदानो” यानी राजा बलि की आटे से बनी मूर्ति की स्थापना की जाती है। साथ ही आटे से बने जंगली बकरे, मेढ़े आदि मंडल में तिनकों के सहारे रख दिए जाते हैं। मंडल बनाने वाला राजा बलि की पूजा करता है। लोग घरों की भीतरी दीवारों में राजा बलदानो का चित्रांकन करके उनका पूजन करते हैं।
राजा बलदानो की पूजा करते आ रहे पांगी घाटी के लोग
कथा के अनुसार भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के प्रपौत्र राजा बलि ने अपने पराक्रम से तीनों लोगों को जीत लिया तो भगवान विष्णु को वामना अवतार धारण करना पड़ा। राजा बलि ने वामना अवतार भगवान विष्णु को तीनों लोक दान के रुप में दे दिए। इससे प्रसन्न होकर विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया कि भूलोक में वर्ष में एक दिन उसकी भी पूजा होगी। इसी परंपरा में आज तक पांगी घाटी के लोग राजा बलदानो की पूजा करते आ रहे हैं। लोग धारणा के अनुसार 3 दिनों तक प्रत्येक घर का कोई भी सदस्य ऊँचे स्वर में बात नहीं कर सकता, न ही लकड़ी काट सकता है। यह सब राजा बलदानो के सम्मान में किया जाता है।
‘पड़ीद’ का दिन पितरों को समर्पित
दूसरा दिन ‘पड़ीद’ का होता है। यह दिन पितरों को समर्पित रहता है। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर लोग स्नानादि करके राजा बलि के समक्ष माथा टेकते हैं और मांग करते हैं कि तमाम आसुरी शक्तियों को अपने साथ नाग लोक में ले जाएं और सुख-शांति धरती पर छोड़ जाएं। इसके पश्चात घर के छोटे सदस्य बड़ों की चरण वंदना करते हैं तरह बड़े उन्हें आशीर्वाद देते हैं। पड़ीद के दिन सूर्य भगवान को भोग लगाया जाता है। इस दिन सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के साथ पितर देवताओं की पूजा करने के बाद मुखिया मवेशियों के साथ जुकारू करता है। उनको पकवान खिलाने के बाद घर के भीतर दखिल होते समय ‘शुभ’ बोलता है। बड़े भाई के घर में जाकर छोटा भाई ‘शुभ’ कहता है और बड़ा भाई ‘शगुन’ कहकर अभिवादन स्वीकार करता है, दोनों गले मिलते हैं। छोटे हों या बड़े, बाल-बालाएँ, एक-दूसरे के गले मिलते हैं और पूछते हैं-‘तकड़ा थियां न’ अर्थात कुशल मंगल हो! इस प्रकार सारा दिन यह कार्यक्रम चलता रहता है। घर का पूरा परिवार एक-दूसरे के पांव छूने के बाद गले मिलते हैं। इसके बाद राजा बली से अनुमति लेकर घर मालकिन को छोड़कर सभी सदस्य भुजपत्र में मंडे व अन्य पकवानों का पैकेट लेकर गांव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति से आशीर्वाद लेने के लिए उनके घर जाते हैं। फिर वहां ‘जेबरा’ के फूल भेंट करके बुजुर्ग के पांव छूकर उससे आशीर्वाद लेते हैं। उसके बाद अन्य पकवान भी दिए जाते हैं।
‘चूंर’ की पूजा भी करता है घर का मुखिया
राजा बलि के लिए पनघट से जल लाया जाता है। लोग जल देवता का पूजन भी करते हैं। घर-परिवार का वातावरण प्रसन्नता से भरा होता है। घर का मुखिया इस दिन चूंर (बैल) की पूजा भी करता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि चूंर उसके खेतों में जुताई करके अन्न की पैदावार में सहयोगी होता है। अब घर-घर जाकर शुभ शगुन करने का सिलसिला शुरू होता है। पंगवाल संस्कृति में बड़ों को यथोचित अधिमान दिया जाता है।
मांगल या पन्हेई के रूप में मनाया जाता है जुकारू का तीसरा दिन
अपने-अपने घरों से लाए पकवान आपस में बाँटे जाते हैं
जुकारू का तीसरा दिन मांगल या पन्हेई के रूप में मनाया जाता है। पन्हेई किलाड़ परगने में मनाई जाती है जबकि साच परगने में इसे मांगल कहते हैं। पन्हेई और मांगल में कोई विशेष अंतर नहीं होता, मात्र नाम की भिन्नता है। मनाने का उद्देश्य और विधि एक जैसी है, फर्क सिर्फ इतना है कि साच परगने में मांगल द्वितीया तिथि को मनाई जाती है जबकि किलाड़ में पन्हेई तृतीया तिथि के उपरांत मनाने का विधान है। मांगल के दिन लोग भूमि पूजन के लिए निर्धारित स्थान पर इकट्ठे होते हैं। इस दिन प्रत्येक घर से सत्तू, घी, शहद, मंडे, आटे के बकरे तथा देसी जौ की ‘राख’ (शराब) लाई जाती है। अपने-अपने घरों से लाई गई इस भोजन सामग्री को आपस में बाँटा जाता है। सुरापान करने से पूर्व पृथ्वी पूजन किया जाता है। उसके उपरांत नाच गान शुरू होता है। पारंपरिक लोक धुनों पर थिरकती बालाएं और ढोल की थाप पर नृत्य करते पंगवाल-जन घाटी का अनुपम मनोहारी लोक संगीत प्रस्तुत करते हैं। चारों ओर हिम की चमक होती है। इस नाच-गान के उपरांत धरती मां से फसलों को नष्ट करने वाले जीव जंतुओं से रक्षा करने की प्रार्थना की जाती है।
द्वितीय से पंचमी तिथि तक मनाई जाती है ‘पन्हेई या मांगल’
आखिरी दिन आटे से बनी राजा बलि की प्रतिमा को किया जाता है विसर्जित
समारोह की समाप्ति के बाद जब सभी लोग अपने-अपने घरों को वापिस आते हैं तो उन्हें घर का दरवाजा बंद मिलता है। दरवाजा खटखटाने पर अंदर से आवाज़ आती है, तुम कौन हो! मैं मांगलू हूं। क्या लाए हो? धन और अन्न। और क्या लाए हो? सुख-समृद्धि। तभी दरवाजा खोल दिया जाता है। अब राजा बलि को विदा करने का समय होता है। राजा बलदानो की पूजा की जाती है। इसके उपरांत आटे की बनी राजा बलि की प्रतिमा को विसर्जित किया जाता है। जुकारू यहीं समाप्त नहीं होता, यह सिलसिला निरंतर 12 दिनों तक चला रहता है। पन्हेई या मांगल द्वितीय से पंचमी तिथि तक मनाई जाती है। यदि किसी व्यक्ति के घर कोई संतान पैदा हुई हो तो वह विषम महीनों में या वर्षों में एकदिन प्रीतिभोज का आयोजन करता है, जिसे ‘शिख वधेई’ का पर्याय माना जाता है। शिख वधेई मुंडन संस्कार को कहते हैं। पन्हेई या मांगल के दिन संतानोत्पत्ति की खुशी में गांव के लोगों को प्रीतिभोज दिया जाता है।
गेहूं, जौ और मक्की की उगाई कलियों को कहते हैं ‘जेबरा’
जुकारू में राजा बली और अन्य देवताओं की पूजा के लिए गेहूं, जौ और मक्की की कलियां उगाई जाती हैं, जिसको जेबरा कहते हैं। माघ पूर्णमासी के तीसरे दिन बर्तन में मिट्टी में भेड़ बकरी के बारीक गोबर को डालकर उसमें गेहूं का बीज डाला जाता है जिसकी कलिया 10 से 12 दिन में तैयार हो जाती है। इनको जुकारू खत्म होने तक फूल के तौर पर प्रयोग किया जाता है। इसके बाद बुजुर्गों से आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। बारह दिन तक इन कलियों को ही फूलों के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।