बिशु मेला: हिमाचल की लोक गाथाओं, नृत्यों और मेलों में झलकता है सदियों पुराना इतिहास
बिशु मेला: हिमाचल की लोक गाथाओं, नृत्यों और मेलों में झलकता है सदियों पुराना इतिहास
बिशु आयोजन के दिन सबसे पहले की जाती है कुलदेवता की पूजा
पहाड़ वासियों ने लुप्त हो रही सांस्कृतिक परंपरा को जैसे-तैसे करके जीवित रखा है
शिमला और सिरमौर में अप्रैल-मई में किया जाता है बिशु मेले का आयोजन
हिमाचल के अलग -अलग हिस्सों में बिशु मेले लगते हैं। सिरमौर के अलावा शिमला के चौपाल तथा उत्तराखंड के जौनसार इलाके के कई गांव में भी महाभारत कालीन बिशु मेले को मनाए जाने की परंपरा कायम है। शिमला तथा सिरमौर जिलों में हर वर्ष अप्रैल-मई मास में मनाए जाने वाले मेले बिशु मेले के नाम से विख्यात है। इस मेले में एक विशेष प्रकार के नृत्य का आयोजन भी किया जाता है। वहीं बिशु मेला अप्रैल माह की गर्मी के मौसम के आगमन और रबी फसलों के पकने की खुशी में मनाया जाता है। अप्रैल और मई माह में बिशु मेले का आयोजन शिमला और सिरमौर में किया जाता है। इस मेले की शुरुआत सिरमौर में शिरगुल महाराज जी के आगमन से होती है उन्हें पालकी में ढोल और नगाड़ों के साथ मेले के मेले के स्थान पर लाया जाता है। जहां पर स्थानीय लोगों द्वारा महाराज जी की पूजा-अर्चना की जाती है, तदोपरान्त मेले का आगाज़ होता है। यह मेला 3 दिन तक स्थानीय लोगों द्वारा बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। यहां लोगों द्वारा स्थानीय नृत्य और कई अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
यह लोक नृत्य उत्तराखंड के कबायली जनपद जौनसार-बाबर के हनोल नामक स्थान में स्थापित महासू देवता के मूल से लोक में नि:सृत हुआ है। यह नृत्य महासू देवता के ठाणी बिशु के लोक गीतों पर भादो पंचमी को रातभर किया जाता है। भादो पंचमी का यह त्यौहार शिमला और सिरमौर जिले में महासू अधिष्ठित क्षेत्रों में हर वर्ष मनाया जाता है। इस त्यौहार पर समस्त कार्य महासू देव परम्पराओं के अनुसार निभाया जाता है। पंचमी की रात्रि को जागरण होता है। सिरमौर में एक जाति विशेष के समुदाय (दयाल) द्वारा सर्वप्रथम ढोल की थाप पर बिशु लोक गायन के साथ नृत्य किया जाता है। लोक गाथा गायन के साथ-साथ सभी गांव के लोग भी नृत्य में हिस्सा लेते हैं। इस संगीतमय वातावरण में अनेक युवा को अचानक ही देऊ खेल आ जाती है जो महासू देवता की शरण में गिरकर स्वत: उपचारित हो जाते हैं। भादो पंचमी की रात को ग्रामवासी रासा नृत्य, गीह नृत्य, माला नृत्य आदि पुरुष और महिलाएं मिलकर करते हैं। भादो पंचमी का यह त्यौहार द्राबिल, बालीकोटी, पश्मी, शिल्ला, सांगना-स्तान, टटीयाणा, मनवेट्टी तथा जौनसार-बाबर के अनेकों गांवों में बहुत ही धूमधाम के साथ मनाए जाने की परंपरा है।
बिशु मेले के दौरान धनुष बाण की हस्तकला को लोक नृत्य में ढाला जाता है
बिशु मेले के दौरान धनुष बाण की हस्तकला को लोक नृत्य में ढालकर बिशु को आयोजित कर महाभारत जैसा स्वरूप प्रदान करने का भी एक अनोखा प्रयास किया है। यह नृत्य ढोल और नगाड़ों की रणभेदी लय पर शाठी-पाशी के मध्य धनुष बाण की शान पर किया जाता है। बिशु में ठोडा खेल के लिए आमंत्रित खूंद रणक्षेत्र में आने से पहले महाभारतीय आयुधों, वेशभूषा और आभूषणों को अधिक से अधिक मात्रा में पहनकर नृत्य करते हैं। इसमें खूंद त्वरित लोकगीतों पर नृत्य करते-करते रण क्षेत्र में पूर्ण सूर्य के साथ आते हैं। शाठी और पाशी समुदाय के कनैत एक-दूसरे के विरुद्ध धींग (हाऊश) मारते हुए नृत्य करते हुए रणक्षेत्र में पहुंचते हैं। यह नृत्य सिरमौर और शिमला के जनपदों का अत्यंत ही जनप्रिय नृत्य माना जाता है। यह नृत्य अप्रैल माह से भादो तक यानी कि बैशाख माह से भादो तक आयोजित किए जाने वाले बिशु पर किया जाता है।
सिरमौर में बिशु के अवसर पर किया जाता है ठोडा
सिरमौर में ठोडा खेल एक प्रकार का युद्ध है। यह बिशु के अवसर पर किया जाता है। ठोडा हिमाचल प्रदेश के कुछ जिलों में विशेष अवसरों पर खेला जाने वाला संगीतमय खेल है। तीर कमान के प्रदर्शन के इस खेल को महाभारत काल से जोड़कर भी देखा जाता है। माना जाता है कि ठोडा की उत्पति महाभारत काल में हुई थी। इसे पांडवों और कौरवों के मध्य हुए युद्ध के रूप में देखा जाता है। ठोडा लोगों के मनोरंजन का मुख्य आकर्षण रहता है। यदि ठोडा खेल का जिक्र किया जाए तो ठोडा प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है। हिमाचल प्रदेश में ठोडा ऊपरी शिमला तथा सिरमौर जिला में खेला जाता है। प्राचीन संस्कृति पर आधारित यह खेल महाभारत काल की याद को ताजा करता है। जाहिर तौर पर दो दलों के बीच खेले जाने वाला तीर कमान का यह खेल ऊपरी शिमला में खासी लोकप्रियता हासिल किए हुए है। ठोडा खेल में दो दल आपस में कौरव व पांडव बनकर एक दूसरे पर तीरों से प्रहार करते हैं। प्रदेश के गांव में होने वाले मेलों में ठोडा दलों को प्रदर्शन के लिए बुलाया जाता है। दल एक विशेष प्रकार की सफ़ेद पोशाक पहनता है। गौरतलब है कि ठोडा एक ऐतिहासिक व साहसिक खेल है।
तीन दिन तक चलता है बिशु मेला
हिमाचल की सीमा से लगे गांव भुटाणू, टिकोची, मैंजणी, किरोली में यह मेला कुछ निराला ही होता है। तीन दिन तक चलने वाले इस मेले का नाम बिषुवत संक्रांति के नाम से हटकर बिस्सू पड़ गया। हिमाचल प्रदेश के उपरी इलाकों में भी ठियोग, नारकंडा, कोटखाई, चौपाल क्षेत्रों व सिरमौर के राजगढ़ आदि क्षेत्र में मेलों के अवसर पर ठोडा खेल का आयोजन किया जाता है। शूलिनी मेले के पारंपरिक ठोडा नृत्य में महाभारत का बखान बखूबी किया जाता है। ठोडा को ये दल अपने स्तर पर ही जिन्दा रखे हुए है समय के साथ अब ठोडा खेलने वाले दल भी लुप्त होते जा रहे हैं। मेले में धनुष और बाणों से रोमांचकारी युद्ध होता है और यह तथाकथित संग्राम तीन दिन तक चलता है। इसमें रणबांकुरे इन्हीं गांवॊं के लोग होते हैं। उत्साह जोश का यह आलम रहता है कि युवा तो क्या बूढ़े भी अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते। ऐसा लगता है जैसे मेला स्थल रणभूमि में तब्दील हो गया हो। कुछ ऐसे ही तुमुल नाद में बजते हैं रणसिंघे और ढोल-दमाऊ वाद्य-मंत्र।
बिशु आयोजन के दिन सबसे पहले की जाती है कुलदेवता की पूजा
पाशी और शाठी दोनों की परंपरागत खुन्नस शाश्वत मानी जाती है मगर खुशी गम और जरूरत के मौसम में वे मिलते-जुलते हैं और एक दूसरे के काम आते हैं। उनमें आपस में रिश्तेदारियां भी हैं। जब बिशु (बैसाख का पहला दिन) आता है तो पुरानी नफरत थोड़ी सी जवान होती है, गांव-गांव में युद्ध की तैयारियां शुरू हो जाती हैं जिसे किसी वर्ष शाठी आयोजित करते हैं तो कभी पाशी। कबीले का मुखिया बिशु आयोजन के दिन प्रात: कुलदेवता की पूजा करता है और अपने सहयोगियों के साथ ठोडा खेलने आ रहे लोगों के आतिथ्य और अपनी जीत के लिए मंत्रणा करता है।
वाद्यों की झंकार में नृत्यमय हो उठता है धनुष बाजी का खेल
युद्ध प्रशिक्षण का अवशेष माने जाने वाले ठोडा में खेल, नृत्य व नाट्य का सम्मिश्रण है। धनुष बाजी का खेल, वाद्यों की झंकार में नृत्यमय हो उठता हैं। खिलाड़ी व नाट्य वीर रस में डूबे इसलिए होते हैं क्योंकि यह महाभारत के महायुद्ध से प्रेरित है। भारतीय संस्कृति के मातम के मौसम में पहाड़ वासियों ने लुप्त हो रही सांस्कृतिक परंपरा को जैसे-तैसे करके जीवित रखा है। कौशल, व्यायाम व मनोरंजन के पर्याय ठोडा को हमारी लोक संस्कृति के कितने ही उत्सवों में जगह मिलती है जहां पर्यटक भी होते हैं और स्थानीय लोग भी। ठोडा आम तौर पर हर साल बैसाखी के दो दिनों- 13 व 14 अप्रैल को होता है। शिमला जिले के ठियोग डिवीजन, नारकंडा ब्लॉक, चौपाल डिवीजन, सिरमौर व सोलन में कहीं भी इसका आनंद लिया जा सकता है।