हिमाचल के जन-जातीय क्षेत्रों के निवासियों का प्राचीन व्यवसाय भेड़ पालन

हिमाचल: जन-जातीय क्षेत्रों के लोगों का प्राचीन व्यवसाय “भेड़ पालन”

  • प्रदेश की आर्थिकी में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका

प्रदेश की आर्थिकी में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका

प्रदेश की आर्थिकी में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका

हिमाचल के लोगों के आर्थिक जीवन में पशुओं का अति महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि वे कृषि में ही सहायक नहीं बल्कि अन्य हर प्रकार से लोगों के जीवन में सहायता करते हैं क्योंकि हिमाचल के 85 प्रतिशत लोग गांव में रहते हैं। हिमाचल प्रदेश की आर्थिकी में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके दृष्टिगत इसके विकास तथा सुधार के लिए विशेष ध्यान दिया जा रहा है। प्रदेश की लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या का मुख्य व्यवसाय कृषि है तथा पशुपालन इसका अभिन्न अंग है। यह क्षेत्र लोगों को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप में रोजगार भी प्रदान करता है। प्रदेश में पशुपालन के वैज्ञानिक प्रबंधन को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है तथा पशुपालकों व कृषकों के कल्याण के लिए अनेक योजनाएं आरंभ की गई हैं। प्रदेश के किसानों की आर्थिकी में पशुपालन के महत्व के दृष्टिगत प्रदेश सरकार ने उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप तथा उनकी समस्याओं के समाधान हेतु अनेक कदम उठाए हैं। प्रदेश के भेड़ पालकों की सुविधा के लिए राज्य ऊन संघ को भी सुदृढ़ किया गया है।

भेड़पालक समृद्धि योजना

इस परियोजना के अन्तर्गत भूमिहीन, सीमान्त कृषक, स्वयं सहायता समूह तथा व्यक्तिगत भेड़-पालकों को सहायता दी जाती है। भेड़-पालकों को 40 भेड़ें व 2 बकरों के लिए कुल 1 लाख की वित्तीय राशि का ऋण जिसमें 33.33 प्रतिशत उपदान होगा। भेड़-बकरी प्रजनन इकाई के अन्तर्गत 500 भेड़ें एवं 25 बकरियों के लिए 25 लाख तक दिए जाएंगे जिसमें से 33.33 प्रतिशत उपदान होगा। खरगोश पालन के लिए कुल्लू व शिमला जिलों का चयन किया गया। खरगोश पालके इकाइयों के लिए अधिकतम 2.25 लाख दिए जाएंगे जिसमें 33.33 प्रतिशत अर्थात 75,000 उपदान होगा।

भेड़पालक बीमा योजना

यह केन्द्र प्रायोजित स्कीम है जो 2007-08 में प्रारम्भ की गई थी। इस स्कीम में प्रीमियम 330 रूपए प्रति वर्ष पशुपालक से लिया जाएगा जिसका 100: 150: 80 के अनुपात में जीवन बीमा निगम, भारत सरकार व गडरियों का होगा।

भेड़पालकों को मिलने वाले लाभ

प्राकृतिक तौर पर मृत्यु पर 60,000 रूपए मिलेंगे तथा दुर्घटना से मृत्यु पर 1,50,000 मिलेंगे। दुर्घटना से पूर्णतया अपंगता पर भी 1,50,000 रूपए मिलेंगे। इसके अतिरिक्त इस योजना में शामिल पशुपालक को एक अतिरिक्त लाभ इस रूप में मिलेगा कि उसके दो बच्चों को 9वीं कक्षा से 12वीं कक्षा तक पढऩे के लिए 1200 रूपए प्रतिवर्ष वजीफा मिलेगा।

प्रदेश में ज्यूरी (शिमला), नगवांई (मण्डी), ताल (हमीरपुर), कड़छम (किन्नौर), सरौल (चम्बा), में भेड़-प्रजनन केन्द्र

भेड़ पालन ऊन, मांस, खालों तथा खाद के रूप में लोगों की आय का प्रमुख स्त्रोत है। इस समय प्रदेश में ज्यूरी (शिमला), नगवांई (मण्डी), ताल (हमीरपुर), कड़छम (किन्नौर), सरौल (चम्बा), में भेड़-प्रजनन केन्द्र खोले गए हैं जो लोगों को उन्नत किस्म की भेड़े देते हैं। 1995 के अन्त तक इन केन्द्रों में भेड़ों की संख्या 2600 के लगभग थी जो 2010 तक 3900 तक पहुंच गई। भेड़ों के पालन के प्रोत्साहन के लिए सरकार लघु व सीमांत किसानों और कृषि मजदूरों को कम दरों पर ऋण देती है। वर्ष 1991-92 में 15.67 लाख किलोग्राम ऊन का उत्पादन किया गया। कन्दवाड़ी (कांगड़ा), व नगवांई (मण्डी), में अंगोरा खरगोश फार्म भी खोले गए है। 1997 में भेड़ों की कुल संख्या 9,08,831 थी, 2003 में 9,0627 तथा 2007 की गणना के अनुसार 9,01,299 तक रह गई। वर्ष 2005-06 में कुल ऊन उत्पादन 1603.09 टन, तथा प्रति भेड़ उत्पादकता प्रति वर्ष 1475 ग्राम थी, 2007-08 में कुल ऊन उत्पादन 1614.9 टन तथा उत्पादकता प्रति भेड़ 1546 ग्राम 2010-11 में कुल उत्पादन 1639.44 टन तथा प्रति भेड़ उत्पादकता 1591 ग्राम तक थी। वर्ष 2009 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा संचालित राष्ट्रीय कृषि अन्वेषण परियोजना के तहत 1.39 करोड़ रूपए की लागत से परियोजना के तहत प्रदेश के दुर्गम क्षेत्रों में पश्मीना ऊन के लिए पाली जाने वाली चीगू नस्ल की भेड़ पर शोध केंद्रित किया गया था। इसके तहत लुप्त होने का खतरा झेल रही चीगू भेड़ का वर्गीकरण व संरक्षण गुणों का पता लगाया गया और चीगू भेड़ के संरक्षण के सफल प्रयास किए गए।

प्राचीन समय से ही किन्नौर, लाहौल-स्पिति, भरमौर, पांगी, कांगडा तथा मण्डी के जन-जातीय क्षेत्र के लोग मुख्यत: भेड़ पालन पर निर्भर

भेड़ पालन हिमाचल के जन-जातीय क्षेत्रों के निवासियों का एक प्राचीन व्यवसाय है। प्राचीन समय से ही किन्नौर, लाहौल-स्पिति, भरमौर, पांगी, कांगडा तथा मण्डी के जन-जातीय क्षेत्र के लोग मुख्यत: भेड़ पालन पर निर्भर रहे हैं। भेड़ पालक भेड़ से ऊन तथा मांस तो प्राप्त करता ही है, भेड़ की खाद भूमि को भी अधिक ऊपजाऊ बनाती है। भेड़ कृषि अयोग्य भूमि में चरती है, कई खरपतवार आदि अनावश्यक घासों का उपयोग करती है तथा उंचाई पर स्थित चरागाह जोकि अन्य पशुओं के अयोग्य है, उसका उपयोग करती है। भेड़ पालक भेड़ों से प्रति वर्ष मेमने प्राप्त करते हैं।

हिमाचल प्रदेश में लगभग 9 लाख भेड़ों की आबादी है। प्रदेश में शुद्ध विदेशी नस्लों क्रमश;  रैमबुले तथा रशीयन मैरिनो के मेढों द्वारा स्थानीय नस्ल की भेड़ों का प्रजनन करवाया जाता है ताकि स्थानीय नस्ल की भेड़ों की ऊन की मात्रा प्रति भेड़ बढाई जा सके। जहां सुधारी नस्ल कई भेड़ों से 2.5 किलोग्राम प्रति भेड़ ऊन प्राप्त होती है वहीं दूसरी ओर स्थानीय नस्लों रामपुर बुशहरी व गद्दी से 1 किलोग्राम से भी कम ऊन प्राप्त होती है।

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