हिमाचल: पांगी के मेले-त्योहार: पांगी घाटी में पूरे साल चलता रहता है त्योहारों व मेलों का सिलसिला

समस्त पांगी पाटी में मनाये जाने वाले पारम्परिक मेले-त्योहार

हिमाचल प्रदेश में मेले और त्योहारों का बहुत महत्व है यहाँ के मेले और त्यौहार पहाड़ी संस्कृति को व्यक्त करते हैं। पांगी घाटी के अपने कुछ मेले, पर्व एवं त्योहार हैं जो कि यहां की देव संस्कृति एवं परंपराओं को संजोए हुए हैं। प्रत्येक मेले एवं पर्व का संबंध किसी न किसी ऋतु के आरंभ या अंत से रहा है। इन्हें देव संस्कृति से जोड़ कर मनाया जाता है। हर मेले व त्योहार में देवताओं व देवलुओं की पूजा का विशेष महत्त्व रहता है।

आज के समाज को देखकर ऐसा आभास होता है कि घाटी में मनाए जाने वाले मेले-त्योहारों का उल्लेख कदाचित पुस्तकों के सफेद पन्नों पर अंकित होकर रह जाएगा, अब इन मेले-त्योहारों के प्रति लोगों में पहले जैसा उत्साह नहीं रहा और समय के साथ इनका स्वरूप भी बदल रहा है। मगर परम्परा से पांगी घाटी में सारा साल त्योहारों व मेलों का सिलसिला चलता आया है। यहाँ त्योहारों व मेलों का श्रीगणेश ‘वार’ (व्रत) से होता है और यह श्रृंखला ‘दखरेण’ तक पहुँचती है। समस्त पांगी पाटी में मनाये जाने वाले पारम्परिक मेले-त्योहार एवं पर्व निम्न प्रकार से हैं-

वार

वार (व्रत) त्योहार को घाटी के लोग दो तरह से मनाते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य ज्वर की देवी माँ शीतला को प्रसन्न करना होता है। इसके दो रूपों का आशय है एक घाटी के किलाड़ परगना के लोग माता की पूजा घर में करते हैं, जबकि दूसरा साच परगना के लोग सामुदायिक रूप में निर्धारित स्थल पर एकत्रित होकर शीतला माता का पूजन करते हैं। किलाड़ परगना के लोग इस पर्व को पौष मास के प्रथम मंगलवार को मनाते हैं। इस दिन घर का मुखिया निराहार रहकर व्रत रखता है। मनसा-वाचा-कर्मणा व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। मुखिया यह अनुष्ठान अपने परिवार की रोगों से रक्षा के लिए करता है।

घर का मुखिया प्रदोषकाल में स्नानोपरान्त माता शीतला के लिए मीठा भोग तैयार करता है। उसके उपरान्त माता को भेंट स्वरूप बकरी अर्पित की जाती है। बकरी के सिर, पीठ और पूँछ पर फूल डाले जाते हैं तथा जल से अभिषेक किया जाता है। बकरी से घर के चारों कोनों की परिक्रमा करवाई जाती है। माता शीतला को मीठा भोग चढ़ाया जाता है। मुखिया अपने परिवार के स्वास्थ्य-लाभ की कामना के साथ अर्चना भी करता है। पूजित बकरी को पुनः बाड़े में पहुँचाया जाता है। इस प्रकार रात्रिभोज के उपरान्त ‘वार’ सम्पन्न होता है।

घाटी के दूसरे छोर यानी शौर से फिन्डरू, क्रयूणी तथा सेचूघाटी में इस त्योहार को भिन्न रूप से मनाया जाता है। यहाँ के लोग निश्चित तिथि को एकत्रित होकर माओट (एक बैठक) का आयोजन करते हैं। इसमें दो व्यक्तियों का चयन किया जाता है, जो इस आनुष्ठानिक कार्य को सम्पन्न करते हैं। प्रजा द्वारा चयनित इन व्यक्तियों को ‘चाड़’ कहते हैं। ये चाड़ बकरी को लेकर घर-घर जाते हैं। प्रत्येक घर में बकरी का पूजन किया जाता है तथा माता के निमित्त भोग अर्पित किया जाता है। भोग तथा बकरी को निर्धारित स्थल पर ले जाया जाता है, जहाँ माता शीतला का पूजन किया जाता है। देवता के पुजारी व कारदार माता से लोगों के अच्छे स्वास्य के लिए प्रार्थना करते हैं। बकरी की बलि दी जाती है तथा भोग बाँटा जाता है। इस प्रकार यह त्योहार सम्पन्न होता है। इस त्योहार को यहाँ ‘प्रोकड़ी’ कहा जाता है। घाटी में मनाये जाने वाले ‘वार’ तथा ‘प्रोकड़ी’ में विशेष अन्तर नहीं है, चूंकि दोनों त्योहारों का उद्देश्य एक ही है।

उटेण

जब घाटी हिम की सफेद चादर ओढ़े सुन्दर श्वेत पंगवालन की भान्ति सुसज्जित होती है तो पंगवाल सदियों से चली आ रही अपनी इस परम्परा को निभाना नहीं भूलते। उटेण या उतरेणे दोनों शब्द पंगवाली बोली में पर्यायवाची हैं। जहाँ समूचा राष्ट्र इस त्योहार को मकर संक्रान्ति के रूप में मनाता है, वहीं पांगी घाटी के लोग इस पर्व को उटेण अथवा उतरेणे के रूप में मनाते हैं। उन्हें यह ज्ञात रहता है कि भगवान भास्कर अब उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर चुके हैं, अतः घरों को साफ-सुथरा करना है, ताकि उत्तरायण का त्योहार स्वस्थ परिवेश में बड़े उत्साह व उमंग से मनाया जा सके। उतरेणे का त्योहार मनाने के लिए लोग एक दिन पूर्व अपने घरों में ‘मण्डे’ पकाते हैं। ‘मण्डे’ पंगवाल जनजाति का विशेष भोज्य पदार्थ है। उतरेणे की सुबह लोग ब्रह्ममुहूर्त में जागते हैं तथा अपने पितरों व देवताओं के लिए भान्ति-भान्ति के भोज्य पदार्थ भोग के रूप में तैयार करते हैं। सर्वप्रथम घर में गणपति तथा नवग्रहों का पूजन किया जाता है। तदुपरान्त घर का मुखिया पितर-पूजन करता है। पितरों को स्वच्छ जल व दूध चढ़ाया जाता है। अन्त में कन्या पूजन किया जाता है। दिन चढ़ने पर सभी लोग देवता के मंदिर में जाते हैं। वाद्य-यन्त्रों के साथ पूजा-अर्चना करते हैं। उतरेणे का त्योहार यहीं सम्पन्न हो जाता है।

रमेश जसरोहिया

जारी……………………………………………………………………………………………..(भाग-2)

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