चमत्कारों से आस्था की ज्योत जगाने वाला दियोट सिद्ध “श्री बाबा बालकनाथ मन्दिर”

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भारत में नाथ-सिद्ध साहित्य महंत परम्परा को परिपुष्ट करता है। यह प्रथा बाबा बालकनाथ मन्दिर परिसर में बनी महंत समाधियों से भी परिलक्षित होती हैं। यहां मन्दिर से कुछ ही दूरी पर गिरि सम्प्रदाय के महन्तों की समाधियां हैं। यह स्थान मठ नाम से जाना जाता है। यहां बाबा बालकनाथ मन्दिर में गुरू गद्दी परम्परा के पोषक रहे महंतों की समाधियां हैं। यहां तीन समाधियां लघु मन्दिर शिल्प में गुम्बदीय छत्त की है। इन समाधियों के प्रांगण में छोटे-छोटे नोंद बैल और भीतर शिवलिंग रखे हैं। एक समाधि के द्वार पर बेल-पत्र उकेरे गए है। इस द्वार के दोनों ओर द्वारपाल तथा शीर्षस्थ पर गणपति की मूर्ति है। इसी द्वार के बाहर गणपति की बृहदाकार मूर्ति है। एक अन्य समाधि के द्वार पर दोनों ओर योगियों की मूर्तियां हैं तथा ऊपर गणपति की मूर्ति है। एक-एक कक्ष वाली छः अन्य छोटी-छोटी प्राचीन समाधियां हैं। यहां स्तूपाकार तीन नई समाधियां भी हैं।

जब शिव अंशावतार शुकदेव का जन्म हुआ तो नौ नाथों और 84 सिद्धों का जन्म हुआ

पौराणिक अनुश्रुति के अनुसार जब शिव अंशावतार शुकदेव का जन्म हुआ तो उस समय नौ नाथों और 84 सिद्धों का जन्म भी हुआ। इन्हीं सिद्धों में से बाबा बालक नाथ भी एक सिद्ध हुए। यह महर्षि अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय के शिष्य थे। लोकश्रुति है कि बाबा बालकनाथ गिरनार पर्वत के जूनागढ़ अखाड़ा में स्वामी दत्तात्रेय से दीक्षित हुए। बाल्यकाल में ही ज्ञान अर्जित कर इनकी गणना सिद्धों की श्रेणी में की जाने लगी। इस सिद्ध योगी की लोकमानस में पौणाहारी अर्थात् पवन का अहार करने वाले बाबा की रूप में भी अराधना की जाती है। आठवीं और नवीं शताब्दी में सरहपा, शरहपा, लुइपा आदि सिद्ध सन्तों तथा गोरखनाथ, चौरंगीनाथ आदि नाथों के स्वर भी साहित्य जगत में मुखरित हुए। इसी काल से बाबा बालक नाथ का संवाद भी कर्णश्रुतिवेद के बल पर उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जा रहा था।

जनश्रुति है कि बाबा बालकनाथ आदिकाल से ही हर युग में जन्म लेते हैं

भोलेनाथ ने दिया था वरदान; तुम पर आयु वृद्धि का असर नहीं होगा कलियुग में तुम लोकमानस के अराध्य देव बनोगे

जनश्रुति है कि बाबा बालकनाथ आदिकाल से ही हर युग में जन्म लेते हैं इन्हें सतयुग में स्कन्द, नेता में कौल तथा द्वापर में महाकौल के नाम से जाना जाता रहा है। महाकौल बाल्यकाल में शिव दर्शन की अभिलाषा से कैलाश पर्वत की और गए। बालयोगी की कर्मठता से प्रसन्न होकर भोलेनाथ ने उन्हें वरदान दिया कि “तुम जिस बालपन में यहां आए हो तुम्हारी बाल छवि सदा इस प्रकार ही बनी रहेगी। तुम पर आयु वृद्धि का असर नहीं होगा। कलियुग में तुम परमसिद्धि से लोकमानस के अराध्य देव बनोगे।” यह भी दन्त कथा है कि कलियुग में गुजरात, काठियावाड़ के नारायण विष्णो वेश की पत्नी लक्ष्मी के गर्भ से बालयोगी महाकौल ने जन्म लिया। यह बालक बाल्यावस्था से प्रभु भक्ति में लीन रहने लगा। इन्होंने गिरनार पर्वत पर स्वामी दत्तात्रेय गुरू से दीक्षा लेकर अपार ज्ञान अर्जित किया। यह वहीं से बाल सिद्ध कहलाए और देशाटन पर चले गए।

बाबा यात्रा करते-करते सूर्य ग्रहण काल में कुरूक्षेत्र आ पहुंचे थे

किंवदन्ति है कि एक बार बाबा यात्रा करते-करते सूर्य ग्रहण काल में कुरूक्षेत्र आ पहुंचे। वहां से बिलासपुर के बच्छरेटू और फिर शाहतलाई आए। शाहतलाई में सिद्ध बाबा की रतनो माई नाम की ऐसी महिला से मुलाकात हुई जिसके पास बाबा ने द्वापर युग में बारह घड़ी विश्राम किया था। रतनो माई के इस ऋण से मुक्त होने के लिए बाबा ने बारह वर्ष तक उस बुढ़िया की गाएं चराई। इन बारह वर्षों में बाबा वट वृक्ष के नीचे बैठ कर साधना में लीन रहते थे। रतनो माई भी बाबा को रोटी और लस्सी यहीं लाकर देती थी। बारह वर्ष पूर्ण होने पर रतनो माई एक दिन लोगों की कही-सुनी पर बाबा से नाराज हुई। सिद्ध बाबा ने लौकिक चमत्कारों के बल पर रूष्ट रतनो माई को मनाया। उन्होंने वटवृक्ष के तने में चिमटे की चोट मार कर रतनो माई की बारह वर्ष की रोटियां वापस लौटाई। इस प्रकार धरती पर चिमटा के प्रहार से लस्सी की धार उफान भरने लगी। इसे रतनो माई की बारह वर्ष की छाछ लौटाने की प्रक्रिया पूर्ण कर बाबा गरना झाड़ी के पास आकर तपस्या करने लगे।

एक दिन जब बाबा गरना झाड़ी नामक नूतन समाधि स्थल पर तपस्या में लीन थे तो गोरखनाथ जी 360 शिष्यों को लेकर गरना झाड़ी पहुंचे। जहां गोरखनाथ और बाबा बालकनाथ के मध्य अनेक प्रकार से गहन वाद-संवाद और शक्ति परिक्षण हुए। जब बाबा बालक नाथ ने गुरू गोरखनाथ को परीक्षाओं में पराजित किया तो गोरखनाथ के शिष्यों ने बाबा के कानों में बलपूर्वक कुण्डल पहनाना चाहा और अपने अखाड़ा में शामिल करने का प्रयास किया। ऐसा करने पर बाबा बालकनाथ आकाश मार्ग से उड़ान भरकर उस पहाड़ी पर जा पहुंचे जहां अब चल पादुका मन्दिर बना है।

बाबा बालकनाथ के पहाड़ी पर पद चिन्ह पड़ने से यह स्थान लोक चरण पादुका के नाम से विख्यात हुआ

भक्तजन अब भी इस मन्दिर में बकरा दान देते हैं, लेकिन बलि नहीं

बकरे पर पानी छिड़क कर उसे छोड़ दिया जाता है

कालान्तर में बाबा बालकनाथ के इस पहाड़ी पर प्रथम बार पद चिन्ह पड़ने से यह स्थान लोक में चरण पादुका के नाम से विख्यात हुआ। यहां से बाबा जी इसी पहाड़ी पर बनी एक गुफा में तप करने के लिए गए। इस गुफा में प्रवेश करने पर गुफा का अधिपति राक्षस, बाबा पर क्रोधित हो गया। लेकिन बाबा ने उस राक्षस को सिद्ध साधना से प्रभावित कर गुफा से चले जाने को विवश कर दिया। राक्षस ने गुफा छोड़ने के बदले में बकरे की बलि देने को कहा। ब्रह्मध्यान में लीन बाबा उसी गुफा में समाधिस्थ हो गए और राक्षस को बकरा बलि देने का वचन दिया। सम्भवतः इसी लोक विश्वास की डोर को सशक्त करने के लिए भक्तजन अब भी इस मन्दिर में बकरा दान देते हैं। लेकिन बकरे की बलि नहीं दी जाती है। बकरे पर पानी छिड़क कर उसे छोड़ दिया जाता है। लोक मान्यता है कि अगर बकरा इस पानी को अपने ऊपर से झाड़ कर कम्प-कम्पी सी थर्राहट (कम्पन) करता है तो उसे शुभ माना जाता है। जनमानस में यह प्रथा “बिझेरना”, “चूलू” आदि के नामों से जानी जाती है। बाबा बालक नाथ की गूढ़ आध्यात्मिक भावना से उद्वेलित होकर राजा भर्तृहरि भी उसी गुफा के समीप तपस्या करने लगे।

जनश्रुति है कि एक दिन बनारसी दास नाम का ब्राह्मण इस पहाड़ी पर गौओं को चराने के लिए लाया। यह ब्राह्मण सीमावर्ती गांव चकमोह का निवासी था। बाबा ने उस ब्राह्मण को प्रभु प्रेमी समझ कर दर्शन दिए और चमत्कारिक शक्ति का प्रदर्शन करवा कर ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया। बाबा ने उस ब्राह्मण को सिद्ध परम्परा पूजा विधान से भी अवगत करवाया और कहा कि मेरे ब्रह्मलीन हो जाने के बाद सिद्ध धूना परिपाटी को सिद्ध मर्यादाओं के अनुरूप निरन्तर बनाए रखना। उस ब्राह्मण ने भी बाबा की आज्ञा पाकर सिद्ध प्रथा को अग्रसर करने में सर्वस्य न्यौछावर कर दिया। लोकश्रुति है कि बाबा की इस तपोस्थली पर एक दियोट (अर्थात दीपक) सदैव ज्वालायमान रहता था। उस दीपक की ज्योति रात्रि के अंधकार में तो दूरवर्ती स्थानों से भी जुगनू के उजाले की भांति टिमटिमाती हुई दिखाई देती थी। इस सिद्ध बाबा के अक्षय दीपक (दियोट) के कारण यह सिद्धधाम लोकमानस में दियोट सिद्ध के नाम से विख्यात हुआ।

दियोट सिद्ध मन्दिर में द्विकालीन पूजा का विधान

सिद्ध बाबा के मन्दिर में लगाया जाता है रोट का भोग

यहां दियोट सिद्ध मन्दिर में द्विकालीन पूजा का विधान है। इस मन्दिर में ब्रह्ममुहूर्त में की जाने वाली पूजा के लिए बाबा की बावड़ी से जल लाकर मूर्ति का स्नान करवाया जाता है। इसके पश्चाद बाबा के थड़ा से पूजा शुरू की जाती है। यहां तक स्त्री-पुरूष आदि समस्त जनता बाबा के दर्शन कर पाती हैं। बाबा के ब्रह्मचर्य और विरक्ति से ओत-प्रोत गुफा मन्दिर तक केवल पुरूषों को ही बाबा के दर्शन सुलभ हो पाते हैं। इस प्रभातकालीन बेला में थड़ा, गुफा मन्दिर, चरण पादुका मन्दिर, राधा-कृष्ण मन्दिर और भर्तृहरि मन्दिर में एक साथ अलग-अलग ब्राह्मणों द्वारा पूजा की जाती है। सिद्ध बाबा के मन्दिर में गेहूं या मैदा के आटे में गुड़ मिलाकर घी या तेल में तली रोटी (रोट) का भोग लगाया जाता है।

हर रविवार को बाबा के धूने के साथ हवन होता है

यहां केवल हर संक्रान्ति को हलवा का भोग चढ़ाया जाता है। यहां दोपहर के लंगर में बने भोजन का भोग सिर्फ भर्तृहरि मन्दिर में चढ़ाया जाता है तथा उसके बाद लंगर आम जनता के लिए खोल दिया जाता है। सांय सभी मन्दिरों में मात्र पूजा होती है, भोग नही लगाया जाता है। इस पूजा के बाद सांयकालीन लंगर आरम्भ होता है। यहां हर रविवार को बाबा के धूने के साथ हवन करवाया जाता है। यहां बाबा की पूजा-आरती पूजारियों द्वारा मंद-मंद स्वर में केवल मन्त्रोच्चारण के साथ की जाती है। यहां चैत्र मास में बाबा के मेले आरम्भ होते हैं और आषाढ़ मास तक चलते है। इन मेलों को सिद्ध परम्परा का पोषक माना जाता है। इस मन्दिर में प्रत्येक संक्रान्ति के पर्व पर भी मेले जैसा जन सैलाब उमड़ता है। हालांकि हर रविवार को भी श्रद्धालुओं की भीड़ जुट जाती है।

 

 

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