हिमाचल: लोकप्रिय-नाट्य में बड़ी दक्षता के साथ पिरोए जाते हैं नृत्य और संगीत; पहाड़ी लोक-नाट्यों में “करयाला, बाँठड़ा, झाँकी, स्वाँग, हड्न्तर और भगत” सबसे लोकप्रिय

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ये नाटक मिथकों, किंवदंतियों, इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिष्टाचार और लोगों के मेल पर आधारित हैं। यद्यपि वर्तमान समय में लोक रंगमंच भी राम लीला और कृष्ण लीला को शामिल करता है, लेकिन पुराने रूप अभी भी अपनी लोकप्रिय को बरकरार रखते हैं।

 ठोडा: ठोडा हिमाचल प्रदेश के युद्ध परंपरा से जुड़ा लोक नाट्य है। यह लोकनाट्य शिमला, सिरमौर तथा सोलन में नाटी के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। ठोडा महाभारत युद्ध की याद ताजा करता है। यह खेल बैशाखी के दिन से लेकर श्रावण के अंत तक ग्राम देवता मंदिर के सामने खुले आंगन या समतल खुले स्थानों पर खेला जाता है। स्थानीय जनुश्रुति के अनुसार कौरवों की संख्या सौ नहीं साठ थी इसलिए उन साठ की संतान को शाठा कहते है। पाण्डव पांच ही थे उनके वंशज पाठा या पाशा कहलाते है। शाठी लोग पाशी को खेल के लिये बुलाते थे तो दोनों दल अपने आराध्य देवता की पूजा के पश्चात् फारसो, डंडों, गडासों, धनुष–बाण और तलवारों से आपस में ठोडा खेल खेलते है।

बांठडा: बांठडा लोकनाट्य का प्रचलन अधिकतर मण्डी तथा उसके आसपास के क्षेत्र में है। किसी समय बांठडा राजमहलों का लोकनाट्य था । बांठडा के आरम्भ में शिव, गणपति और सरस्वती की पूजा की जाती है। इसके अतिरिक्त जहां बांठडा किया जा रहा है वहां स्थानीय देवता की अराधना भी की जाती है। इसमें रांझू–फूलमू, कुंजू–चंचलों, राजा–गद्दन आदि की लोक कथाएं भी की जाती है । इसके अतिरिक्त बांठडे में लोकनाट्य जैसे– राजा हरिश्चंद्र, शिव-पार्वती, पूर्ण भक्त इत्यादि भी प्रस्तुत किए जाते है।

बरलाज: हिमाचल प्रदेश में बरलाज के दो रूप है, कुछ स्थानों में बरलाज के नाम से स्थानीय भाषा में बलिराज की गाथा सुनाई जाती है। यह मूल रूप से गीति काव्य नाट्य है । कार्तिक की अमावस्या बूढ़ी दिवाली के नाम से मनाई और दर्शायी जाती है। यह लोकनाट्य सोलन व् सिरमौर में रामायण के प्रसंगों सहित प्रस्तुत किया जाता है। दीपावली के आस-पास देवताओं के मन्दिरों में मेले लगते हैं। रात को मन्दिर के सामने खुले आंगन/ मैदान में लकड़ियों के ढेर लगाकर गीट्ठा (घियाना) जलाया जाता है। सबसे पहले खेल के आरम्भ होते ही गीठे के चारो ओर देवता के वाद्य यंत्रों की धुनों में परिक्रमा की जाती है। देवता के चेला को खेल आती है और लोगों को चावल के दाने बांटता है। तब रामायण के अनेक प्रसंग प्रस्तुत किये जाते है । हनुमान से सम्बन्धित दृश्य को हणु, लक्ष्मण, सीता के प्रसंग दो-तीन कलाकार स्थानीय भाषा में प्रसंग गाकर प्रस्तुत करते हैं।

हरण:  प्रदेश के अधिकतर क्षेत्रो में प्रस्तुत किया जाने वाला हरण नृत्य चम्बा में हरणातर, किन्नौर में हौरिंगफों और कुल्लू में होरण के नाम से जाना जाता है । इस लोक नाट्य के दो पक्ष होते है एक नृत्य पक्ष और दूसरा स्वांग पक्ष, नृत्य में तीन पात्र, हरण, बूढ़ी और कान्ह अपने पारंपरिक वेश भूषा में हिरण का रूप तैयार करके खलिहान में नृत्य करते है। नृत्य के उपरांत स्वागीं पक्ष प्रवेश करता है जो कि स्वागीं मुंह पर कई रंग और कई प्रकार के मुखौटे पहने होते हैं। ढोल नगाडे आदि धुनों पर सामाजिक परिवेश में घटित घटनाओं, समस्याओं सामाजिक बुराईयों तथा हास्य व्यंग्यों को जोड़ कर लोगों का मनोरंजन करते है।

भगत:  भगत लोक नाट्य का प्रचलन विशेषकर कांगड़ा, हमीरपुर, ऊना, बिलासपुर जनपद में है। भगत के निर्देशक को गुरू जी और अन्य कलाकारों को भगतिए कहा जाता है। स्त्री का अभिनय पुरूष ही करता है। भगत में गुरूजी पहले अलाव के इर्द -गिर्द घूमता हुआ अग्नि देवता का पूजन करता है । भगत में कृष्ण के लीला-गान मुख्य विषय होते है । भगत में एक पात्र को कृष्ण बनाया जाता है और चार- पांच सखियां बनायी जाती हैं। फिर इस में हंसी मजाक इत्यादि करके लोगों का मनोरंजन किया जाता है ।

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