आज भी जीवित है लाहौल-स्पीति में बौद्ध सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन इतिहास

हिमाचल: आज भी कायम है लाहौल-स्पीति में बौद्ध सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन इतिहास

 लाहौल-स्पीति में रीति रिवाजों की अनोखी परम्परा,…. होती है प्रकृति की पूजा

रदेश का एक अद्भुत प्राकृतिक स्थल लाहौल-स्पीति

प्रदेश का एक अद्भुत प्राकृतिक स्थल लाहौल-स्पीति

देवभूमि हिमाचल जहां अपनी प्राकृतिक छटा चहुं ओर बिखेरे हुए है वहीं प्रदेश का एक अद्भुत प्राकृतिक स्थल लाहौल-स्पीति बौद्ध सभ्यता और संस्कृति से जाना जाता है। लाहौल-स्पीति के लोग आज भी अपने अंदर अपनी परम्पराओं, रीति-रिवाजों के लिए विशेष सम्मान लिए हुए हैं तथा यहां के प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति उनका अटूट रिश्ता है। यही वजह है कि लाहौल जनजाति के लोग प्रकृति की पूजा करते हैं, जो भी लाहौल घाटी की प्राकृतिक वादियों का दीदार करने पहुंचता है वो यहां के प्राचीन, सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, सभ्यताओं, परम्पराओं और प्राकृतिक सौंदर्य के प्राचीन इतिहास को अपने सामने पाता है।

चारों तरफ झीलों, दर्रो और हिमखंडों से घिरी, आसमान छूते शैल-शिखरों के दामन में बसी लाहौल-स्पीति घाटियां अपने जादुई सौंदर्य और प्रकृति की विविधताओं के लिए विख्यात हैं। हिंदू और बौद्ध परंपराओं का अनूठा संगम बनी हिमाचल की इन घाटियों में प्रकृति विभिन्न मनभावन परिधानों में नजर आती है। कहीं आकाश छूती चोटियों के बीच झिलमिलाती झीलें हैं तो कहीं बर्फीला रेगिस्तान दूर तक फैला नजर आता है। कहीं पहाड़ों पर बने मंदिर व गोम्पा और इनमें बौद्ध मंत्रों की गूंज के साथ-साथ वाद्ययंत्रों के सुमधुर स्वर एक आलौकिक अनुभूति से भर देते हैं तो कहीं जड़ी बूटियों की सौंधी-सौंधी महक और बर्फ-बादलों की सौंदर्य रंगत देखते ही बनती है।

लाहौल-स्पीति के पूर्व में तिब्बत, पश्चिम में चंबा, उत्तर में जम्मू कश्मीर तथा दक्षिण में कांगड़ा-कुल्लू और किन्नौर की सीमाएं लगती हैं। यह सबसे ठंडा इलाका है जहां चंद्रा, भागा, स्पीति और सरब नदियां बहती है और यहां अनेक हिमखंड हैं। भारत की आदिम मूल जाति मुंडा ने इसे बसाया था। ईसा शताब्दी पूर्व भोट देश के भोट भाषी तिब्बत छोडक़र लददाख और लद्दाख से लाहौल-स्पीति में आकर बस गए। खश आर्य दक्षिण से आकर लाहौल-स्पीति में यहां बसी तीन प्रमुख जातियों की तीन भाषाएं बुनम, तिनम और मंचात प्रमुख है। ईश्वर के संसार को लाही-युल कहा जाता है इसी से लाहौल बना। चीनी यात्री हयूनसांग अपने यात्रा विवरण में से लो-उ-लो से इसका नाम जोड़ा है।

लाहौल के प्रारम्भिक शासक छोटे सामंत थे जिन्हें जो पुकारा जाता था। सन् 400-500 में यारकंद सेनाओं ने लाहौल पर आक्रमण किए। 17वीं शताब्दी में तिब्बती और मंगोल शासकों ने यहां हमले किए। 1670 में जैसे ही लाहौल, लद्दाख से आजाद हुआ, चंबा के शासकों ने इस पर अधिकार जमा लिया। यह क्षेत्र चंबा-लाहौल कहलाने लगा। कुल्लू के राजा विधि सिंह ने चंबा से छीनकर कुल्लू में मिला दिया। 1840-41 में लाहौल सिखों के नियंत्रण में चला गया। चंबा तथा कुल्लू के शासकों द्वारा लाहौल पर बार-बार आक्रमणों से लाहौल 1846-47 में चबा-लाहौल तथा ब्रिटिश लाहौल में बंट गया। 1853 में मर्वियन मिशन ने केलंग में मुख्यालय स्थापित किया।

स्पीति को कहा जाता है रत्नभूमि

गोम्पाओं की धरती : स्पीति घाटी

गोम्पाओं की धरती : स्पीति घाटी

स्पीति को रत्नभूमि भी कहा जाता है। सन् 600-650 में हिदूं राजवंश के राजेन्द्र सेन और समुद्र सेन का यहां शासन रहा। निरमंड के ताम्रपत्र से इसकी पुष्टि होती है। तिब्बती शासक चुब-सेम्स-पा ने 1000 में स्पीति पर अधिकार कर लिया और यहां ताबो गोम्पा का निर्माण करवाया। 1680 में कुल्लू के राजा गुलाब सिंह का स्पीति पर नियंत्रण हो गया। 1883 में स्पीति नोनो समुदाय की जागीर बनी। 1941 में स्पीति में एक तहसील खोली गई। 15 अगसत 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लाहौल-स्पीति पंजाब सरकार के अधीन रहा। 1960 में पंजाब सरकार ने लाहौल-स्पीति को जिला बनाकर मुख्यालय काजा में रखा। 1 सितंबर 1996 को पंजाब पुनर्गठन पर लाहौल-स्पीति पंजाब से हिमाचल को हस्तान्तरित हुआ। जर्मन पादरी ए. डब्ल्यू हाइड ने लाहौल में आलू की खेती शुरू की। 1925 से यहां कुठ की खेती प्रारंभ हुई।

मणियों की घाटी

स्पीति को ‘मणियों की घाटी’ भी कहा जाता है। स्थानीय भाषा में ‘सी’ का अर्थ है-मणि और ‘पीति’ का अर्थ-स्थान, यानि मणियों का स्थान। हिमाचल की इस घाटी में चूंकि कई कीमती पत्थर व हीरे आज भी मिलते हैं, अत: इसे ‘मणियों की घाटी’ का खिताब मिलना स्वाभाविक ही है। ऐसी धारणा भी है कि इस घाटी के शैल शिखरों में सैकड़ों वर्ष तक बर्फ की मोटी तहें जमीं रहती हैं और इतनी लम्बी अवधि में बर्फ मणियों में बदल जाती है।

पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने इतिहास को जीते चले आ रहे हैं लाहौली

तमाम कठिनाईयों के बावजूद लाहौलियों के चेहरे पर न तो शिकन है, न कोई थकान।

तमाम कठिनाईयों के बावजूद लाहौलियों के चेहरे पर न तो शिकन है, न कोई थकान।

लाहौल घाटी हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति जिले का वह हिस्सा है जहां लाहौली जनजाती के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने इतिहास को जीते चले आए हैं। तमाम कठिनाईयों के बावजूद लाहौलियों के चेहरे पर न तो शिकन है, न कोई थकान। अपनी माटी से गहरे लगाव ने इनके चेहरे पर मुस्कान बिखेरी और अपने हौंसले की बदौलत यह कदम-दर-कदम जिंदगी के सफर को तय कर रहे हैं।

सन् 1960 में पंजाब के कांगड़ा जिले से कुछ हिस्सों को अलग करके उन्हें लाहौल-स्पीति के नाम से नये जिले के रूप में हिमाचल प्रदेश से मिला दिया गया। 1991 की जनगणना के अनुसार 13835 वर्ग किमी. में फैले इस जिले की जनसंख्या 31294 है और जनसंख्या घनत्व 2 व्यक्ति वर्ग किमी. है।

प्राचीन समय में महाराजा हर्ष की मृत्यु के बाद भारतीय राज सत्ता बिखरने लगी और लाहौल में सामंती व्यवस्था का उदय हुआ। उस समय लाहौल पर कोलोंग, गुमरांग, घोंडला और बारबोग नाम से चार जमींदार परिवार शासन किया करते थे। इतिहासकारों के अनुसार लगभग 1000 ईसा पूर्व में कोलोंग परिवारों ने तीन-चार सौ वर्षों तक लाहौल पर शासन किया। परन्तु कोलोंग परिवार का वह शासन स्पीति राजा के अधीन हुआ करता था और बाद में लाहौल भी स्पीति की तरह लद्दाख सल्तनत से जुड़ गया। बदलते वक्त के साथ सत्ता के कई पड़ावों से गुजरते हुए 1947 में देश की आजादी के वक्त लाहौल का शासन संबंधी काम नायब तहसीलदार देखा करते थे और शासन का मुख्यालय हुआ करता था कोलांग। जब लाहौल-स्पीति को जिला बनाया गया तो कोलोंग को तहसील का दर्जा दिया गया।

हिन्दु और बौद्ध धर्म की सभी विरासत को सदियों से समेटे  “लाहौल”

लाहौल, हिन्दु और बौद्ध धर्म की सभी विरासत को समेटे सदियों से एकता की अद्भुत मिसाल रहा है। जहां बौद्ध धर्म तिब्बत से आया वहीं दूसरी तरफ हिन्दू धर्म पंजाब के प्रभाव से लाहौल की आबोहवा में घुल गया। लाहौल की पट्टन घाटी में हिन्दु आस्था से जुड़े लोग रहते हैं, जबकि रंगोली और गारा घाटियों में बौद्ध मंत्र गुंजते हैं। पट्टन घाटी में लाहौली जनजाति के लोग शिव और दुर्गा यानी शक्ति की पूजा में विश्वास रखते हैं। लाहौल का अतीत तिब्बत से जुड़ा है और यही वजह है कि इस घाटी में बौद्ध सभ्यता और संस्कृति फलती-फूलती नजर आती है। लाहौली जनजाति के लोगों में बौद्ध धर्म मुख्यतः तीन संप्रदाय प्रचलित है: पहला न्योंग्मापा, दूसरा कग्युद्पा और तीसरा गेलुग्पा। न्यींग्मापा संप्रदाय सबसे प्राचीन है। गेलुग्पा संप्रदाय बौद्ध समाज में पीत संप्रदाय के नाम से भी जाना जाता है, जिसमें लामा लोग पीली टोपी पहनते हैं। कग्युद्पा संप्रदाय भी लाहौली जनजाति के लोगों के लिए आस्था और विश्वास से जुड़ा ज्ञान मूल मंत्र है।

प्रकृति की पूजा करते हैं लाहौली जनजाति के लोग

इसके अलावा लाहौलियों की प्रकृति के साथ अद्भुत जुड़ाव है। नतीजन लाहौली जनजाति के लोग प्रकृति की पूजा भी करते हैं। ’सब्दग’ के रूप में जहां ये पर्वतीय चट्टानों की पूजा करते हैं, वहीं गुफाओं की पूजा यह व्राग्मों के रूप में करते हैं। इनकी परम्परा में पेड़-पौधों को भी सम्मानीय स्थान दिया गया है। फाला एक ऐसा ही पेड़ है, जो लाहौली जनजाति में देवता की तरह पूजा जाता है। इनके अलावा लाहौली जनजाति के लोगों के अपने कुल देवता भी होते हैं। यह कुल देवता इनके घर के किसी कोने में पत्थर या खम्भे के रूप में स्थापित होते हैं। अन्य समाजों की तरह लाहौली जनजाति के लोगों में अपने धर्म की मान्यताएं जीवन का सार्वभौमिक सत्य भी है, और आधार भी।

लाहौली हिन्दू और बौद्ध परंपरा के अनुयायी

लाहौली हिन्दू और बौद्ध परंपरा के अनुयायी

लाहौली हिन्दू और बौद्ध परंपरा के अनुयायी

लाहौली जनजाति समाज में जाति व्यवस्था का प्रचलन पुरातन समय से चला आ रहा है। धार्मिक आस्था के लिहाज से लाहौली हिन्दू और बौद्ध परंपरा के अनुयायी है, और इन्हीं दोनों मान्यताओं के अनुसार यहां जाति व्यवस्था का प्रचलन है। यहां जातियों के वर्गिकरण का आधार वंशावली पद्धति यानी उच्च और निम्न जाति व्यवस्था के आघार पर की गई है। उच्च जाति के ताल्लुक रखने वाले ठाकुर, स्वांगला और ब्राह्मण लोग खान-पान और शादी-विवाह जैसे संबंध अपनी ही जाति में बनाते हैं। इन उच्च जातियों में ब्राह्मण वर्ग केवल पट्टन घाटी तक सीमित है और शेष लाहौल में इनकी उपस्थिति  नाम मात्र की भी नहीं है। पिछड़ी जातियों में वर्गीकरण का निर्धारण उनके पेशे के आधार पर हुआ है। लाहौली जनजाति समाज में लोहार लोगों को ‘डोम्बा’ बुनकरों को ‘बेडा’ और ‘बारारस’। धरकार को ‘वालरस’ कहते हैं। उच्च जनजातियों के खेतों पर मजदूरी करने वाले भूमिहीन मजदूरों को ‘हेस्सी’ का नाम दिया गया है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने लाहौल को  ‘लो-यू-लो’ के नाम से किया था सम्बोधित

लाहौल और स्पीति एक दूसरे से सटी अलग-अलग घाटियों के नाम हैं लेकिन प्रकृति की विविधताओं को बावजूद इनकी धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि काफी हद तक समान है। लाहौल को चीनी यात्री ह्वेनसांग ने ‘लो-यू-लो’ के नाम से सम्बोधित किया था और राहुल सांस्कृत्यायन ने इसे ‘देवताओं का देश’ कह कर पुकारा था। तिब्बती भाषा में लाहौल को ‘दक्षिण देश’ कहा जाता है। लाहौल अगर हरा-भरा है तो इसके एकदम विपरीत बर्फीला रेगिस्तान है स्पीति घाटी। दूर तक निगाहें हरियाली को तरस जाती हैं लेकिन इसके बावजूद इस बर्फीले रेगिस्तान का सौंदर्य नयनाभिराम है।

लाहौल और स्पीति की चार प्रमुख बोलियां

लाहौली और स्पीति में चार प्रमुख बोलियां बोली जाती हैं: ये भोटी, गेहरी, मनचल और चांगसा हैं। प्रत्येक बोली एक-दूसरे से पर्याप्त भिन्न है, परतुं फिर भी सारे प्रदेश में बोली और समझी जाता है। भोटी तिब्बती स्पीति, भागा ओर चंद्रा घाटियों में बोली जाती है। गेहरी केलोंग, मनछत और चांगसा बोलियां चिनाव की घाटी में बोली जाती हैं। केवल भोटी की ही लिपी और व्याकरण है जबकि अन्य तीनों तो मात्र बोलियां हैं। यह मठों में लामाओं द्वारा पढ़ाई जाती है। यह गौरव का विषय है कि यहां के लोग सांस्कृतिक दृष्टि से इतने भिन्न होते हुए भी थोड़ी-बहुत हिंदी समझते हैं। लाहौली जनजाति में अनेक तरह की भाषाओं का चलन है। बौद्ध और हिन्दू संस्कृति के मुहाने पर बसी लाहौल घाटी की जुबान में भी मिली-जुली खुशबु आती है। करीब आधा दर्जन बोलियों के जरिये अपनी बातों को कहने वाले लाहौली जनजाति के लोगों की प्रमुख भाषाएं भोटी और चिनाली या डोम्बाली हैं। भोटी भाषा, पर तिब्बती भाषा का प्रभाव है वहीं चिनाली या डोम्बाली संस्कृत भाषा की उपज लगती है। इन भाषाओं का प्रभाव भी क्षेत्रीय स्तर पर अलग-अलग दिखाई पड़ता है। भोटी भाषा लाहौली की रंगोली और गारा घाटियों में बोली जाति हैं। वैसे इन इलाकों में और बोलियां प्रचलित हैं, जैसे पुनान, हिनान और चिनाली। पट्टन घाटी में मनचाड़ का प्रचलन बहुतायत है।

घरों का निर्माण और इनकी शैली

अपनी परंपरा के अनुसार घर के भीतरी हिस्सों की सजावट

 घरों का निर्माण और इनकी शैली

घरों का निर्माण और इनकी शैली

लाहौल घाटी में घरों का निर्माण और इनकी शैली कालोनी की तरह होती

घरों का निर्माण और इनकी शैली

घरों का निर्माण और इनकी शैली

है। मकानों का समूह, ब्लाक के जैसा होता है, ताकि बर्फबारी के दिनों में लोगों का जुड़ाव एक-दूसरे से बना रहे। लाहौली जनजाति के लोगों के घर तीन मंजिल तक बने होते हैं। घर के भूतल का प्रयोग पशुओं के रहने के लिए किया जाता है और इन्हीं कमरों का प्रयोग पशुओं के चारा रखने के लिए भी किया जाता है। घर की उपरी मंजिल का प्रयोग लाहौली परिवार अपने रहने के लिए करते हैं। उपरी मंजिल पर एक भीतरी कमरा होता है, जिसका प्रयोग जाड़े के दिनों ठंड से बचने के लिए होता है। बौद्ध संप्रदाय को मानने वाले लाहौली लोगों के मकानों के उपरी मंजिल पर इनके पूजा का कमरा होते है, जिसे ’चोखाग’ कहते हैं। लाहौल घाटी के निचले हिस्सों में मकान के निर्माण की शैली लगभग समान होती है, लेकिन इन मकानों में रहने के उपरी घाटी के मकानों की अपेक्षा बड़े, खुले और हवादार होते हैं और इन मकानों में रौशनी के भी बेहतर इंतजाम होते हैं, जो उपरी मंजिल के मकानों में उपरी मंजिल पर बरामदे का होना भी बड़ा जरूरी माना जाता है। इन घरों पर चूने से सफेदी की जाती है और कहीं-कहीं रंगों का प्रयोग भी दिखाई देता है। घर के भीतरी हिस्सों की सजावट लाहौली जनजाति के लोग अपनी परंपरा के अनुसार करते हैं। कमरों की साज-सज्जा में पूजा घर यानी ‘चोखाग’ का विशेष स्थान है। ‘चोखाग’ में बुद्ध के जीवन और दर्शन से संबंधित तमाम पेंटिगों के साथ-साथ थंका पेंटिग की मौजूदगी अवश्य रहती है।

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3 Responses

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  1. विक्रम सिंह शाशनी
    Sep 17, 2015 - 08:13 PM

    लाहुल स्पिति मे बौद्ध धर्म का इतिहास
    लाहुल और स्पिति भारत का एक ऐसा क्षेत्र जिसकी जानकारी बहुत ही कम लोगों को है।“यहां की संस्कृति यहां के लोगों का रहन सहन और यहां के लोगों का धर्म”, इनके बारे मे बहुत कम लोग जानते हैं। मुझे आज अपनी संस्कृति के बारे में लिखने का मौका मिला इसे मैं अपनी खुशकिस्मती मानता हूँ। लाहुल स्पिति ने अनेक उतार चढाव देखे हैं।17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लद्दाखी साम्राज्य से अलग होने के बाद लाहुल कुल्लू के मुखिया के हाथों मे चला गया। सन् 1840 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहुल और कुल्लू को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1846 तक उस पर राज किया। सन् 1846 से 1940 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा। सन् 1941 में लाहुल स्पिति को एक उपतहसील बनाकर कुल्लू उपमंडल से संबद्ध कर दिया गया।1960 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने लाहुल-स्पिति को पूरे जिले का दर्जा प्रदान कर दिया और 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद लाहुल-स्पिति जिले को हिमाचल प्रदेश में मिला लिया गया।
    प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भारत में भोट बौद्ध संस्कृति को सीमावर्ती बौद्धों ने ही सुरक्षित कर रखा है। यहां की संस्कृति का इतिहास हज़ारों साल पुराना है। लाहुल स्पिति, लद्दाख, किन्नौर, सिक्किम,और भुटान, आदि के लोगों की एक ही संस्कृति है। यहां के लोगों ने अनेक कष्टों को सहते हुए अपनी संस्कृति को संभाल कर रखा है। सभी क्षेत्रों की तरह यहां के लोगों का धर्म भी बौद्ध धर्म ही है। हिमाचल प्रदेश में लाहौल स्पिती तथा किन्नौर की संस्कृति एक अत्यन्त श्रेष्ट संस्कृति मानी जा सकती है। क्योंकि यहां की संस्कृति हज़ारों वर्षों पुरानी है। लाहुल तथा स्पिति दो अलग क्षेत्र है। अतः दोनो क्षेत्रों का इतिहास भी भिन्न है।
    लाहुल
    लाहुल भारत के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित विभिन्न सुन्दर घाटियों में से एक अत्यन्त ही सुन्दर घाटी है। इस घाटी को लाहुल कहने के पीछे मान्यता यह है कि यह प्रदेश आदि काल से देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों, और मनुष्यों की मिली जुली जातियों का संगम स्थल रहा है। इसलिए इसका प्रारम्भिक नाम ल्ह युल पड़ा। तिब्बती भाषा मे ल्ह का मतलब देवता तथा युल का मतलब प्रदेश है, अर्थात ल्ह युल का मतलब देवताओं का प्रदेश है। जिसे लोगों द्वारा लाहुल तथा कहा जाने लगा। तिब्बती तथा लद्दाखी लोगों में यह गरजा नाम से प्रसिद्ध है। तथा कुछ लोग इसे करजा भी कहते हैं। गरजा शब्द गर तथा जा दो शब्दों की सन्धि से बना है। भोट भाषा मे गर का अर्थ नृत्य तथा जा का अर्थ कदम है अर्थात कदमों का नृत्य। य़हाँ की सांस्कृतिक नृत्यों मे कदमों का बहुत महत्व है। अत: इस क्षेत्र का नाम गरजा पड़ा। दुसरे शब्दों में करजा भी दो शब्दों के मेल से बना है। कर अर्थात श्वेत तथा जा अर्थात टोपी। कहा जाता है कि प्राचीन काल मे लाहुल की संस्कृति में श्वेत टोपी का प्रचलन था। इसी कारण स्थानीय लोग इसे करजा कहने लगे।
    विद्वानों के अनुसार लाहुल क्षेत्र में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित पुरातत्विक प्रमाण ना के बराबर हैं। वर्तमान काल में त्रिलोकीनाथ मन्दिर के सामने कुछ प्राचीन काल के शिलापट्ट देखे जा सकते हैं। इन शिलापट्टों को देखकर प्रतीत होता है कि कभी वहां पर कोइ विशेष विहार रहा होगा,जहाँ कालान्तर में केवल मन्दिर ही शेष रह गया है। वहीं पर खुदाई के समय शोधकर्ताओं को तल से आर्य अवलोकितेशवर की एक मुर्ति भी प्राप्त हुई थी। तथा विद्वानों के अनुसार विहारों के अवशेष से यह भी प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में भिक्षु यहाँ निवास करते थे। और यहाँ बौद्ध परम्परा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त लाहुल के कुछ अन्य स्थानो में भी बौद्ध धर्म के प्राचीन अवशेष प्राप्त होने के प्रमाण मिलते हैं। जैसे- गन्धोला के विहार का खण्डहर। कुछ विद्वानों के मत्तानुसार यह भी कहा जाता है कि यहाँ कुक्कुट देश के राजा महाकप्पिन ने भगवान बुद्ध से अपने दर्शन स्थली होने के कारण एक स्मारक स्वरुप विहार का निर्माण करवाया तथा बौद्ध भिक्षुऔं को इस स्थान पर रहने के लिए कठिनाई का सामना न करना पड़े इसलिए इस विहार की स्थापना की गई थी। भक्त गण जब भगवान बुद्ध के दर्शन करने जाते तो सुगन्धित पुष्प अर्पित करते थे। अत: सुगन्धित पुष्पों के परम्परा के कारण ही भगवान बुद्ध की कुटी “गन्धकुटी कही जाने लगी। सम्भवत: भगवान बुद्ध की गन्धकुटी ही बोल चाल के प्रभाव के कारण ही पहले गुन्धकुटी और फिर गन्धोला मे परिवर्तित हो गई। कहा जाता है कि इस मठ का निर्माण नवीं शताब्दी में किया गया था। यह विद्वानो का मत है।
    इसके अतिरिक्त और भी कुछ बातें हैं जिनसे लाहुल मे बोद्ध भिक्षुओं के आगमन का पता चलता है। अंग्रेज़ों के समय में गन्धोला के आसपास लोगों को एक पीतल का लोटा मिला था। कहा जाता है कि वह किसी भिक्षु का भिक्षा पात्र था। उस पर अंकित चित्रों के आधार पर विद्वानों ने इसे पहली शताब्दी से लेकर दूसरी शताब्दी बीच का माना है। विद्वानो ने इसे बोद्ध भिक्षुओं का लाहुल के रास्ते तिब्बत की ओर जाने का प्रमाण माना है। कहा जाता है कि ईसा पुर्व कई बोद्ध भिक्षुओं को विभिन्न जगहों पर भेजा गया था। जिनमे से पाँच को हिमवत्त (हिमालय) क्षेत्र की ओर भेजा गया। इसी के आधार पर कहा जाता है कि शायद इन्ही मे से किसी का भिक्षा पात्र वहाँ पर रह गया था। तथा इसे लाहुल मे बोद्ध भिक्षुओं के होने का प्रमाण भी माना जाता है।
    इस प्रकार के अनेक विवरण प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध है। विद्वानों के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों को जानने के तीन स्रोत कहे गए हैं। पुरातत्व, शास्त्र और परम्परा। इन स्रोतों से लाहौल के विभिन्न स्थानों, नदियों, तथा जातियों के बारे मे जो जानकारी प्राप्त होती है, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि इस घाटी में बौद्ध धर्म का प्रवेश ईसा पुर्व से होकर वर्तमान काल तक इसका विस्तार होता रहा है।
    स्पिति
    स्पिति भारत और तिब्बत की सीमा पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है। जो आजकल हिमाचल प्रदेश का अभिन्न अंग है। किन्तु इस प्रदेश की जानकारी बहुत ही कम लोगों को है। शायद यही कारण है कि यहाँ के लोगों ने अपनी संस्कृति और अपने रिति रिवाज़ों को आज तक संभाल कर रखा है। संस्कृति के मामले में स्पिति अभी भी कहीं अधिक समृद्ध क्षेत्र है। स्पिति के इतिहास की बात करे तो पता चलता है कि स्पिति ने भी कई उथल पुथल झेले हैं। कभी तिब्बत के राजाओं के कारण ,कभी लद्दाख के , कभी बुशहर, कभी कुल्लू के राजाओं के आक्रमणों के कारण । परन्तु इसकी संस्कृति पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक झलक से आज भी हमें आकर्षित करता है।
    विद्वानों के अनुसार इस पर सबसे पहले पश्चिमी तिब्बत के राजाओं की नज़र पड़ी। क्य़ोकि आज भी पिन घाटी में बुछेन लामाओं द्वारा तिब्बत के राजा पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया जाता है। यह नाटक तिब्बत के तैंतीसवें राजा सोंगच़ेन गम्पो के जीवन पर आधारित है।ज्यादातर विद्वान उनका शासन काल 617ई0 से 650ई0 तक मानते हैं। जिनके शासन काल मे ही तिब्बत मे बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई थी। विद्वानों के मतानुसार स्पिति मे बौद्ध धर्म की उत्पत्ति तथा प्रसार में आचार्य रत्नभद्र का नाम अविस्मरणिय है। भोट भाषा मे उन्हें लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के नाम से जाना जाता है। अत: स्पिति के इतिहास के बारे मे लिखने से पहले लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के बारे मे थोड़ा विवरण देना आवश्यक है। लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो हंगरंग वादी के सुमरा गांव से थे। जो तब ग्युगे राज्य का एक भाग था। 1937 मे राहुल सांकृत्यायन अपनी यात्रा के दौरान कश्मीर के रास्ते हंगरंग वादी से होकर लद्दाख व स्पिति मे आए थे। उन्होने अपनी यात्राओं के वर्णन मे बताया है कि जब वे तिब्बत से स्पिति आये थे तो किन्नर गावों से होकर लौटे थे।
    स्पिति को गोम्पाओं तथा मठों का देश कहना भी अनुचित नहीं है। जहाँ पर बौद्ध भिक्षु बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं। इनमे से ताबो ,डंखर ,की ,करज़ेग ,ल्हा-लुङ ,गुंगरी आदी प्रमुख हैं। विद्वानों के अनुसार ताबो गोम्पा लोच़ावा रिन्छेन जांगपो द्वारा सन् 996 में देवी देवताओं की कृपा से बनाया गया था। उनकी योजना 108 गोम्पा बनाने की थी किन्तु सुबह होते तक सिर्फ आठ ही बना पाएं। ताबो गोम्पा मे हर साल सितम्बर मे (छम) मुखोटा नाच भी होता है। कहा जाता है कि राजा यिशे होद ने रिन्छेन ज़ांगपो को 21 युवकों के साथ कश्मीर में संस्कृत पढ़ने के लिए भेजा था तथा बौद्ध ग्रन्थों को लाने का कार्य भी दिया था। बिमारी के कारण 19 युवक काल का ग्रास हुए केवल रिन्छेन ज़ांगपो तथा लेग-पई शेरब ही शिक्षा पुर्ण कर अपने देश लौट पाये थे। रिन्छेन ज़ांगपो ने कंग्युर के कई ग्रन्थो का संस्कृत से तिब्बती भाषा मे अनुवाद किया । सन् 1000 मे गुगे राज्य में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान हुआ।
    किद्-दे-ञिमा-गोन के शासनकाल मे स्पिति लद्दाख का एक हिस्सा था। ञिमा-गोन ने अपने राज्य को अपने तीन बेटों के बीच बांट दिया। बड़े लड़के को लद्दाख, दूसरे को गुगे और पुरांग, सबसे छोटे को स्पिति तथा जंस्कर दिया। देचुक गोन जो सबसे छोटा था। उसने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाए। उसने राज्य के कुछ गावों को गोम्पाओं तथा कुछ स्थानीय लोगों को बांट दिया। दक्षिणी स्पिति पर कई वर्षो तक गुगे राजाओं का राज रहा। विद्वानों ने गोन वंश के राजाओं का भी वर्णन किया है। इनमे प्रमुख किद्-दे-ञिमा-गोन का वर्णन मिलता है। यह राजा लङ-दरमा का पोता था। इसके बाद लद्दाख और ल्हासा की लड़ाई का भी स्पिति की संस्कृति पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसके बाद कुल्लू के राजा मानसिंह ने स्पिती पर कब्ज़ा किया तथा स्पिति को कुल्लू राज्य मे सम्मिलित किया गया। सन् 1941 मे लाहौल के साथ मिलाकर इसे उपतहसील का दर्जा दिया गया।

    Reply
  2. विक्रम सिंह शाशनी
    Sep 17, 2015 - 08:21 PM

    मै बनारस तिब्बती विश्व विद्यालय मे अध्ययनरत छात्र हूंँ , मुझे यह जानकर अतयन्त गर्व महसूस हो रहा है कि मेै आज भी ऐसे धर्म तथा ऐसे समाज का हिस्सा हूँ.

    Reply
  3. ashish mishra
    Aug 17, 2016 - 02:23 AM

    mujhe bhi aj bahut harsh ho rha hai yah jankar ki hamari sanskriti ko kitna acche tareeke se dekhbhal karte hai ham log mai abhi banaras hindu university se addyan kar rha hu

    Reply

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