राजस्थान का कोटा दशहरा
राजस्थान के कोटा को भीलों ने बसाया है। यहां के दशहरा मेला में भील अपना जीवनसाथी तलाशते हैं। मेले के पहले तीन दिन भील युवक अपनी पंसद की लड़की देखकर अपने मां-बाप से रजामंदी लेकर रिश्ता भिजवाते हैं। कई लड़कियों के माता-पिता भी अपनी बेटी के लिए दुल्हा तलाशने यहां आते हैं। अष्टमी के दिन कुल देवी आशापुरा का पूजन करते हैं। विजयादशमी के दिन रावण का वध कर सवारी निकाली जाती है।
कर्नाटक का मैसूर दशहरा
कर्नाटक के मैसूर का दशहरा पूरे भारत में मशहूर है। मैसूर में दशहरे पर पूरे शहर को रोशनी से सजाया जाता है। हाथियों को सजा कर शहर में भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस दौरान मैसूर महल को सजावट देखते ही बनती है। 600 साल पहले वाड्यार राजाओं के समय से शुरू दशहरा परंपरा को आज भी पूरे राजसी ठाठ-बाट से मनाया जाता है। 10 दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण सिंहासन दिखाया जाता है। हर साल यहां दशहरा देखने के लिए हजारों विदेशी टूरिस्ट आते हैं। कर्नाटक में मैसूर का दशहरा विशेष उल्लेखनीय है। मैसूर में दशहरे के समय पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीप मालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं। यहां एक बात आपको बता दें कि इन द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।
कर्नाटक के मैसूर का दशहरा पूरे भारत में मशहूर
मध्य प्रदेश का मंदसौर दशहरा
मध्य प्रदेश के मंदसौर में रावण बुराई का प्रतीक जरूर है लेकिन यहां रावण को जलाने की बजाय उसकी पूजा करने की परंपरा है। कहा जाता है कि मंदसौर रावण का ससुराल है इसलिए लोग उसे दामाद की तरह पूजते हैं। इलाके की महिलाएं रावण की 35 फीट ऊंची मूर्ति के सामने से गुजरते वक्त घूंघट भी करती हैं।
पंजाब का दशहरा
पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं और मैदानों में मेले लगते हैं।
बस्तर का दशहरा
बस्तर में दशहरे के मुख्य कारण को ‘राम की रावण पर विजय’ ना मानकर, लोग इसे मां दंतेश्वरी की आराधना को समर्पित एक पर्व मानते हैं। दंतेश्वरी माता बस्तर अंचल के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही रूप हैं। यहां का दशहरा श्रावण मास की अमावस से अश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। प्रथम दिन देवी से समारोह आरंभ करने की अनुमति ली जाती है। देवी एक कांटों की सेज पर विराजमान होती हैं। यह कन्या एक अनुसूचित जाति की है, जिससे बस्तर के राजपरिवार के व्यक्ति अनुमति लेते हैं। माना जाता है कि यह समारोह लगभग पंद्रहवीं शताब्दी से शुरू हुआ था।
बंगाल, उड़ीसा और असम में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है। यह बंगालियों, उड़ीसा और असम के लोगों का सबसे महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व पूरे बंगाल में पांच दिनों के लिए मनाया जाता है। उड़ीसा और असम में चार दिन तक त्योहार चलता है। यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों में विराजमान करते हैं देश के नामी कलाकारों को बुलवाकर दुर्गा की मूर्ति तैयार करवाई जाती हैं। इसके साथ अन्य देवी देवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं। त्योहार के दौरान शहर में छोटे मोटे स्टॉल भी मिठाईयों से भरे रहते हैं। यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है। उसके उपरांत सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा की पूजा में व्यतीत होते हैं। अष्टमी के दिन महा पूजा और बलि भी दी जाती है। दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। पुरुष आपस में गले मिलते हैं। स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं और साथ ही आपस में सिंदूर भी लगाती हैं। इस दिन यहां नीलकंठ पक्षी को देखना बहुत ही शुभ माना जाता है। इसके बाद देवी की प्रतिमाओं को विसर्जित किया जाता है।