वीरू राणा/पांगी: जिला चंबा के जनजातीय क्षेत्र पांगी में हर साल मनाये जाने वाले जुकारू उत्सव इस वर्ष भी दो फरवरी से समूचे पांगी घाटी में मनाया जा रहा है। इस त्यौहार को घाटी की सांस्कृतिक पहचान और शान कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस त्यौहार पर घाटी की परंपरा कायम है जिसको तीन चरण में मनाया जाता है। सिलह,पड़ीद,मांगल यह त्यौहार फागुन मास की अमावस को मनाया जाता है। इस त्यौहार की कई दिनों पहले ही लोग इसकी तैयारियां करना शुरू कर देते हैं, घरों को सजाया जाता है। घर के अंदर लिखावट के माध्यम से लोक शैली को रेखांकित किया जाता है। विशेष पकवान ह्यमंण्डेह्ण के अतिरिक्त सामान्य पकवान के बनाए जाते हैं।
रात को बलिराजा के चित्र की पूजा की जाती है
सिलह त्योहार के दिन घरों में लिखावट की जाती है बलिराज के चित्र बनाए जाते हैं दिन में मंण्डे आदि बनाए जाते हैं। रात को बलिराजा के चित्र की पूजा की जाती है तथा दिन में पकाया सारा पकवान तथा एक दीपक राजा बलि के चित्र के सामने रखा जाता है। रात को चरखा कातना भी बंद कर दिया जाता है सब लोग जल्दी सो जाते हैं। एक दंतकथा कथा के अनुसार भगवान विष्णु के परम भक्त प्रह्लाद के पोते राजा बलि ने अपने पराक्रम से तीनों लोगों को जीत लिया तो भगवान विष्णु को वामन अवतार धारण करना पड़ा। राजा बलि ने वामन अवतार भगवान विष्णु को तीनो लोक दान में दे दिए। इससे प्रसन्न होकर विष्णु ने राजा बलि को वरदान दिया कि भूलोक में वर्ष में एक दिन उसकी पूजा होगी इसी परंपरा को घाटी के लोग राजा बलिदानों की पूजा करते आ रहे हैं। दूसरा दिन पडीद का होता है प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठकर लोग स्नानादि करके राजा बलि के समक्ष नतमस्तक होते हैं। इसके पश्चात घर के छोटे सदस्य बड़े सदस्यों के चरण वंदना करते हैं। बड़े उन्हें आशीर्वाद देते हैं राजा बलि के लिए पनघट से जल लाया जाता है लोग जल देवता की पूजा भी करते हैं। इस दिन घर का मुखिया ‘चूर’ की पूजा भी करता है क्योंकि वह खेत में हल जोतने के काम आता है। ह्यपडीदह्ण की सुबह होते ही ‘जुकारू’ आरंभ होता है जुकारू का अर्थ बड़ों के आदर से है। लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं इस त्यौहार का एक अन्य अर्थ यह है कि सर्दी तथा बर्फ के कारण लोग अपने घरों में बंद थे इसके बाद सर्दी काम होने लग जाती है लोग इस दिन एक दूसरे के गले मिलते हैं तथा कहते हैं तकडा’ ‘थिया’ न और जाने के समय कहते हैं मठे’ ‘मठे’ विश। लोग सबसे पहले अपने बड़े भाई के पास जाते हैं उसके बाद अन्य संबंधियों के पास जाते है। तीसरा दिन मांगल या ह्यपन्हेईह्ण के रूप में मनाया जाता है ‘पन्हेई’ किलाड़ परगने में मनाई जाती है जबकि साच परगना में ‘मांगल’ मनाई जाती है।
‘मांगल’ तथा ‘पन्हेई’ में कोई विशेष अंतर नहीं होता मात्र नाम की ही भिन्नता
‘मांगल’ तथा ‘पन्हेई’ में कोई विशेष अंतर नहीं होता मात्र नाम की ही भिन्नता है। मनाने का उद्देश्य एवं विधि एक जैसी ही है फर्क सिर्फ इतना है कि साच परगने मे मांगल जुकारू के तीसरे दिन मनाई जाती है तथा पन्हेई किलाड़ परगने में पांचवें दिन मनाई जाती है। मांगल तथा पन्हेई के दिन लोग भूमि पूजन के लिए निर्धारित स्थान पर इकट्ठा होते हैं इस दिन प्रत्येक घर से सत्तू घी शहद ह्यमंण्डेह्ण आटे के बकरे तथा जौ, गेहूं आदि का बीज लाया जाता है। कहीं-कहीं शराब भी लाई जाती है अपने अपने घरों से लाई गई इस पूजन सामग्री को आपस में बांटा जाता है भूमि पूजन किया जाता है कहीं-कहीं नाच गान भी किया जाता है इस त्यौहार के बाद पंगवाल लोग अपने खेतों में काम करना शुरू कर देते हैं। इस मेले को ‘उवान’ ‘ईवान’ आदि नामों से भी जाना जाता है यह मेला कि किलाड़ तथा धरवास पंचायत में तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन मेला राजा के निमित दूसरे दिन प्रजा के लिए मनाया जाता है और तीसरा दिन नाग देवता के लिए मनाया जाता है, यह मेला माघ और फागुन मास में मनाया जाता है। उवान के दौरान स्वांग नृत्य भी होता है इस दिन नाग देवता के कारदार को स्वांग बनाया जाता है लंबी लंबी दाढ़ी मूछ पर मुकुट पहने सिर पर लंबी-लंबी जटाएं हाथ में कटार लिए स्वांग को मेले में लाया जाता है दिन भर नृत्य के बाद स्वांग को उसके घर पहुंचाया जाता है इसी के साथ ईवान मेला समाप्त हो जाता है।