शिमला की खूबसूरत पहाड़ी पर “माँ तारादेवी” का शक्तिपीठ धाम

शिमला की खूबसूरत पहाड़ी पर माँ तारादेवी का त्रिगुणात्मक शक्तिपीठ धाम स्थित है। जहाँ श्रद्धालु दूर-दूर से माँ के चरणों में शीश नवाने पहुंचते हैं।  पहाडियों पर बसा यह मंदिर लोगों के आकर्षण का केंद्र है तो वहीं आस्था और श्रद्धा का महत्वपूर्ण प्रतीक है। माता के मन्दिर से चारों और कुदरत के ऐसे  विहंगम दृश्य दिखाई देते हैं कि यहाँ आने वाला हर श्रद्धालू माँ की भक्ति और प्रकृति की अद्भूत नजारों में कुछ देर के लिए दुनिया से दूर हो जाता है और अपार शांति का अनभुव करता है।

माँ तारादेवी मन्दिर का इतिहास

माँ तारादेवी मन्दिर का इतिहास

माँ तारादेवी मन्दिर का इतिहास

शिमला के निकट बना ऐतिहासिक तारादेवी मन्दिर देश के ऐसे स्थलों में शामिल है जिसे भारत के देवी स्थानों में अत्यन्त महत्व प्राप्त है। वस्तुतः भगवती तारा क्योंथल राज्य के सेन वंशीय राजाओं की कुलदेवी हैं। क्योंथल रियासत की स्थापना राजा गिरिसेन ने की थी। इसलिए संक्षेप में सेन राजवंश का इतिहास जानना भी आवश्यक है। मध्यकालीन भारत में छोटे-छोटे राज्य हुआ करते थे। उत्तरी भारत में अनेक राजपूत रियासतें थीं जिनमें दिल्ली में तोमर, अजमेर में चौहान, कन्नौज में राठौर, बुन्देलखण्ड में चन्देल, मालवा में परमार, गुजरात में चालुक्य, मेवाड़ में सिसोदिया, बिहार में पाल तथा बंगाल में सेन राजवंश प्रमुख थे। महमूद गज़नवी के बाद शहबद्दीन मुहम्मद गौरी ने भारत पर बार-बार आक्रमण किए। वह कट्टर मुसलमान था और भारत में मूर्तिपूजा का नाश करना तथा मुस्लिम राज्य की स्थापना करना अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझता था। वह राजाओं की शक्ति को नष्ट-भ्रष्ट करना चाहता था। उसके एक सेनानायक मुहम्मद-बिन-बख़तियार खिलजी ने जब बंगाल की राजधानी नदिया पर आक्रमण किया तो वहां के तत्कालीन सेन राजवंशीय राजा लक्ष्मणसेन को लाचार होकर अपना राज्य छोड़ना पड़ा और वे राजपरिवार सहित ढाका की ओर विक्रमपुर चले गए। कहा जाता है कि उन्हें उनेक राजज्योतिषी ने पहले ही यह बता दिया था कि वे किसी भी प्रकार से तुर्क आक्रमणकारियों का सामना नहीं कर पाएंगें। कालान्तर में उनके प्रपौत्र राजा रूपसेन को भी विक्रमपुर छोड़ना पड़ा और वे पंजाब प्रान्त के रोपड़ में आकर बस गए। मुसलमान आक्रमणकारियों से वहां भी उन्हें युद्ध लड़ने के लिए विवश होना पड़ा। अंत में उनके तीनों पुत्र पर्वतीय क्षेत्रों की ओर चल पड़े, जिनमें से वीरसेन ने सुकेत, गिरिसेन ने क्योंथल तथा हमीरसेन ने किश्तवाड़ की ओर प्रस्थान किया।

Pages: 1 2 3

सम्बंधित समाचार

अपने सुझाव दें

Your email address will not be published. Required fields are marked *