संवाद देवों से...गूर का जीवन और कैसे बनते हैं गूर?

संवाद देवों से…गूर का जीवन और कैसे बनते हैं गूर?

स्वर्ग की कल्पना एक ऊंचे स्थान पर की गई है। पुराणों में वर्णित शिवपुरी, कुबेरपुरी, इंद्रलोक, विष्णुलोक आदि सभी लोक एक ऊंचे स्थान पर थे। यह ऊंचा स्थान और नहीं हिमालय ही था। यहां ऋषि-मुनि भी तपस्या के लिए आए। पर्वत अनादि काल से देवताओं से जुड़े हैं। हिमाचल की ऊंचाईयों में देवताओं का वास माना जाता है। शिव तो पर्वतवासी हैं ही, ब्रह्मा, विष्णु, अनेकानेक ऋषि-मुनि, नाग-सिद्धि भी पर्वत कंदराओं में बसे। आज भी हिमाचल के ऊपरी भागों-कुल्लू, किन्नौर, मण्डी, महासू, भरमौर-सिरमौर तथा उत्तर प्रदेश से लगते शिखरों तथा घाटियों में स्थान-स्थान पर देवताओं का वास है। हर वन पर्वत, ग्राम में देवता विराजमान हैं।

अधिकांश मन्दिरों में कोई मूर्ति नहीं होती। न ही विधिवत् प्रतिदिन पूजा होती है। मन्दिर में या मन्दिर के साथ भण्डारे में देवता के मोहरे (मास्क) रखे जाते हैं। उत्सव के दिन इन मोहरों के साथ देवता का रथ या पालकी सजाई जाती है, जिसे दो या चार आदमी उठाते हैं। यही जीवंत देवता है। ग्राम देवता के प्रमुख कर्मचारियों में कारदार, भण्डारी और गूर-ये तीनों प्रमुख हैं। कारदार देवता व उसके उत्सवों, धार्मिक कृत्यों की प्रबंध व्यवस्था करता है। भण्डारी एक प्रकार से कोषाध्यक्ष है। देवता की सामग्री जैसे मोहरे, सोना, चांदी व अन्य वस्तुएं रखता है। गूर ऐसा एक समर्थ कर्मचारी है जो देवता का प्रवक्ता है।

बहुत आश्चर्यजनक और रोमांचक हैं इन देवताओं की कहानियां। ये देवता पत्थर या धातु की मूर्तियां मात्र नहीं, अपितु ये मनुष्यों से बात करते हैं। रूठते हैं, मनते हैं। रूष्ट-प्रसन्न होते हैं। अपने जन्मदिन मनाते हैं। उत्सव मनाते हैं। एक देवता दूसरे से मिलने आता है। एक के उत्सव में दूसरा आमंत्रण पाने पर भाग लेता है। सभी ग्रामीण देवता की प्रजा हैं। वह राजा है। स्वामी है। प्रजा के लिए देवता ही पालक है। संहारक भी वही है। वही न्याय करता है, दण्ड देता है। आशीर्वाद भी वही देता है। अपनी प्रजा को देवता ही भावी विपत्तियों के प्रति आगाह करता है। सुखमय भविष्य की ओर जाने की राह बताता है।

इस सारे संवाद के बीच की कड़ी है गूर। गूर के बिना देवता गूंगा है। वास्तव में गूर ही देवता का इहलौकिक प्रतीत है। उसी के माध्यम से देवता मनुष्यों से जुड़ा है। वह देवता और मनुष्य के बीच की कड़ी है। वही देवस्वरूप होकर मनुष्यों से वार्तालाप करता है। भविष्यवाणी करता है, रोष-हर्ष प्रकट करता है। गूर के बिना देवता की कोई कार्रवाई संभव नहीं।

  • कैसे बनते हैं गूर?

गूर बनने के लिए कई परीक्षाओं से गुजरना होता है। प्राय: जिस व्यक्ति के उभरने (देव प्रवेश) पर सिर की टोपी गिर जाए, वह गूर माना जाता है। किन्तु यह आवश्यक नहीं होता कि जिसक टोपी गिर

कैसे बनते हैं गूर?

कैसे बनते हैं गूर?

जाए या जो अपनी टोपी उस समय गिर जाने दे (क्योंकि गूर के अलावा अन्य व्यक्ति उभरने पर अपनी टोपी हाथ से थामे रखते हैं) जो वह अवश्य ही गूर बन जाएगा। अलबत्ता उसमें गूर बनने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। कई बार वह गूर नहीं भी बनता। गूर घोषित होने के लिए पहाड़ की चोटी से एक जड़ी बैठल लानी होती है। इसी जड़ी से देवता को धूपित किया जाता है। इसे पवित्र माना जाता है और लोहे से काटा नहीं जाता। घरों में भी इस जड़ी को रखना और धूपित करना अच्छा माना जाता है। देवता को धूपित करने के लिए उसे लोग नवरात्रों में लाते हैं।

जो व्यक्ति उभर कर यह जड़ी जोत से ले आए, उसे असली गूर मान लिया जाता है। देवता के प्रवेश पर उन्मत गूर भागता हुआ पहाड़ की चोटियों पर चढ़ जाता है जहां बैठल होती है। बैठल लेकर वह उसी जोश की स्थिति में वापस आता है।

कुल्लू से ऊपर एक अन्य देवता जमलू के यहां गूर बनने की प्रथा कुछ भिन्न है। गूर बनने को आया पुरूष उभरने पर अपनी टोपी उतार फेंकता है। ऐसी स्थिजि में उसे कुछ लोग पकड़ लेते हैं, क्योंकि वह आपे में नहीं रहता। उसे पकडक़र देवता के पास ले जाया जाता है। देवता के सभी कर्मचारी उपस्थित हो जाते हैं और अच्छा खासा समारोह बंध जाता है। गूर कुछ बोलता नहीं।

कई बार गूर बनने को आया आदमी दूरस्थ स्थानों में उभर जाता है। मलाणावासी अपनी भेड़ें रामपुर की ओर लाते हैं। रामपुर में एक आदमी ऊभर पड़ा और उसका उभरना बंद न हुआ। बिना कुछ खाए-पिए वह मलाणा पहुंचा और विधिवत् गूर बना। मूल माहूंनाग बखारी (मण्डी) के गूर बनने को आए व्यक्ति को एक निश्चित जगह में सतलुज में छलांग लगानी पड़ी।

  • गूर का जीवन : एक पराया जीवन

गूर का पद पैतृक

गूर का पद पैतृक

गूर बनने पर उसका जीवन अपना जीवन नहीं रहता वह देवता को समर्पित हो जाता है। गूर के जीवन में कई तरह की वर्जनाएं हैं। उसे नियमित व प्रतिबंधित जीवन जीना पड़ता है। अधिकतर देवता के गूर सिगरेट, तंबाकू नहीं पीते। गूर को लम्बे बाल रखने होते हैं। पांव में जूता नहीं डालना होता। यहां तक कि कइयों को हल पकडऩा भी वर्जित है। देवता के क्रियाकलापों में उसे चोला कमर में लपेटे, बाल बिखराए नंगा होना पड़ता है। गूर बनने से पूर्व उसे कई अगिन-परीक्षाओं से गुजरना होता है। देवता के उत्सव के समय गूर को नंगे पांव, नंगे बदन बर्फ में नाचना पड़ता है। उत्सव के समय पगड़ी पहने लम्बी जटाएं धारण किए गूर को अलग पहचाना जा सकता है। एक देवता के एक से अधिक गूर भी होते हैं।

देवता के वार्षिक उत्सव में गूर देवता की कथा सुनाता है जिसे बर्शोहा या भारथा कहा जाता है। इसमें देवता के घाटी में आगमन, अलौकिक तथा चमत्कारी कृत्यों का वर्णन रहता है। इसके साथ ही अगामी वर्ष के बारे में भविष्यवाणी की जाती है। वर्षा-अकाल, रोग-महामारी, सुख-समृद्धि के बारे में बताया जाता है। लोग अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का हल भी पूछते हैं।

गूर-खेल या आवेश में आने के समय गूर अजीब-अजीब हरकतें करते हैं जो सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। वे आवेश में आकर थर-थर कांपते हैं। गर्म खून पीते हैं। जो वस्तु खाई नहीं जा सकती, उसे खाते हैं। पांगणा (मण्डी) में गूर आवेश में आने पर जौ खाते हैं। कुछ थुहर (एक प्रकार का कैक्टस) कच्चा चबा जाता है।

  • गूर का पद पैतृक

प्राय: गूर का पद पैतृक होता है। किन्तु यह आवश्यक भी नहीं है। गांव में कोई व्यक्ति जिस पर देवता की कृपा हो, गूर बन जाता है। प्राय: गूर अपने पुत्रों को गूर न बनने की नेक सलाह देते हैं। अब जबकि देवता में लोगों की श्रद्धा कम होती जा रही है, गूर का जीवन सम्मानजनक नहीं रहा, साथ ही अनेक प्रतिबंध भी लग गए हैं। गूर दुर्लभ होते जा रहे हैं।

साभार : हिमाचल, सुदर्शन वशिष्ठ

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