जागो ग्राहक जागो
बढ़ते बाज़ारवाद के दौर में उपभोक्ता संस्कृति तो देखने को मिल रही है, लेकिन उपभोक्ताओं में जागरूकता की कमी है। आज हर व्यक्ति उपभोक्ता है, चाहे वह कोई वस्तु खरीद रहा हो या फिर किसी सेवा को प्राप्त कर रहा हो। दरअसल मुनाफाखोरी ने उपभोक्ताओं के लिए कई तरह की परेशानियां पैदा कर दी हैं। वस्तुओं में मिलावट और निम्न गुणवत्ता की वजह से जहां उन्हें परेशानी होती है वहीं सेवाओं में व्यवधान या पर्याप्त सेवा न मिलने से भी उन्हें दिक्क़तों का सामना करना पडता है। भारत में 24 दिसंबर राष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि उपभोक्ताओं को शोषण से बचाने के लिए 24 दिसंबर, 1986 को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-1986 लागू किया गया। इसके अलावा 15 मार्च को देश में विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस के तौर पर मनाया जाता है। भारत में इसकी शुरुआत 2000 से हुई।
गौरतलब है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-1986 में उत्पाद और सेवाएं शामिल हैं। उत्पाद वे होते हैं जिनका निर्माण या उत्पादन किया जाता है और जिन्हें थोक विक्रेताओं या खुदरा व्यापारियों द्वारा उपभोक्ताओं को बेचा जाता है। सेवाओं में परिवहन, टेलीफोन, बिजली, निर्माण, बैंकिंग, बीमा, चिकित्सा-उपचार आदि शामिल हैं। आम तौर पर ये सेवाएं पेशेवर लोगों द्वारा प्रदान की जाती हैं जैसे चिकित्सक, इंजीनियर, वास्तुकार, वकील आदि। इस अधिनियम के कई उद्देश्य हैं, जिनमें उपभोक्ताओं के हितों और अधिकारों की सुरक्षा, उपभोक्ता संरक्षण परिषदों एवं उपभोक्ता विवाद निपटान अभिकरणों की स्थापना शामिल है। इसी विषय पर इस बार हमें जानकारी दे रहे हैं हमारी कानून व्यवस्था कॉलम के लिए शिमला के अधिवक्ता रोहन सिंह चौहान।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में यह स्पष्ट किया गया है कि उपभोक्ता कौन है तथा इस क़ानून के दायरे में किन-किन सेवाओं को लाया जा सकता है। इस अधिनियम के प्रावधानों के मुताबिक, किसी भी वस्तु को कीमत देकर प्राप्त करने वाला या निर्धारित राशि का भुगतान कर किसी प्रकार की सेवा प्राप्त करने वाला व्यक्ति उपभोक्ता है। अगर उसे खरीदी गई वस्तु या सेवा में कोई कमी नज़र आती है तो वह ज़िला उपभोक्ता फोरम की मदद ले सकता है। इस अधिनियम की धारा-2 (1) (डी) के अनुबंध (2) के मुताबिक, उपभोक्ता का आशय उस व्यक्ति से है, जो किन्हीं सेवाओं को शुल्क की एवज में प्राप्त करता है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने 1997 के अपने एक फैसले में कहा कि इस परिभाषा में वे व्यक्ति भी शामिल हो सकते हैं, जो इन सेवाओं से लाभान्वित हो रहे हों।
1986 से पहले उपभोक्ताओं को दीवानी अदालतों के चक्कर लगाने पडते थे। इसमें समय के साथ-साथ धन भी ज़्यादा खर्च होता था। इसके अलावा उपभोक्ताओं को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पडता था। इस समस्या से निपटने और उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के लिए संसद ने ज़िला स्तर, राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर विवाद पारितोष अभिकरणों की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया। यह जम्मू-कश्मीर के अलावा पूरे देश में लागू है। जम्मू-कश्मीर ने इस संबंध में अपना अलग कानून बना रखा है। इस अधिनियम के तहत तीन स्तरों पर अभिकरणों की स्थापना की गई है, ज़िला स्तर पर ज़िला मंच, राज्य स्तर पर राज्य आयोग और राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आयोग। अब उपभोक्ताओं को वकील नियुक्त करने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें अदालत की फीस भी नहीं देनी पड़ती। इन अभिकरणों द्वारा उपभोक्ता का परिवाद निपटाने की सेवा पूरी तरह नि:शुल्क है। इन तीनों अभिकरणों को दो प्रकार के अधिकार हासिल हैं। पहला धन संबंधी अधिकार और दूसरा क्षेत्रीय अधिकार। ज़िला मंच में 20 लाख रुपये तक के वाद लाए जा सकते हैं। राज्य आयोग में 20 लाख से एक करो़ड रुपये तक के मामलों का निपटारा किया जा सकता है, जबकि राष्ट्रीय आयोग में एक करो़ड रुपये से ज़्यादा के मामलों की शिकायत दर्ज कराई जा सकती है। यह धन संबंधी अधिकार है। जिस ज़िले में विरोधी पक्ष अपना कारोबार चलाता है या उसका ब्रांच ऑफिस है या वहां कार्य कर रहा है तो वहां के मंच में शिकायती पत्र दिया जा सकता है। इसे क्षेत्रीय अधिकार कहते हैं।
उपभोक्ता को वस्तु और सेवा के बारे में एक शिकायत देनी होती है, जो लिखित रूप में किसी भी अभिकरण में दी जा सकती है। मान लीजिए ज़िला मंच को शिकायत दी गई। शिकायत पत्र देने के 21 दिनों के भीतर ज़िला मंच विरोधी पक्ष को नोटिस जारी करेगा कि वह 30 दिनों में अपना पक्ष रखे। उसे 15 दिन अतिरिक्त दिए जा सकते हैं। ज़िला मंच वस्तु का नमूना प्रयोगशाला में भेजता है। इसकी फीस उपभोक्ता से ली जाती है। प्रयोगशाला 45 दिनों के अंदर अपनी रिपोर्ट भेजेगी। अगर रिपोर्ट में वस्तु की गुणवत्ता में कमी साबित हो गई तो ज़िला मंच विरोधी पक्ष को आदेश देगा कि वह माल की त्रुटि दूर करे, वस्तु को बदले या क़ीमत वापस करे या नुक़सान की भरपाई करे, अनुचित व्यापार बंद करे और शिकायतकर्ता को पर्याप्त खर्च दे आदि। अगर शिकायतकर्ता ज़िला मंच के फैसले से खुश नहीं है तो वह अपील के लिए निर्धारित शर्तें पूरी करके राज्य आयोग और राज्य आयोग के फैसले के खिला़फ राष्ट्रीय आयोग में अपील कर सकता है। इन तीनों ही अभिकरणों में दोनों पक्षों को अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है। मंच या आयोग का आदेश न मानने पर दोषी को एक माह से लेकर तीन साल की क़ैद या 10 हज़ार रुपये तक का जुर्माना अथवा दोनों सज़ाएं हो सकती हैं।
कुछ ही बरसों में इस क़ानून ने उपभोक्ताओं की समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण किरदार निभाया। इसके ज़रिये लोगों को शोषण के खिला़फ आवाज़ बुलंद करने का साधन मिल गया। इसमें 1989, 1993 और 2002 में संशोधन किए गए जिन्हें 15 मार्च, 2003 को लागू किया गया। संशोधनों में राष्ट्रीय आयोग और राज्यों के आयोगों की पीठ का सृजन, सर्किट पीठ का आयोजन, शिकायतों की प्रविष्टि, सूचनाएं जारी करना, शिकायतों के निपटान के लिए समय सीमा का निर्धारण, भूमि राजस्व के लिए बकाया राशियों के समान प्रमाणपत्र मामलों के माध्यम से निपटान अभिकरण द्वारा मुआवज़े की वसूली का आदेश दिया जाना, निपटान अभिकरण द्वारा अंतरिम आदेश जारी करने का प्रावधान, ज़िला स्तर पर उपभोक्ता संरक्षण परिषद की स्थापना, ज़िला स्तर पर निपटान अभिकरण के संदर्भ में दंडात्मक न्याय क्षेत्र में संशोधन और नकली सामान/निम्न स्तर की सेवाओं के समावेश को अनुचित व्यापार प्रथाओं के रूप में लेना आदि शामिल हैं। उपभोक्ता संरक्षण (संशोधन) अधिनियम-2002 के बाद राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निपटान आयोग ने उपभोक्ता संरक्षण विनियम-2005 तैयार किया।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम ने उपभोक्ताओं को अधिकार दिया है कि वे अपने हक के लिए आवाज़ उठाएं। इसी कानून का नतीजा है कि अब उपभोक्ता जागरूक हो रहे हैं। इस कानून से पहले उपभोक्ता बडी कंपनियों के खिला़फ बोलने से गुरेज़ करता था लेकिन अब ऐसा नहीं है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम ने उपभोक्ता समूहों को प्रोत्साहित करने का काम किया है। इस कानून से पहले जहां देश में सिर्फ 60 उपभोक्ता समूह थे, वहीं अब उनकी तादाद हज़ारों में है। उन उपभोक्ता समूहों ने स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ताओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई है। सरकार ने उपभोक्ता समूहों को आर्थिक सहयोग मुहैया कराने के साथ-साथ अन्य कई तरह की सुविधाएं भी दी हैं। टोल फ्री राष्ट्रीय उपभोक्ता हेल्पलाइन उपभोक्ताओं के लिए वरदान बनी है। देश भर के उपभोक्ता टोल फ्री नंबर 1800-11-14000 डायल कर अपनी समस्याओं के समाधान के लिए परामर्श ले सकते हैं। उपभोक्ताओं को जागरूक करने के लिए सरकार द्वारा शुरू की गई ‘जागो ग्राहक जागो’ जैसी मुहिम से भी आम लोगों को उनके अधिकारों के बारे में पता चला है।
उपभोक्ताओं की परेशानियां
सेहत के लिए नुकसानदेह पदार्थ मिलाकर व्यापारियों द्वारा खाद्य पदार्थों में मिलावट
करना या कुछ ऐसे पदार्थ निकाल लेना, जिनके कम होने से पदार्थ की गुणवत्ता पर विपरीत असर पडता है, जैसे दूध से क्रीम निकाल कर बेचना। टेलीविजन और पत्र-पत्रिकाओं में गुमराह करने वाले विज्ञापनों के ज़रिये वस्तुओं तथा सेवाओं का ग्राहकों की मांग को प्रभावित करना। वस्तुओं की पैकिंग पर दी गई जानकारी से अलग सामग्री पैकेट के भीतर रखना। बिक्री के बाद सेवाओं को अनुचित रूप से देना। दोषयुक्त वस्तुओं की आपूर्ति करना। कीमत में छुपे हुए तथ्य शामिल होना। उत्पाद पर गलत या छुपी हुई दरें लिखना। वस्तुओं के वज़न और मापन में झूठे या निम्न स्तर के साधन इस्तेमाल करना। थोक मात्रा में आपूर्ति करने पर वस्तुओं की गुणवत्ता में गिरावट आना। अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) का गलत तौर पर निर्धारण करना। एमआरपी से ज़्यादा कीमत पर बेचना। दवाओं आदि जैसे अनिवार्य उत्पादों की अनाधिकृत बिक्री उनकी समापन तिथि के बाद करना। कमज़ोर उपभोक्ताएं सेवाएं, जिसके कारण उपभोक्ता को परेशानी हो। बिक्री और सेवाओं की शर्तों और निबंधनों का पालन न करना। उत्पाद के बारे में झूठी या अधूरी जानकारी देना। गारंटी या वारंटी आदि को पूरा न करना।
उपभोक्ताओं के अधिकार
जीवन एवं संपत्ति के लिए हानिकारक सामान और सेवाओं के विपणन के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार। सामान अथवा सेवाओं की गुणवत्ता, मात्रा, क्षमता, शुद्धता, स्तर और मूल्य, जैसा भी मामला हो, के बारे में जानकारी का अधिकार, ताकि उपभोक्ताओं को अनुचित व्यापार पद्धतियों से बचाया जा सके। जहां तक संभव हो उचित मूल्यों पर विभिन्न प्रकार के सामान तथा सेवाओं तक पहुंच का आश्वासन। उपभोक्ताओं के हितों पर विचार करने के लिए बनाए गए विभिन्न मंचों पर प्रतिनिधित्व का अधिकार। अनुचित व्यापार पद्धतियों या उपभोक्ताओं के शोषण के विरुद्ध निपटान का अधिकार। सूचना संपन्न उपभोक्ता बनने के लिए ज्ञान और कौशल प्राप्त करने का अधिकार। अपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाने का अधिकार।
माप-तोल के नियम
हर बाट पर निरीक्षक की मुहर होनी चाहिए। एक साल की अवधि में मुहर का सत्यापन ज़रूरी है। पत्थर, धातुओं आदि के टुकडों का बाट के तौर पर इस्तेमाल नहीं हो सकता। फेरी वालों के अलावा किसी अन्य को तराज़ू हाथ में पकड कर तोलने की अनुमति नहीं है। तराज़ू एक हुक या छड की सहायता से लटका होना चाहिए। लकडी और गोल डंडी की तराज़ू का इस्तेमाल दंडनीय है। कपडे मापने के मीटर के दोनों सिरों पर मुहर होनी चाहिए। तेल एवं दूध आदि के मापों के नीचे तल्ला लटका हुआ नहीं होना चाहिए। मिठाई, गिरीदार वस्तुओं एवं मसालों आदि की तुलाई में डिब्बे का वज़न शामिल नहीं किया जा सकता। पैकिंग वस्तुओं पर निर्माता का नाम, पता, वस्तु की शुद्ध तोल एवं कीमत कर सहित अंकित हो। साथ ही पैकिंग का साल और महीना लिखा होना चाहिए। पैकिंग वस्तुओं पर मूल्य का स्टीकर नहीं होना चाहिए।
उपभोक्ता कानून : भारत में उपभोक्ताओं के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए और इनके हितों की रक्षा करने के लिए भारत सरकार द्वारा विभिन कानून और विधान प्रदान किए गए हैं।
इनमें से कुछ इस प्रकार से हैं:
उपभोक्ता सरंक्षण अधिनियम 1986
- ये उपभोक्ताओं को विभिन्न अधिकार और जिम्मेदारियां प्रदान करता है।
- दोषपूर्ण माल, अनुचित व्यवहार तथा अन्य शोषण के खिलाफ ग्राहकों की रक्षा करता है।
- उपभोक्ता अपनी शिकायत तीन स्तरीय एजेंसियों में फाइल कर सकते हैं ये तीन एजेंसियां जिला फोरम, राज्य योग व राष्ट्रीय योग हैं
संविदा अधिनियम: इस अधिनियम में लोगों को अपने द्वारा किये गए वादों को एक अनुबंध में बाध्य किया गया है। अनुबंध का उल्लंघन करने पर कई उपाय भी प्रदान करता है।
गुड्स एक्ट 1930: यदि माल खराब है या वारंटी को पालन नहीं करता तो ये अधिनियम रहत प्रदान करता है।
आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 : ये अधिनियम आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन आपूर्ति और वितरण को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है। मुद्रास्फीति के समय ये इन वस्तुओं का उत्पादन और आपूर्ति नियंत्रित करता है। इसके आलावा ये कालाबाजारी की भी जांच करता है।
ट्रेड मार्क अधिनियम 1999: ये अधिनियम उत्पादों पर धोखाधड़ी के निशान के प्रयोग को रोकता है जिससे उत्पादों की गुणवत्ता बनी रहती है।
खाद्य अपमिश्रण अधिनियम 1954 की रोकथाम: इस काननों के द्वारा खाद्य वस्तुओं में मिलावट की जांच की जा सकती है। इससे वस्तुओं की शुद्धता बनी रहती है।
कृषि उत्पाद ( ग्रेडिंग और अंकन) अधिनियम 1937: ये कानून कृषि उताप्दाओं की गुणवत्ता को आश्वस्त करने के लिए बनाया गया है। ये कानून कृषि उत्पादों को ग्रेड मानक प्रदान करता है। एग्मार्क एक ऐसा ही गुणवत्ता का निशान है जो ये कानून प्रदान करता है। ये निशान तभी दिया जाता है जब उत्पाद न्यूनतम मानकों का पालन करके बनाए जाते हैं।
बाट और माप 1976 अधिनियम के 7 मानक: ये अधिनियम उपभोक्ताओं को वजन से कम तोलना, कम नापना आदि के कदाचारों से बचाता है। ये कानून उन वस्तुओं पर लगता है जिन्हें नाप के या फिर तोल के बेचा जाता है।
भारतीय मानक अधिनियम 1986: ये कानून उन उत्पादों पर एक विशेष निशान लगता है जो न्यूनतम गुणवत्ता मानकों को पूरा करते हैं। ISI निशान एक ऐसा ही निशान है जो ये कानून प्रदान करता है। यदि उत्पाद की गुणवत्ता ठीक नहीं है और उत्पाद ISI निशान लगा है तो एक शिकायत प्रकोष्ट का गठन भी किया गया है जहां उपभोक्ता अपनी शिकयत कर सकते हैं।
आज ग्राहक जमाखोरी, कालाबाजारी, मिलावट, बिना मानक की वस्तुओं की बिक्री, अधिक दाम, गारंटी के बाद सर्विस नहीं देना, हर जगह ठगी, कम नाप-तौल इत्यादि संकटों से घिरा है। ग्राहक संरक्षण के लिए विभिन्न कानून बने हैं, इसके फलस्वरूप ग्राहक आज सरकार पर निर्भर हो गया है। जो लोग गैरकानूनी काम करते हैं, जैसे- जमाखोरी, कालाबाजारी करने वाले, मिलावटखोर इत्यादि, इन्हें राजनैतिक संरक्षण प्राप्त होता है। ग्राहक चूंकि संगठित नहीं हैं इसलिए हर जगह ठगा जाता है। ग्राहक आन्दोलन की शुरुआत यहीं से होती है। ग्राहक को जागना होगा व स्वयं का संरक्षण करना होगा।
परिचय
उपभोक्ता आंदोलन का प्रारंभ अमेरिका में रल्प नाडेर द्वारा किया गया था। नाडेर के आंदोलन के फलस्वरूप 15 मार्च 1962 को अमेरिकी कांग्रेस में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी द्वारा उपभोक्ता संरक्षण पर पेश विधेयक को अनुमोदित किया था। इसी कारण 15 मार्च को अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। अमेरिकी कांग्रेस में पारित विधेयक में चार विशेष प्रावधान थे।
- उपभोक्ता सुरक्षा के अधिकार।
- उपभोक्ता को सूचना प्राप्त करने का अधिकार।
- उपभोक्ता को चुनाव करने का अधिकार।
- उपभोक्ता को सुनवाई का अधिकार।
अमेरिकी कांग्रेस ने इन अधिकारों को व्यापकता प्रदान करने के लिए चार और अधिकार बाद में जोड़ दिए।
- उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार।
- क्षति प्राप्त करने का अधिकार।
- स्वच्छ वातावरण का अधिकार।
- मूलभूत आवश्यकताएं जैसे भोजन, वस्त्र और आवास प्राप्त करने का अधिकार।
भारत में उपभोक्ता संरक्षण
जहां तक भारत का प्रश्न है, उपभोक्ता आंदोलन को दिशा 1966 में जेआरडी टाटा के नेतृत्व में कुछ उद्योगपतियों द्वारा उपभोक्ता संरक्षण के तहत फेयर प्रैक्टिस एसोसिएशन की मुंबई में स्थापना की गई और इसकी शाखाएं कुछ प्रमुख शहरों में स्थापित की गईं। स्वयंसेवी संगठन के रूप में ग्राहक पंचायत की स्थापना बीएम जोशी द्वारा 1974 में पुणे में की गई। अनेक राज्यों में उपभोक्ता कल्याण हेतु संस्थाओं का गठन हुआ। इस प्रकार उपभोक्ता आंदोलन आगे बढ़ता रहा। 9 दिसंबर 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर उपभोक्ता संरक्षण विधेयक संसद ने पारित किया और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित होने के बाद देश भर में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इस अधिनियम में बाद में 1993 व 2002 में महत्वपूर्ण संशोधन किए गए। इन व्यापक संशोधनों के बाद यह एक सरल व सुगम अधिनियम हो गया है। इस अधिनियम के अधीन पारित आदेशों का पालन न किए जाने पर धारा 27 के अधीन कारावास व दण्ड तथा धारा 25 के अधीन कुर्की का प्रावधान किया गया है।
स्वयंसेवी संगठन के रूप में ग्राहक पंचायत की स्थापना बीएम जोशी द्वारा 1974 में पुणे में की गई। अनेक राज्यों में उपभोक्ता कल्याण हेतु संस्थाओं का गठन हुआ। इस प्रकार उपभोक्ता आंदोलन आगे बढ़ता रहा। 9 दिसंबर 1986 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की पहल पर उपभोक्ता संरक्षण विधेयक संसद ने पारित किया और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित होने के बाद देशभर में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इस अधिनियम में बाद में 1993 व 2002 में महत्वपूर्ण संशोधन किए गए।
उपभोक्ता: उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार कोई व्यक्ति जो अपने उपयोग के लिए सामान अथवा सेवाएं खरीदता है वह उपभोक्ता है। क्रेता की अनुमति से ऐसे सामान/सेवाओं का प्रयोग करने वाला व्यक्ति भी उपभोक्ता है। इसलिए हममें से प्रत्येक किसी न किसी रूप में उपभोक्ता ही है।
उपभोक्ता के अधिकार: उपभोक्ता के रूप में हमें कुछ अधिकार प्राप्त हैं। मसलन सुरक्षा का अधिकार, जानकारी होने का अधिकार, चुनने का अधिकार, सुनवाई का अधिकार, शिकायत-निवारण का अधिकार तथा उपभोक्ता-शिक्षा का अधिकार।
शिकायतें क्या-क्या हो सकती हैं?
किसी व्यापारी द्वारा अनुचित/प्रतिबंधात्मक पद्धति के प्रयोग करने से यदि आपको हानि/क्षति हुई है अथवा खरीदे गए सामान में यदि कोई खराबी है या फिर किराए पर ली गई/उपभोग की गई सेवाओं में कमी पाई गई है या फिर विक्रेता ने आपसे प्रदर्शित मूल्य अथवा लागू कानून द्वारा अथवा इसके मूल्य से अधिक मूल्य लिया गया है। इसके अलावा यदि किसी कानून का उल्लंघन करते हुए जीवन तथा सुरक्षा के लिए जोखिम पैदा करने वाला सामान जनता को बेचा जा रहा है तो आप शिकायत दर्ज करवा सकते हैं।
कौन शिकायत कर सकता है? : स्वयं उपभोक्ता या कोई स्वैच्छिक उपभोक्ता संगठन जो समिति पंजीकरण अधिनियम 1860 अथवा कंपनी अधिनियम 1951 अथवा फिलहाल लागू किसी अन्य विधि के अधीन पंजीकृत है, शिकायत दर्ज कर सकता है।
शिकायत कहां की जाए: यह बात सामान सेवाओं की लागत अथवा मांगी गई क्षतिपूर्ति पर निर्भर करती है। अगर यह राशि 20 लाख रुपये से कम है तो जिला फोरम में शिकायत करें। यदि यह राशि 20 लाख से अधिक लेकिन एक करोड़ से कम है तो राज्य आयोग के समक्ष और यदि एक करोड़ रूपए से अधिक है तो राष्ट्रीय आयोग के समक्ष शिकायत दर्ज कराएं। वैबसाइट www.fcamin.nic.in पर सभी पते उपलब्ध हैं।
शिकायत कैसे करें: उपभोक्ता द्वारा अथवा शिकायतकर्ता द्वारा शिकायत सादे कागज पर की जा सकती है। शिकायत में शिकायत कर्ताओं तथा विपरीत पार्टी के नाम का विवरण तथा पता, शिकायत से संबंधित तथ्य एवं यह सब कब और कहां हुआ आदि का विवरण, शिकायत में उल्लेखित आरोपों के समर्थन में दस्तावेज व साथ ही प्राधिकृत एजेंट के हस्ताक्षर होने चाहिए। इस प्रकार की शिकायत दर्ज कराने के लिए किसी वकील की आवश्यकता नहीं होती। साथ ही इस कार्य पर नाममात्र न्यायालय शुल्क लिया जाता है।
क्षतिपूर्ति: उपभोक्ताओं को प्रदाय सामान से खराबियां हटाना, सामान को बदलना, चुकाए गए मूल्य को वापिस देने के अलावा हानि अथवा चोट के लिये क्षतिपूर्ति। सेवाओं में त्रुटियां अथवा कमियां हटाने के साथ-साथ पार्टियों को पर्याप्त न्यायालय वाद-व्यय प्रदान कर राहत दी जाती है।