हिमाचल की उत्कृष्ट कलाएं एवं वास्तुकला विश्वभर में विख्यात

हिमाचल की उत्कृष्ट कलाएं एवं वास्तुकला विश्वभर में विख्यात

  • मूर्ति कला

भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में गुप्त वंश के बाद का युग जिसे राजपूत काल भी कहते हैं हिमाचल के कलात्मक इतिहास में उत्कर्ष काल का सूचक है और इस काल में हिमाचल में पत्थर और धातुओं की उत्कृष्ट मूर्तियां बनाई गईं। इस कला के पत्थर में अद्वितीय

भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में गुप्त वंश के बाद का युग जिसे राजपूत काल भी कहते हैं

भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में गुप्त वंश के बाद का युग जिसे राजपूत काल भी कहते हैं

नमूने हाटकोटी, नीरथ, निर्मण्ड, ममेल, मसरुर और अन्य कई स्थानों पर देखे जा सकते हैं। जुब्बल के हाटकोटी में महिषासुरमर्दिनी, चंबा में लक्षणा देवी, शाक्ति देवी, नरसिम्हा, गणेश, नंदी और चतुमूर्तियां, लाहौल में मिरकुल देवी, कुल्लू में त्रिपुरा सुंदरी और बुशैहर के राजा की कुलदेवी भीमा काली की सराहन स्थित मूर्तियां इस युग की उपज हैं। हिमाचल प्रदेश अपनी कुछ श्रेष्ठतम धातु मूर्तियों पर गर्व कर सकता है। इस दृष्टि से 7वीं शताब्दी में निर्मित हाटकोटी की महिषासुरमर्दिनी की मूर्ति तथा चम्बा में हरिहर के मंदिर में बैकुंठ विष्णु की मूर्तियां अद्वितीय हैं।

हिमाचल में कांस्य मूर्तिकला का विकास प्राचीन काल से ही होने लगा था। कला समीक्षक बी.एन. शर्मा के अनुसार छतराहड़ी, भरमौर, बजौरा तथा अन्य स्थानों पर स्थित कांस्यमूर्ति कला दीर्घाओं में सुंदर एवं कलापूर्ण मूर्तियां दिखाई पड़ती हैं। इनमें से कुछ हिमाचल के मंदिरों से लाई गई हैं और अत्यंत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं। चंबा क्षेत्रीय कांस्य-मूर्तियों पर शिल्पकार गुगा का नाम अंकित मिलता है। गुगा, चम्बा के राजा मेरूवर्मन के समय, आठवीं शताब्दी में था। मेरूवर्मन की आज्ञा से उसने अनेक मर्तियां बनाई। स्कंद-कार्तिकेय की मूर्ति छठी शताब्दी की है। कांस्य मूर्तियों में सदाशिव पत्नी, गणेश, विष्णु, उमा-महेश्वर, महिषासुर-मर्दिनी, कार्तिकेय, दुर्गा शक्ति आदि की मूर्तियां श्रेष्ठ हैं। इनका आकार-प्रकार पौराणिक कथाओं के आधार पर निर्मित है। जिला शिमला तथा निरमंड में भी अनेक मूर्तिकार थे। 750 के पश्चात प्रतिहारों का लम्बा राज्यकाल मूर्तिकला के विकास का काल था।

  • रसोई घरों की अपनी साज-सज्जा

रसोई घरों की अपनी साज-सज्जा

रसोई घरों की अपनी साज-सज्जा

मूर्तियों के अतिरिक्त कांस्य तथा पीतल के बर्तनों पर चित्रलेखन भी महत्वपूर्ण है। कांगड़ा के गंगथ उपनगर में पीतल के बर्तनों का काम लोकप्रिय रहा। पीतल के बने जलपात्र (मुसरब्बों), गिलासों, गड़बियों, थालियों, चरोटियों (पीतल के बड़े भांडे-बर्तन), संदूकचियों, डिब्बियों, पूजा-पात्रों, घंटियों तथा चौकियों आदि में भी कांस्य-पीतल कला दिखाई पड़ती है। चम्बा, कुल्लू, किन्नौर जनजातिय क्षेत्रों में भी बड़े घरानों में ऐसे कलात्मक बर्तन देखे जा सकते हैं। रसोई घरों में बाहरी शिल्प और उत्कृष्ट कलाओं का बेजोड़ नमुना हिमाचल में आज भी देखने को मिलता है। रसोई घरों में तांबे के बर्तन एक से एक बढक़र, रसोई का चूल्हा चौका, पानी की टोकनी, तांबे के बर्तन, गिलास, लालटेन, धाम बनाने वाली पारम्परिक तांबे की टोकनी, आटा व दाल पिसने की आटी की चक्की, कड़ाई, पानी पीने का लोटा, गिलास, तम्बाकू पीने का हुक्का आदि जैसी बहुत से प्राचीन विश्ष्टि वास्तुकलाएं आज भी देखने को मिलती हैं। जिनकी रसोईघरों में रखने अथवा सजावट की अपनी ही कला है। आज भले ही बहुत कुछ बदल गया हो, लेकिन आज भी हिमाचल में रसोईघरों की एक अदभुत साज-सज्जा है।

  • नुरपूर, गुलेर और चम्बा की पहाड़ी रियासतों में हुआ पहाड़ी लघुचित्रकला का जन्म

हिमाचल पुर्नगठन से पूर्व अनेक छोटी-बड़ी रियासतों में बंटा हुआ था। प्रत्येक रियासत में कलाकारों को आश्रय देने वाले कलाप्रेमी राजे-रजवाड़े मौजूद थे। हिमाचल में सबसे पहले गुलेर कलम का नाम आता है। यहीं से चित्रकला के अन्य घराने जिन्हें कांगड़ा कलम, चम्बा कलम, मण्डी कलम, कुल्लू कलम तथा बिलासपुर कलम आदि के नाम से जाना जाता है, विकसित हुए। कालान्तर में कांगड़ा कलम अत्यधिक विकसित और प्रसिद्ध हो गई जिससे पहाड़ी चित्रकला को कांगड़ा कलम कहा जाने लगा।

प्रकृति ने हिमाचल को अद्भुत सौंदर्य प्रदान किया है जिसे कलाकारों ने कागज़ पर उतारने में मनोयोग पूर्वक काम किया। मैदानों की आपाधापी और भीड़भाड़ से दूर प्रकृति के निकट रहकर शान्त वातावरण में कलाकारों ने विश्व प्रसिद्ध चित्र अंकित किए। गुलेर, नूरपुर और कांगड़ा के स्कूलों के साथ-साथ पहाड़ी चित्रकला के 38 केन्द्र विकसित हुए। पहाड़ी लघुचित्रकला का जन्म नुरपूर, गुलेर और चम्बा की पहाड़ी रियासतों में हुआ। नूरपुर का राजा जगत सिंह (1619-1646), चम्बा का राजा पृथ्वी सिंह (1641-1664) और गुलेर का दलीप सिंह (1695-1743) प्रसिद्ध कलाप्रेमी शासक हुए। नूरपुर के राजाओं के मुगल दरबार से संबंध रहे इसलिए राजा जगत सिंह के राज्यकाल  (1619-1646) में नूरपुर रियासत में मुगल तथा पहाड़ी शैली की चित्रकला का मिश्रित रूप यहां विकसित हुआ। सन् 1620 में बना नृसिंह का चित्र मुगल व पहाड़ी कला का बेजोड़ नमूना है। नूरपुर के दुर्ग में भित्ति-चित्रों के सुंदर उदाहरण मिलते हैं। पहाड़ी लघु-चित्रकला नूरपुर से चम्बा, बसोहली, गुलेर, मण्डी, बिलासपुर, कुल्लू तथा गढ़वाल तक लोकप्रिय हुई।

  • कांगड़ा कलम

कला जगत के लिए कांगड़ा कलम, अनुपम भेंट है। इसका नाम हिमाचल की कांगड़ा रियासत के नाम पर पड़ा है जहां इसे पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उचित परिवेष मिला। 18वीं के मध्य में जब बसोहली चित्रकला समाप्त होने लगी तब यहाँ इतने अधिक विभिन्न प्रकार के चित्र बने कि पहाड़ी चित्रकला को कांगड़ा चित्रकला के नाम से जाना जाने लगा। वैसे तो कांगड़ा चित्रकला के मुख्य स्थान गुलेर, बसोहली, चम्बा, नुरपुर, बिलासपुर और कांगड़ा है। बाद में यह शैली मण्डी, सुकेत, कुल्लू, अर्की, नालागढ़ और गढवाल में भी अपनाई गई। गढवाल में कांगड़ा कलम के क्षेत्र में मोलाराम ने अविस्मरणीय कार्य किया। वर्तमान में यह पहाड़ी चित्रकला के नाम से विख्यात है। 17वीं और 19वीं शताब्दी में यहाँ के राजपूत शासकों ने इस कला को आश्रय दिया।

जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि पहाड़ी चित्रकला, हिमाचल के मध्य क्षेत्र की कला है। कांगड़ा चित्रकला स्कूल, पहाड़ी चित्रकला के उत्त्थान तथा नवीनीकरण में सक्रिय रहा है। इस कला का जन्म गुलेर नामक स्थान में हुआ। मुगल चित्रकला शैली के कलाकार कश्मीरी के परिवार को, राजा दलीप सिंह ने अपने राज्य गुलेर (1695-1741) में शरण दी और गुलेर चित्रकला विकसित होना शुरू हुई। इन चित्रों में चित्रकार अपने मालिक के फ्लैट पोट्रेट और उनके प्रेम प्रसंग के दृश्य, राधा कृष्ण के प्रेम-प्रसंग के दृश्य जैसे विषय लेते हैं। कलाकार प्राकृतिक एवं ताज़े रंगों का प्रयोग करते हैं। ये रंग खनिज व वनस्पति से बनते हैं, इनसे चित्रों में इनेमल जैसी चमक तथा प्राकृतिक दृश्य जैसी हरियाली होती है।

कला जगत के लिए कांगड़ा कलम, अनुपम भेंट

कला जगत के लिए कांगड़ा कलम, अनुपम भेंट

महाराजा संसार चंद कटोच (1776-1824) के शासन काल में यह शैली शीर्ष तक पहुंची। कला प्रेमी होने के कारण, जो कलाकार उनके महल में काम करते थे, उन्हें बहुत इनाम भी मिले और कुछ को इनाम में भूमि भी मिली। महाराजा संसार चंद भगवान कृष्ण के उपासक थे इसलिए वह उस कलाकार को पुरस्कृत करते थे जो कृष्ण से सम्बद्ध विषय पर चित्र बनाते थे। कांगड़ा गुलेर कला ड्राई की कला है जो कि निश्चित और कोमल, लेपाबन्द और प्राकृतिक होती है। इस कला में चहरे ठीक अनुपात और प्रतिबिम्ब में होते हैं ताकि उनसे पोरसलीन जैसी कोमलता आए।

  • कांगड़ा चित्रकला का मुख्य विषय श्रृंगार

कांगड़ा चित्रकला का मुख्य विषय श्रृंगार है। कांगड़ा चित्रकला के पात्र उस समय के समाज की जीवन शैली दर्शाते हैं। भक्ति सूत्र इसकी मुख्य शक्ति है और राधा-कृष्ण की प्रेम कथा इसका मुख्य भक्ति अनुभव है जिसे दिखने के लिए आधार मन है। भागवत पुराण और जयदेव की गीतगोविंद की प्रेम कविताएँ इसका मुख्य विषय रहा है। राधा-कृष्ण की रास लीला को दर्शाते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन दिखाया है। कुछ चित्रों में कृष्ण को वन में नाचते हुए दिखाया गया है जहां सब गोपियों की नजरें उन्हीं पर है। कृष्ण लीला पर आधारित चित्र, चित्रकारों के प्रिय रहे हैं। प्रेमप्रसंग ही पहाड़ी चित्रकला का मुख्य विषय वस्तु रहा है। भागवत पुराण से प्रभावित कांगड़ा चित्र वृन्दावन और यमुना के साथ कृष्ण का बचपन दर्शाते हैं। इनमें दूसरा प्रिय विषय नल और दमयन्ती की कहानियाँ हैं। पुरातन भारतीय कांगड़ा चित्रकला में हरे रंग का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है। अत: यह शैली प्रकृतिवादी है और इसमें बहुत ध्यान से छोटी-छोटी चीजें विस्तार में बनाई गई हैं। कांगड़ा चित्रकला के खूबसूरत लक्षण फूल, पौधे, लता, नदी, बिना पत्तों के पेड आदि हैं।

कांगड़ा चित्रकला लयबद्ध रंगों के लिए जानी जाती है। कांगड़ा के कलाकार ताज़े मूल रंगों का प्रयोग कोमलता से करते हैं| जैसे देरी दिखाने के लिए हल्के गुलाबी रंग का प्रयोग पहाड़ी के उपरी हिस्से में करते हैं। कांगड़ा चित्रकला में स्त्री आकर्षण बहुत ही सुंदर ढंग से दिखाया जाता है इनमें चेहरे कोमल, सुंदर तथा देहयष्टि सुगठित होती है। कालान्तर में कांगड़ा चित्रकला में रात्रि के दृश्य तथा तूफ़ान और बिजली गिरना भी बनाए गए। चित्र मूलतः बड़े होते हैं और बहुत सारी फिगर बनाई जाती है तथा विस्तार से प्राकृतिक दृश्य दिखाए जाते हैं।

  •  1750 से 1850 का समय हिमाचली चित्रकला का स्वर्णयुग

1750 से 1850 का समय हिमाचली चित्रकला का स्वर्णयुग माना जाता है। हिमाचल के इतिहास के मध्यकाल में, मैदानों से आए राजपूत राजकुमारों, सरदारों और राजाओं ने रियासतें स्थापित की और वे अपने साथ स्थानीय कलाकारों को भी लाए। इस प्रकार राजपूत कलाओं का स्थानीय कलाओं से मिश्रण हुआ। मुगलों के प्रभाव से तथा मुगल दरबारों से आए हुए कलाकारों ने भी पहाड़ों में शरण ली और अपने आश्रयदाताओं के दरबार में रहकर चित्र बनाए। यह स्वाभाविक ही था कि मुगल और राजपूत कलाओं का मिश्रण होता। इसी से कांगड़ा कलम का विकास हुआ। हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा शैली की पहाड़ी लघु चित्रकला सेऊ वंशज की देन है। गुलेर दरबार में मनकू और नैनसुख को लघु-चित्रकला प्रारम्भ करने वाले माना जाता है। 1775 में पहाड़ी लघु चित्रकला का केन्द्र राजा संसार चन्द के समय कांगड़ा की तात्कालीन राजधानी सुजानपुर टीहरा में बदल गया। संसार चन्द के दरबार में फाटू और पदमा (पुरखू) प्रसिद्ध कलाकार थे। सेऊ वंश के चित्रकारों ने पहाड़ी चित्रकला को कांगड़ा कलम नाम से प्रचारित किया। हिमाचल में पहाड़ी चित्रकला के संरक्षकों में गुलेर के राजा गोवर्धन चन्द से भूपचन्द (1745-1826 ई.), कुल्लू के राजा प्रीतम सिंह (1767-1806), कांगड़ा के राजा संसार चन्द (1775-1823 ई.) तथा चम्बा के राजा राज सिंह (1765-1794) और जीत सिंह (1794-1808) का नाम प्रमुख है। इस प्रकार यह 1750 से 1850 का समय हिमाचली चित्रकला का स्वर्णयुग माना जाता है।

चंबा में सोलहवीं शताब्दी में पहाड़ी चित्रकला भित्ति चित्रों के रूप में उभर कर आई

चंबा में सोलहवीं शताब्दी में पहाड़ी चित्रकला भित्ति चित्रों के रूप में उभर कर आई

  • 1916 में मेटकॉफ ने की थी कांगड़ा शैली के चित्रों की खोज

कांगड़ा शैली के चित्रों की खोज सबसे पहले 1916 में मेटकॉफ ने की थी। डॉ. आनन्द कुमार द्वारा प्रकाशित राजपूत पेंटिंग पुस्तक में पहाड़ी चित्रकला को सम्मानपूर्ण स्थान दिया गया। कांगड़ा चित्रकला पर शोध करने वालों में डब्ल्यू.जी. आर्चर, एम.एस. रन्धावा, काले खांडेलवाल, डॉ. मुलकराज आनन्द तथा डॉ. बी.एन. गोस्वामी का नाम प्रमुख है। हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल स्टेटस के लेखक हचिन्सन ने राजा संसार चन्द के कला-प्रेम के विषय में लिखा है राजा को स्वयं चित्रकला में रूचि है और उसने बहुत से चित्रकार रखे हुए हैं। उसके पास चित्रों के भण्डार हैं। स्थानीय राजाओं के रूपचित्र भी उसके यहां सुरक्षित हैं। कांगड़ा कलम कांगड़ा, सुजानपुर, आलमपुर आदि स्थानों पर ब्यास नदी के किनारे बने विशाल राजभवनों में पनपी है। इसमें अपनी मिट्टी की गंध, वायु की मादकता तथा जल लहरियों की चंचलता है।

कांगड़ा कलम के चित्रों के मुख्य विषय धार्मिक पौराणिक हैं। भागवतपुराण, गीतगोविन्द, रासलीला, रामलीला, शिवलीला, दुर्गा-शक्तिलीला, बिहारी सतसई, रसिक प्रिया, कविप्रिया, नलदमयन्ती प्रणय, रागमाला, रियासती राजाओं तथा राजपरिवारों के रूपचित्र आदि रहे हैं। कांगड़ा कलम में साधारण लोगों के चित्र भी बने हैं जिससे जन-जन में इसकी लोकप्रियता का पता चलता है। राजभवनों, स्थानीय पर्वत-श्रृंखलाओं, दुर्गों, सरिताओं, वन-उपवनों तथा पशु-पक्षियों का भी चित्रांकन हुआ है। पृष्ठभूमि में प्रकृति सर्वत्र विद्यमान है। इन चित्रों में विशेष प्रकार का कागज प्रयुक्त हुआ है जो पुराने बही-खातों से लिया जाता था। यह स्यालकोटी कागज कहलाता है। इस पर सफेद लेप की परतें चढ़ाकर शंख से मुलायम किया जाता था। इससे इसमें मजबूती और कोमलता आती थी। इस कला में प्रयुक्त रंग फूलों, फलों, वनस्पतियों, वृक्षों के बीजों, जड़ों आदि के संयोग से स्वयं तैयार किए जाते हैं। रंग-पात्र मिट्टी की छोटी-छोटी प्यालियां अथवा सीपियां होती थीं।

पुराने चित्रों के खाके सावधानी से संभाल कर रखे जाते थे। खाका हिरण के चमड़े पर बनाया जाता था और पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होता था। बाद में इसके आधार पर कागज पर चित्र बनते थे। इन चित्रों में हाथी, हंस, बैल, गाय, पपीहा, तोता-मैना, चकोर-चकोरी, मोर-मोरनी, पेड़-पौधे, केला, जामुन का पेड़, बट, सरू, सेंबल, लता, मेघ, धटाएं, बिजली, सुराही-घड़ों आदि का प्रयोग अत्यंत लोकप्रिय हैं। ये सभी प्रतीकात्मक भी हैं। इनमें लताएं राधा-कृष्ण के मिलन की, पपीहा, राधा-कृष्ण संबंधों का, हाथी सुचा वैभव का, हंस ज्ञान का, घड़ा सुख-शांति का, उमड़ते-घुमड़ते बादलों में चमकती बिजली प्रेमोन्माद के प्रतीक हैं। केला, नायक-नायिका के मांसल सौंदर्य का तथा पक्षी-युगल राधा-कृष्ण के प्रेम-संबंधों की प्रतीक रूप है। इनमें अंकित लज्जाभाव, दास-दासी अभिनय, खान-पान, वेश-भूषा, आचार-व्यवहार आदि का चित्रण स्थानीय संस्कृति के परिचायक हैं।

  • पहाड़ी कलाओं की प्रमुख विशेषता

पहाड़ी कलाओं की प्रमुख विशेषता है रेखाओं की कमनीयता, रंगों की उज्जवलता और विवरणों की सूक्ष्मता। इनमें केन्द्रीय भाव प्रेम है जो कि गीतात्मक शैली में लयात्मक सुन्दर और आकर्षक ढंग से व्यक्त हुआ है। कांगड़ा के चित्रकार के लिए नारी शरीर का सौन्दर्य ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। वास्तव में उसी के सौन्दर्य की अभिव्यक्ति यह कांगड़ा घाटी के सौन्दर्य-चित्रण में करता है। ए.के. कुमारस्वामी का कथन है चीनी चित्रकारों ने दृश्यांकन में जो उच्चता प्राप्त की थी यही उच्चता यहां पहाड़ों में मानवीय प्रेम को अंकित करने में प्राप्त की है।

  • चम्बा चित्रकला

चम्बा अपनी पहाड़ी चित्र शैली के लिए विश्वविख्यात

चम्बा अपनी पहाड़ी चित्र शैली के लिए विश्वविख्यात

चम्बा चित्रकला में पहाड़ी लघु-चित्रकला का राजा पृथ्वी सिहं (1641-1664) में अत्यधिक विकास हुआ। पृथ्वी सिंह के मुगह बादशाह शाहजहां से निकट संबंध थे और दोनों का एक पोट्रेट 1658 का उपलब्ध है। वह नौ बार दिल्ली दरबार में गया था। पहाड़ी लघु-चित्रकला के सेऊ वंश के निक्का और रांझा चित्रकार पहाड़ी रियासत के राजा उग्र सिंह (1720-35) का रूपचित्र सुरक्षित है।

चंबा में सोलहवीं शताब्दी में पहाड़ी चित्रकला भित्ति चित्रों के रूप में उभर कर आई। विवाह अवसर पर भित्ति (दीवार)चित्र बनाने की विशेष परंपरा रही है जो बेगद्वारी हुई। चम्बा अपनी पहाड़ी चित्र शैली के लिए विश्वविख्यात है। बसोहली चित्रकला शैली ने निक्कू कलाकार की कलाकृतियों के साथ इसे पहाड़ी चित्रकला का नाम दिया जोकि बसोहली चित्रकला के कलाकार थे जो 18वीं सदी में गुलेर से चम्बा में आकर बस गए। राजा उदय सिंह व जयसिंह दोनों ने इस पहाड़ी चित्रकला शैली को संरक्षण व बढ़ावा प्रदान किया। यह राजा चढत सिंह का समय था जब यह पारम्परिक चित्र कला पल्लवित हुई। उस समय स्थानीय कलाकारों पर इस कला का प्रभाव इस कद्र हुआ जिस के फलस्वरूप आज यह कला अपनी अलग पहचान बनाए हुए हैं।

चम्बा कला में वैसे तो लघु व भित्ति चित्रों पर बहुत कार्य हुआ है परन्तु इस शैली में मुगल शैली का प्रभाव भी देखने को मिलता है। उस समय के चित्रकारों में लेहरू, दुर्गा, मियां जरा सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। इनकी चित्रकला का विषयवस्तु पौराणिक आख्यान जैसे कृष्ण-लीला, शिव पार्वती, राम दरबार, तथा प्रकृति में पशु-पक्षी एवं नदियाँ तालाब आदि समाविष्ट है। विभिन्न किस्म के रंगों की छटा, चित्रों के माध्यम से चम्बा, शिमला व धर्मशाला के संग्रहालयों में देखी जा सकती है।

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