देव स्थली व प्राकृतिक सौंदर्य से विभोर “किन्नौर”

“किन्नौर” का प्राचीन इतिहास

किन्नौरों को ‘खुनु-पा’ कहते हैं तिब्बती लोग

किन्नौर को कनौर, कनावर, कुनावुर, कुनावर तथा कनौरिंङ भी कहते हैं। स्थानीय बोली में इसे कनौरिंङ कहा जाता है। कहीं-कहीं कनौरस भी

बस्पा नदी

कहते हैं। तिब्बती लोग किन्नौरों को खुनु-पा कहते हैं। अर्थात एक बार ब्रह्मा ने अपने प्रतिबिम्ब को देखा। तब उन्होंने अपने को बहुत सुंदर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरूष उत्पन्न किए। किन्नर जन शिव कैलाश में देवता, गन्धर्व और अप्सराओं के साथ रहते हैं। किन्नौर की मुख्य सम्पर्क भाषा को हमस्कद् कहा जाता है। हमस्कद् की अन्य बोलियों में थोशङ, पो-स्कद, शुम छो-स्कद, शुन्नम्-स्कद, उस्कद, नयम्स्कद् आदि प्रमुख हैं। आजकल इस जिले का लोकप्रिय नाम किन्नौर प्रचलित है। शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर डॉ. विद्या चंद ठाकुर का मानना है कि किन्नौर शब्द की व्युत्पत्ति मूल शब्द किन्नर से करें तो किन्नर से कनाऊर से कनौर शब्द बनने के बाद कनौर शब्द के ‘क’ वर्ण में ‘अ’ स्वर के स्थान पर ‘इ’ स्वर के आने एवं ‘न’ के द्वितवीकरण के फलस्वरूप मध्य में ‘न’ व्यंजन के आगम होने पर किन्नौर शब्द बना है।

किन्नौर का प्राचीन इतिहास दंतकथाओं पर ही आधारित

किन्नौर में 7वीं से 13वीं शताब्दी तक था तिब्बती राजाओं का शासन

किन्नौर का प्राचीन इतिहास दंतकथाओं पर ही आधारित है। एक मान्यता के आधार पर राज्य के पूर्व पुरूष प्रद्युम्र थे तो दूसरे के अनुसार

नाको झील

वाणासुर। प्रद्युम्र के पिता अनिरूद्ध को निचार की देवी उषा का पति माना जाता है और उषा वाणासुर की बेटी। राहुल सांकृत्यायन का कहना है कि किन्नौर में 7वीं शताब्दी से 13वीं शताब्दी तक तिब्बती राजाओं का शासन था। 13वीं से 16वीं तक ठकुराइयों में विभक्त था, जिसके अधिकृत क्षेत्र को खूंद कहते थे। इन सात खूंदों में से दोशी खूंद गौरा और उससे नीचे के क्षेत्र में था। पंद्रह-बीस खूंद गानबी, अठारह-बीस खूंद सुंगरा, बङ पो खूंद भावा, राजग्राम खूंद चगांव, छूवङ खूंद चीनी तथा टुक्पा खूंद कामरू में था। इन सब खूंदों के अपने-अपने देवता थे। दोशी खूंद में बसारू, पंद्रह-बीस खूंद में लाछी, अठारह-बीस, सुगरा, बङ-पो तथा राजग्राम खूंद में मेशू, छूवङ खूंद में चंडिका और टुक्पा खूंद में बदरीनाथ थे। ये खूंद आगे चार-पांच गांवों के समूहों में विभाजित थे, जिन्हें घोड़ी कहा जाता था। इन ठाकुरों ने छोटे-छोटे गढ़ एवं किले बना रखे थे। किले ऐसे स्थान पर बनाए हुए होते थे, जहां आक्रांताओं का आना आसान नहीं होता था और जहां से चारों और नज़र रखी जा सकती थी। शत्रु के आक्रमण होने पर इन किलों में इक्ट्ठे किए हुए पत्थरों और तीरों से उन्हें मारकर भगाया जाता था। इन ठकुराइयों में कामरू का ठाकुर सबसे शक्तिशाली था। उसने अपनी शक्ति के बल पर आसपास के छोटे-छोटे खूंदों को अपने अधीन करके कामरू में राज्य की स्थापना की थी।

"किन्नौर" का प्राचीन इतिहास

“किन्नौर” का प्राचीन इतिहास

1960 में अस्तित्व में आया किन्नौर जिला

रामपुर बुशहर के 14 गांव इसमें किये सम्मिलित

स्वतन्त्रता से पहले यह बुशहर रियासत का एक अंग था, जिसका मुख्यालय चीनी गांव में था। इस पूरे क्षेत्र को चीनी नाम से ही जाना जाता था। 15 अप्रैल, 1948 को जब हिमाचल प्रदेश की स्थापना हुई तो चीनी को महासू जिला की एक तहसील बनाया गया। किन्नौर जिला 1960 में अस्तित्व में आया। जिला बनने पर इसमें रामपुर बुशहर के 14 गांव भी सम्मिलित किए गए।

तिब्बत के साथ लगती किन्नौर की पूर्वी सीमा

सतलुज के दोनों किनारों पर अवस्थित किन्नौर का क्षेत्रफल 6401 वर्ग किलोमीटर है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार इसकी आबादी 78334 है, जिसमें 42173 पुरूष और 36162 महिला हैं। इस जिले में 77 राजस्व गांव हैं जिनके अन्तर्गत छोटे-छोटे 258 गांव आते हैं। इसकी पूर्वी सीमा तिब्बत के साथ लगती है, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व में उत्तराखण्ड का उत्तरकाशी जिला, उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम में लाहुल-स्पिति, दक्षिण-पश्चिम में शिमला जिला तथा पश्चिम में कुल्लू जिले के पंद्रह-बीस क्षेत्र पड़ते हैं।

किन्नौर के अधिकांश ऊपरी हिस्से में सूखे पहाड़

तापमान सर्दियों में जनवरी में कम से कम 4 डिग्री तथा अधिकतम 16 डिग्री सेल्सियस तथा जुलाई में कम से कम 10 डिग्री और अधिकतम

किन्नौर

25 डिग्री सेल्सियस रहता है। अधिकांश ऊपरी भागों में सूखे पहाड़ हैं। देवदार के जंगल निचले क्षेत्रों में हैं। कुल वन भूमि 458297.47 हेक्टेयर तथा कृषि भूमि 4355 हेक्टेयर है। रिकांगपियो जिला मुख्यालय है। पूह, कल्पा और निचार उपमण्डल तथा पूह, मूरंग, कल्पा, सांगला, निचार तहसील तथा यंगथंग उपतहसील है।

खाव में स्पिति नदी और सतलुज नदी का संगम

किन्नौर की यात्रा करते हुए एक बार राहुल सांकृत्यायन ने डायरी में लिखा है-देवदारूओं की छाया में चलने से मालूम हो रहा था, मैं अपने प्राणों और आयु को बढ़ाता चल रहा हूं। यद्यपि मैं देवदारूओं की भूमि में पैदा नहीं हुआ, पर न जाने क्यों मुझे वह इतना प्रिय लगता है। मैं इसे प्राकृतिक सौंदर्य का मानदण्ड मानता हूं। यहां मैं देवदार का अंग बन गया हूं। सचमुच सतलुज उपत्यका प्राकृतिक सौंदर्य की रानी है। नाको से वापसी में यंगथंग से आगे खाव पड़ता है। खाव में स्पिति नदी और सतलुज नदी का संगम होते देखना बहुत ही अदभुत प्रतीत होता है। पूह उपमण्डल मुख्यालय में आर्मी की एक टुकड़ी तैनात रहती है।

किम्पुरूष से बना किन्नौर: लेखक : डॉ. सूरत ठाकुर

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