मनाली के देवदार जंगलों में बसा पैगोडा शैली का कलात्मक मंदिर "हिडिम्बा"

मनाली के देवदार जंगलों में बसा पैगोडा शैली का कलात्मक मंदिर “हिडिम्बा”

  • नवगृह, गंधर्व, देव प्रतिमाएं तथा पुण्य पत्र आदि की नक्काशी उत्कृष्ट कोटि की है

नवगृह, गंधर्व, देव प्रतिमाएं तथा पुण्य पत्र आदि की नक्काशी उत्कृष्ट कोटि की है जो इस पैगोडा शैली के मंदिर का काष्ठ करना, काष्ठ वास्तु कला को गरिमा प्रदान करती है। मंदिर के गवाक्षों में काष्ठकला चित्रित हुई है। एक गवाक्ष में पैथुन में प्रवृत्त युवाल की कृति उल्लेखनीय है।

मुख्य मंदिर के अतिरिक्त लकड़ी के तख्तों से छाया एक छोटा मंदिर भी है। इसी मंदिर के ऊपर तीन त्रिशुल स्थापित हैं। यह मंदिर वर्तमान पैगोडा से पहले का है। यह मंदिर त्रिजुगी नारायण दयार की परवर्ती कला के विकास का उदाहरण है। मंदिर में पहली दो तीन ज्येष्ठ तक ढूंगरी नाच मनाई जाती है।

जनश्रुति है कि एक बार सोलंगी नाग और देवी हिड़मा व्यास नदी में खेल रहे थे। उन्होंने नदी को रोक कर झील बनाई जो एक स्थान से टूट गई। नाग ने हिड़मा से उसे बंद करने को कहा। जैसे ही वह उसे बंद करने लगी कि नाग ने लात मारकर झील का बांध पूरी तरह तोड़ दिया। पानी के तीव्र प्रवाह में बहती हुई देवी हिड़मा मनाली के पास एक चट्टान से टकराकर वहीं रूक गई। यह वही चट्टान थी जो ढूंगरी में हिड़मा मंदिर के भीतर आज भी विद्यमान है। देवी जमलू तथा घेपङ् की बहन मानी जाती है। तांदी राक्षस भी इसका भाई मानते हैं।

पौराणिक कथा

  • कुल्लू का राजवंश इसे अपनी कुलदेवी मानता है और दादी कहता है

    वर्तमान मंदिर पैगोडा शैली और उत्कृष्ट काष्ठकला का आकर्षक उदाहरण

    वर्तमान मंदिर पैगोडा शैली और उत्कृष्ट काष्ठकला का आकर्षक उदाहरण

ढूंगरी में हिडिम्बा देवी के रूप में प्रतिष्ठित है। कुल्लू में देवी का स्थान देवशिरोमणि रघुनाथ जी से कम नहीं। कुल्लू दशहरा देवी के कुल्लू आगमन के बिना आरम्भ नहीं हो सकता। कुल्लू का राजवंश इसे अपनी कुलदेवी मानता है और दादी कहता है। एक जनश्रुति के अनुसार कुल्लू के राजाओं के यह राज्य हिडिम्बा के प्रताप से ही प्राप्त हुआ है। कुल्लू के पाल वंश का प्रथम राजा विहंगमणिपाल जब कुल्लू आया तो जगतसुख के पास उसने एक बुढिय़ा को पीठ पर बैठाकर नाला पार करवाया। वह बुढिय़ा और कोई नहीं हिडिम्बा ही थी। बुढिय़ा ने उसे दूर दृष्टि की सीमा तक राज्य वरदान में दिया।

महाभारत के आदि पर्व में हिडिम्बा का प्रसंग आता है। कुटिल कणिक की कूटनीति से प्रेरित धृतराष्ट्र व दुर्योधन पाण्डवों को वारणावर्त भेज देते हैं। विदुर का इशारा पाकर वे स्वयं ही लाक्षागृह को आग लगा सुरंग खोदकर भाग निकलते हैं।

जहां भीम का हिडिम्बा से साक्षात्कार हुआ, वह स्थान महाभारत में वर्णित स्थल के आधार पर मनाली नहीं हो सकता। पाण्डव सुरंग से निकलकर एक वन से होते हुए गंगा तट पर पहुंचे। गंगा नाव द्वारा पार की और दक्षिण दिशा की ओर बढ़े। घने जंगल और थकावट के कारण वे प्यास से व्याकुल हो गए। भीमसेन ने उन्हें एक वट वृक्ष के नीचे बिठाया और स्वयं जल लेने गए। जब वापस आए तो देखा कुंती सहित सभी भाई थकान से चूर होकर सो गए हैं। भीम बहुत दुखी हुए और जागकर पहरा देने लगे।

पास ही एक साल के वृक्ष पर हिडिम्बासुर बैठा हुआ था। बड़ा क्रूर और पराक्रमी था। उसका शरीर काला, आंखें पीली और आकृति भयंकर थी, उल्लेखनीय है कि जहां हिडिम्बा साल के वृक्ष पर बैठा था और पाण्डव वट वृक्ष के नीचे सोये थे, वह स्थान ऊंचाई वाला नहीं हो सकता। अत: यह स्थान मनाली नहीं था।

गंगा के समीप उस साल वन में रहने वाले हिडिम्ब ने अपनी बहिन हिडिम्बा से कहा, बहिन आज बहुत दिनों बाद मुझे अपना प्रिय मनुष्य मांस मिलने का सुयोग दिखता है। जीभ पर बार-बार पानी आ रहा है। आज मैं अपनी दाढ़े इनके शरीर में डूबो दूंगा और ताजा-ताजा गरम खून पी जाऊंगा। तुम इन मनुष्यों को मारकर मेरे पास ले आओ। तब हम दोनों इन्हें खाएंगे और ताली बजा-बजाकर नाचेंगे।

हिडिम्बा उन्हें मारने के लिए गई किन्तु भीम के सुंदर बलिष्ठ शरीर को देख अपने आने का प्रयोजन भूल बैठी और मानवी रूप धरकर भीमसेन के सामने प्रकट हो गई। वह भीम से अपना परिचय देकर उन्हें पति रूप में वरण करने की बात कहने लगी।

उधर हिडिम्ब अधिक देर प्रतीक्षा नहीं कर सका और पाण्डवों की ओर चला। हिडिम्बा को मानवी रूप में देख वह क्रोधित हो उठा और पाण्डवों की ओर बढ़ा। वीर भीम ने उसे बाहुयुद्ध में धराशायी कर दिया। कुंती और युधिष्ठर ने हिडिम्बा का विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिया किन्तु हिडिम्बा पीछे-पीछे चलने लगी। अंतत: उसे अपना लिया गया और भीम ने उसके साथ पुत्र होने तक रहने का वचन दिया।

विवाह के बाद वे विहार के लिए पहाड़ों की चोटियों पर, जंगलों में, तालाबों में, गुफाओं में, नगरों में, दिव्य भूमियों में विचरण करने लगे। यह सम्भव है कि हिडिम्बा में मानव साहचर्य में अपना निवास, संस्कारों में मूल परिवर्तन के कारण बदल लिया हो।

समय आने पर उसके गर्भ से एक पुत्र हुआ जिसके विकट नेत्र, विशाल मुख, नुकीले कान, भीषण शब्द, लाल होंठ, विशाल शरीर था। माता-पिता ने उस घट अर्थात सिर को उत्कच यानि केशहीन देख घटोत्कच नाम दिया।

इस घटना के बाद घटोत्कच का प्रसंग वन पर्व में आता है। बदरिकाश्रम जाते द्रौपदी के थक जाने पर भीम ने अपने पुत्र घटोत्कच का स्मरण किया। भीम द्वारा हिमालय में स्मरण उसके हिमालयवासी होने का प्रमाण है। घटोत्कच ने द्रौपदी को और अन्य राक्षसों ने पाण्डवों को उठाकर यात्रा की।

  • हिडिम्ब की चीत्कार

मढ़ी के सामने, आसपास पर्वतों पर हर ऋतु में बर्फ देखी जा सकती है। रोहतांग पर अगस्त तक बर्फ के ढेर जमे रहते हैं। गर्मियों में चम्बा-लाहौल की ओर से आने वाले गद्दी अपनी भेड़-बकरियां चराते चलते रहते हैं। सितम्बर में मढ़ी के नीचे देवदारूओं के बीच की धरती रंग-बिरंगे फूलों से सज जाती है। अक्तूबर तक आरंभ होने वाली पतझड़ पर रंग बदलते पत्ते औश्र ही दृश्य उत्पन्न कर देते हैं।

मढ़ी के सामने ही है एक भयंकर नाला, जिसमें गंभीर ध्वनि से बर्फानी पानी गिरता है। इसे सागू-छो या सागू नाला कहते हैं। सागू एक राक्षस का नाम है। यह भी जनास्था है कि भीम ने हिडिम्ब को मनाली से उठाकर यहां ला पटका जहां नाले में उसकी मृत्यु हो गई। आज भी राक्षस की अन्तिम चीत्कार गहरे नाले से सुनाई पड़ती है। लोकास्था में घटोत्कच का एक भाई तांदी भी था। तांदी केलांग के पीछे चन्द्रा व भागा के संगम स्थल का नाम है। भीम हिडिम्बा का विहारस्थली।

  • भीम हिडिम्बा का विहारस्थली

    देवदार के जंगल में बसा हिडिम्बा मंदिर

    देवदार के जंगल में बसा हिडिम्बा मंदिर

हिडिम्ब मारा गया। भीम ने हिडिम्बा को अंगीकार किया। महाभारत का एक महत्वपूर्ण प्रसंग। राजपुरूष का नरभक्षी राक्षस जाति से पाणिग्रहण। प्रेमी भीम को लेकर हिडिम्बा सुरम्य पर्वतों, मनोहर सरोवरों, गुफाओं में विहार करती है। दोनों के प्रेम का अंकुर घटोत्कच के रूप में फूटता है। घटोत्कच, अपने मामा हिडिम्ब के विपरीत सात्विक वृत्ति का है। वह द्रौपदी सहित पाण्डवों व ब्राह्मणों को पीठ पर उठा बदरिका श्रम ले जाते समय कैलाश की ओर ले उड़ता है। रथयूथपतियों का अधिपति वीर घटोत्कच जिसके पास रीछ के चमड़े से मढ़ा विशाल रथ था, पाण्डवों की ओर से लड़ता हुआ महारथी कर्ण के प्राण संकट में डाल देता है। कुल्लू के लोकमानस में वीर घटोत्कच का नाम बड़े गर्व से लिया जाता है।

मनाली में ढूंगरी नामक स्थान पर ही हिडिम्ब का मंदिर है। महाभारत के समय की राक्षसी जिसे पाण्डवों ने मनुष्यों में स्थान दिया, यहां देवी के रूप में पूजी जाती है। पैगोड़ा-शैली के मंदिर के दरवाजे में की गई नक्काशी काष्ठ कला का बेहतर नमूना है। द्वार पर दुर्गा, शिव, विष्णु, साधक आदि के चित्र खुदे हैं। टांकरी में एक लेख है। मंदिर सोलहवीं शताब्दी के मध्य राज बहादुर सिंह (1546-1569) ने बनवाया। कुल्लू के पालवंशीय राजा हिडिम्बा को अपनी दादी कहते हैं क्योंकि देवी के प्रसाद से ही उन्हें कुल्लू का राज्य मिला है।

मंदिर के भीतर एक बड़ा पत्थर है। इसके पास ही एक छोटी चट्टान के नीचे देवी के चरण हैं। पुजारी का विश्वास है कि देवी इसी चट्टान के नीचे रहती थी। यद्यपि बड़े पत्थर के पास एक मूर्ति भी रखी है किन्तु पूजने वाले पांव ही पूजते हैं। पांव ही तो विश्वसनीय होते हैं। पूजते हैं तो पांव ही पूजिये।

आसपास घना जंगल है। यद्यपि भीम का हिडिम्बा से साक्षात्कार का स्थान महाभारत के वर्णन के अनुसार मनाली प्रतीत नहीं होता, तथापि यह स्पष्ट है कि भीम और हिडिम्बा विहार के लिए ऐसे ही मनोहारी स्थानों में आए होंगे। बंजार का एक देवता हिडिम्बा का पुत्र माना जाता है।

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