धौलाधार पर्वत श्रृंखला में स्थित 52 शक्तिपीठों में से एक “श्री ब्रजेश्वरी देवी” मंदिर

धौलाधार पर्वत श्रृंखलाओं में बसी “माँ ब्रजेश्वरी”

शरदकालीन नवरात्रों में माँ के दर्शनों के लिए उमड़ता है भक्तों का सैलाब

शरदकालीन नवरात्रों में माँ के दर्शनों के लिए उमड़ता है भक्तों का सैलाब

शरदकालीन नवरात्रों में माँ के दर्शनों के लिए उमड़ता है भक्तों का सैलाब

वैसे तो इस शक्तिपीठ में वर्ष भर धार्मिक पर्यटकों की भीड़ रहती है, मगर चैत्र व शरदकालीन नवरात्रों में यहां कांगड़ा वाली( नगरकोटवाली ) देवी की जात लगाने वाले भक्तों का सैलाब उमड़ता है। चैत्र के नवरात्रों में बसंती रंग के (पीले) परिधानों में देवी दर्शन को आने वाले झुण्ड के झुण्ड इस शक्तिपीठ के प्रति जनास्था का दीदार करते हैं। कांगड़ा वाली ब्रजेश्वरी देवी की जात को आने वाले भक्तों में कोई दण्डवत अवस्था में लेटकर मां के भवन तक की दूरी नापता हुआ दर्शन को जाता है तो कोई घुटनों के बल चलकर मां के भवन तक की दूरी तय करता है। मां ब्रजेश्वरी देवी के दर्शन के लिए नंगे पाव पैदल दर्शन के लिए आने वाले जत्थों की तो कोई गिनती ही नहीं है। सबका अटूट विश्वास है कि मां कांगड़ा वाली सबकी मुराद पूरी करती हैं। मां की कृपा से जिन जोगिनों की गोद भर जाती है वह नवरात्रों में देवी की जात करने के साथ यहां अपने बच्चों का मुण्डन संस्कार कराकर मां का आर्शीवाद प्राप्त करती हैं। तो शादी की मुराद पूरी होने पर नव युगल परिवार सहित देवी की जात कर जीवन की खुशहाली की आराधना करते हैं। चैत्र व शरदकालीन नवरात्रों पर ब्रजेश्वरी देवी मंदिर पर विशेष मेलों का आयोजन होता है।

कई दंत कथाएं प्रचलित

मां ब्रजेश्वरी देवी शक्तिपीठ के प्रादुर्भाव का जहां तक प्रश्न है इसे लेकर कई दंत कथाएं प्रचलित हैं। जिनमें एक कथा जालंधर दैत् से सम्बधित भी है। हालांकि शिवपुराण के अनुसार इस शक्तिपीठ का सम्बंध भी राजा दक्ष के यज्ञ प्रसंग से है। शिवपुराण के अनुसार यहां सती के वक्षस्थल गिरे थे। मां ब्रजरेश्वरी देवी के मंदिर निर्माण का जहां तक संबंध है इतिहासविदों के अनुसार इसका निर्माण महाभारत काल में कटोचवंश के शासकों ने कराया।

बनेर नदी के किनारे बसा कांगड़ा कभी थी सोने की चिड़िया

बनेर नदी के किनारे बसा कांगड़ा कभी सोने की चिड़िया थी। ब्रजेश्वरी मंदिर तथा इसके साथ कांगड़ा का किला सोने, चांदी, हीरे व जवाहरात से भरा था। विदेशी शासकों ने कांगड़ा पर बार-बार आक्रमण कर यहां के विशाल खजाने को लूटा। लार्ड कनिंघम के अनुसार कांगड़ा पर हुआ आक्रमणों में सबसे बड़ा आक्रमण महमूद गजनवी द्वारा 1009 में किया गया था। कहा जाता है कि महमूद गजनवी के सैनिकों ने कई दिनों तक यहां किले और मंदिर में लूटमार की। वह अपने साथ सोने, चांदी, हीरे और जवाहरात लूट कर ले गया। लार्ड कनिंघम ने अपनी पुस्तक में इसकी कीमत 17,57,000 पौंड आंकी है।

ब्रजेश्वरी देवी के इस स्थान पर प्रकट होने की कथा जालंधर महात्म्य में इस प्रकार है:

अब बात करते हैं जालंधर महात्म्य की। ब्रजेश्वरी देवी के इस स्थान पर प्रकट होने की कथा जालंधर महात्म्य में इस प्रकार है। जालंधर नामक दैत्य का कई वर्षों तक देवताओं से घोर युद्ध हुआ। जब युद्ध में जालंधर के पराक्रम के आगे देवा असहाय से नजर आने लगे तब भगवान विष्णु और शंकरजी ने छल का सहारा लेकर जालंधर को मरणासन्न कर दिया। लेकिन जैसे ही इन्हें जालंधर की साध्वी पत्नी वृंदा की याद आई तो वृंदा के श्राप के भय से जालंधर को प्रत्यक्ष दर्शन देकर मन चाहा वर मांगने को कहा। सती वृंदा के पति जालंधर ने दोनों देवताओं की स्तुति कर कहा है सर्व शक्तिमान प्रभु यद्यपि आपने मुझे कपटी माया रचकर मारा है इस पर भी मैं अति प्रसन्न हूं। आपके प्रत्यक्ष दर्शन से मुझ जैसे तामसी और अहंकारी दैत्य का उद्धार हो गया। मुझे कृप्या यह वरदान दें कि मेरा पार्थिव शरीर जहां-जहां तक फैला है उतने हिस्से में सभी देवी-देवताओं और तीर्थों का निवास रहे। आपके श्रद्धालु भक्त मेरे शरीर पर स्थित इन तीर्थों में स्नान ध्यान, दर्शन और पूजन कर पुण्य लाभ प्राप्त करें। इसके पश्चात जालंधर ने प्राण त्याग दिये। इसी कथा के अनुसार शिवालिक पहाड़ियों के बीच बारह योजन क्षेत्र में जालंधर पीठ फैला हुआ है। जिसकी परिक्रमा में 64 तीर्थ व मंदिर पाये जाते हैं। इनकी प्रदक्षिणा का फल चार धाम की यात्रा से कम नहीं है। इसीलिए हिमाचल के सर्वाधिक भव्य मंदिरों में शुमार इस शक्तिपीठ का सुनहरी कलश दूर-दूर तक फैला हुआ है।

श्री ब्रजेश्वरी देवी मंदिर नगरकोट

पिण्डी के साथ अष्टधातु का बना एक पुरातन त्रिशूल

पिण्डी के साथ अष्टधातु का बना एक पुरातन त्रिशूल

श्री ब्रजेश्वरी देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा शहर के समीप मालकड़ा पहाड़ी की ढलान पर उत्तर की नगरकोट में स्थित है। यह जगह, तन्त्र-मन्त्र, सिद्धियों, ज्योतिष विद्याओं, तन्त्रोक्त शक्तियों, देव परंपराओं की प्राप्ती का पंसदीदा स्थान रहा है। यह एक शक्तिपीठ है जहा माँ सती का दायां वक्षस्थल गिरा था। इसलिए इसे स्तनपीठ भी कहा गया है और स्तनपीठ भी अधिष्ठात्री ब्रजरेश्वरी देवी है। स्तनभाग गिरने पर वह शक्ति जिस रूप में प्रकट हुई वह ब्रजेश्वरी कहलाती है। यह मंदिर मध्यकालीन मिश्रित वास्तुशिल्प का सुन्दरतम उदाहरण है। सभामण्डप अनेक स्तम्भों से सुसज्जित है। इस मंदिर के अग्रभाग में प्रवेश द्वार से जुड़े मुखमंडप और सभामंडप के शीर्ष भाग पर बने छोटे-छोटे गुम्बद, शिखर, कलश और मंदिर के स्तम्भ समूह पर मुगल और राजपूतकालीन शिल्प का प्रभाव दिख पड़ता है। यह स्तम्भ घट पल्लव शैली में बने हैं।

ब्रजेश्वरी मंदिर का गर्भगृह

पिण्डी के साथ अष्टधातु का बना एक पुरातन त्रिशूल

ब्रजेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में भद्रकाली, एकादशी और वज्रेश्वरी स्वरूपा तीन पिण्डियों की पूजा की जाती है। यहां पिण्डी के साथ अष्टधातु का बना एक पुरातन त्रिशूल भी है जिस पर दस महाविद्याओं के दस यंत्र अंकित हैं। इसी त्रिशूल के अधोभाग पर दुर्गा सप्तशती कवच उत्कीर्ण है। जनश्रुति है कि इस पर चढ़ाए गए जल को आसन्नप्रसू स्त्री को पिलाने से शीघ्र प्रसव हो जाता है। यही जल गंगा जल की तरह आखरी साँसों में मुक्ति दिलवाता है।

इस मंदिर में जालंधर दैत्य का संहार करती देवी को रूद्र मुद्रा में दर्शाती एक पुरातन मूर्ति है। इसमें देवी द्वारा दानव को चरणों के नीचे दबोचा हुआ दिखाया है। इस मंदिर परिसर असंख्य देवी-देवताओं की पुरातन मुर्तिया देखी जा सकती हैं।

ब्रजेश्वरी मन्दिर का इतिहास

ग्यारहवीं शताब्दी तक ब्रजेश्वरी मन्दिर एक वैभवशाली मन्दिर के रूप में विदेशों तक प्रसिद्ध हो चुका था। यहां पर देश-विदेश से श्रद्धालू आकर देवी मां को बहुमूल्य भेंटें चढाते थे। इसकी आर्थिक सम्पन्नता की जानकारी महमूद गजनवी को मिली तो उसने 1009 ईस्वी में यहां आकर मन्दिर को लूटा। इतिहासकार उत्तवी ने अपनी पुस्तक तारीख-ए-यामिनी में लिखा है कि महमूद गजनवी ने इस मन्दिर से सात लाख सोने के दीनार, 700 मण सोना, 1000 मण चांदी और 20 मण के लगभग हीरे जवाहरात लूटे। कनिंघम ने इस बहुमूल्य खजाने की कीमत उस समय के भाव के अनुसार 17,57,000 पौंड आंकी है। जोनराज की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर के राजा शहाबुद्दीन ने चौदहवीं शताब्दी 1363-86 के बीच यहां पर आक्रमण किया। इसी शताब्दी में फिरोजशाह तुगलक ने भी यहां लूटपाट की और 1540 में शेरशाह सूरी भी यहां की धन-दौलत लूट कर ले गया।

यहां से पन्द्रहवीं शताब्दी का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसका कुछ भाग शारदा लिपि में और कुछ भाग देवनागरी लिपि में खुदा है। इस में मन्दिर की प्रतिष्ठापित देवी को ज्वालामुखी नाम दिया गया है। एक अन्य शिलालेख के अनुसार इस मन्दिर का निर्माण साही महमूद के शासन काल में हुआ है। कनिंघम के विचार में महमूद, मुहम्मद सैट्टयद हो सकता है। मुहम्मद सैट्टयद 1443 से 1446 तक देहली का शासक था। इस मन्दिर के निर्माण के समय संसार चन्द प्रथम कांगड़ा का राजा था। जो 1429-30ई0 में राजसिंहासन पर बैठे थे। अकबर के समय इस मन्दिर की ओर विशेष ध्यान दिया गया माना जाता है। कहते हैं कि इनकी देवी में विशेष आस्था थी। वह दीवान टोडरमल के साथ यहां पहुँचे थे। इसके अतिरिक्त 1611 ईस्वी में यूरोप के यात्री विलियम पिंच और 1615 में थामस कोर्थट ने इस मन्दिर को देखा। 1666 में फ्रांसीसी यात्री थैवनेट भी यहां आया और इन्होंने अपने संस्मरणों में मन्दिर की समृद्धि के बारे में लिखा है।

सिक्खों के राज्य काल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस मन्दिर के प्रति विशेष रूचि ली। उन्होंने यहां एक सोने की मूर्ति भेंट की। रानी चान्द कौर ने मन्दिर पर सोने का कलश चढ़ाया। सिक्ख गवर्नर देसासिंह ने साज-सजावट में बहुत योगदान दिया।

ब्रजेश्वरी देवी का वर्तमान मन्दिर 1930 में बना

ब्रजेश्वरी देवी का वर्तमान मन्दिर 1930 में बना है। मन्दिर का मूल स्वरूप शिखर है। इसके आगे सुन्दर मण्डप बना है। इससे पहले का मन्दिर 1905 के कांगड़ा के भूकम्प में क्षतिग्रस्त हो गया था परन्तु भूकम्प के समय भी प्राचीन मूल मन्दिर खड़ा नहीं था,क्योंकि ग्यारहवीं शताब्दी के बार-बार के आक्रमणों से मन्दिर को तोड़ा जाता रहा है। मन्दिर के प्रवेश द्वार पर आर-पार गंगा तथा यमुना देवी की पुरानी मूर्तियां हैं। हरमन गोट्ज के मतानुसार ये मूर्तियां सातवीं शताब्दी में निर्मित हैं। इन मूर्तियों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि यहां उस काल में शिखर शैली का विशाल मन्दिर खड़ा था।

देवी के प्रांगण में विभिन्न देवी देवताओं की लगभग 40 मूर्तियां

यहां देवी के प्रांगण में विभिन्न देवी देवताओं की लगभग 40 मूर्तियां हैं। जिन्हें सातवीं से बारहवीं शताब्दी के बीच का माना जाता है। मन्दिर के एक कक्ष में देवी के द्वारा जालन्धर दैत्य की पैरों तले कुचलने की मुद्रा में देवी की मूर्ति है। जिसे दसवीं शताब्दी का माना जाता है। कहते हैं कि ऐसी मूर्ति प्रदेश के किसी अन्य स्थान पर उपलब्ध् नहीं है।

मेले और त्यौहार

देवी ब्रजेश्वरी की भक्तों पर अपार कृपा रहती है। भक्तों का आगमन मन्दिर में सामान्यतः वर्ष भर चला रहता है। पर चैत्र, श्रावण और आश्विन नवरात्रों में यहां विशेष मेले लगते हैं। जिसमें लाखों भक्त देवी मन्दिर में पहुँचते हैं। माघ महीने में मकर संक्रान्ति से सात दिन यहां विशेष आयोजन होता है। सामान्यतः ध्वनि परिवर्तन से ऐसा सम्भव है। फिर भी लोगों की धरणा है कि यह देवी ब्रज वासियों की भी कुल देवी रही है। इसलिये इसे ब्रजेश्वरी देवी भी कहा जाता है। आज भी ब्रज के लोग नवरात्रों के दिनों में पीत वस्त्र पहनकर काफी संख्या में देवी के मन्दिर आते हैं।

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