वर्ष 2010-11 में स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की सख्या 2009-के मुकाबले बढ़ी है। तमिलनाडु और गुजरात इस मामले में आगे बताए जा रहे हैं। शैक्षिक वार्षिक रिपोर्ट 2010 के मुताबिक बच्चों के स्कूल छोड़ने की राष्ट्रीय दर 3-5 प्रतिशत रही है। रिपोर्ट के अनुसार हालांकि बंगाल में बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर कम हुई है, 5-6 प्रतिशत से घटकर 4-6 प्रतिशत- मेघालय में यह दर 7-2 प्रतिशत, राजस्थान में 5-8 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश में 5-2 प्रतिशत, असम में 5 और बिहार में 3-5 प्रतिशत है।
इस खतरे की असल वजह क्या है? शिक्षा के प्रति लोगों की उदासीनता या फिर भूख और गरीबी ? संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुषंगी संस्था खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 23 करोड़ के आसपास लोग भूख के शिकार हैं उल्लेखनीय है कि 1990-92 में 21 में करोड़ लोग भूख से त्रस्त थे। इस मामले में ओडिशा, बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की स्थिति तो अफ्रीका के इथियोपिया, कांगो और चाड़ जैसी हैं। इसमें 5,000 बच्चे प्रतिदिन कुपोषण का शिकार होते हैं। प्रगति के तमाम दावों के बावजूद हमारा देश बाल सूचकांक में विश्व के तमाम देशों से आज भी पिछड़ा हुआ है।
अंतराराष्ट्रीय संस्था सेव द चिल्ड्रेन के सर्वेक्षण के अनुसार बाल अधिकारों के संबंध में 2005 के 2010 से बीच भारत की स्थिति में और गिरावट आई है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2011-12 में बाल तस्करी के 1-26 लाख मामले दर्ज किए गए थे। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की जानकारी के अनुसार 96 हजार बच्चे देशभर में हर साल लापता हो रहे हैं जिसमें 70 प्रतिशत की आयु 12 से 18 साल के बीच है। एनसीआरबी और यूनिसेफ के अनुसार देशभर में 20 प्रतिशत माता-पिता गरीबी के चलते अपनी बेटियों को बेच रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की (ट्रैफिकिंग इन वूमन एंड चिल्ड्रेन इन इंडिया) नामक रिपोर्ट के अनुसार मासूम बच्चों की तस्करी रोकने के लिए जितनी भी कोशिशे की जाती है उनमें ऐसी तमाम खामियां होती हैं जिनका फायदा उठाकर बच्चों के तस्कर उनकी तस्करी करते हैं।
आज देश की स्थिति ऐसी हो चुकी है कि भूख और गरीबी से तंग मासूम बच्चे अपनी राह भटकर रहे हैं। बाल मजदूरी के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग अपने ही घरों में बच्चों से मजदूरी कराते हैं। अक्सर कहा जाता है कि बच्चे ही किसी समाज के भविष्य होते हैं यह बात बिल्कुल सच है परन्तु ये तो तभी संभव है न जब बच्चों का भविष्य बेहतर होगा लेकिन यदि बच्चों का भविष्य संकट में होगा तो कहां देश तरक्की ओर विकास के नए आयाम छू सकता है।
देश के बहुत से ऐसे राज्य है जैसे दिल्ली, उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहर जिसमें नोएडा, गाजियाबाद, लखनऊ, कानपुर और साथ ही बिहार, झारखण्ड आदि जैसे तमाम राज्य हैं जहाँ से व्यापक पैमाने पर बच्चों को अपहृत कर बाल मजदूरी, वेश्यावृत्ति, भीख मँगवाने आदि कामों में लगाया जाता है। गुमशुदा बच्चों के मामले में बात करें तो केवल 2009 में ही देश भर में 60,000 बच्चे गुम हुए जबकि पिछले वर्षों में यह संख्या 44,000 के आसपास हुआ करती थी। दिल्ली में सबसे ज्यादा गुमशुदगी या अपहरण के मामले आते हैं। दिल्ली में प्रत्येक दिन 17 बच्चे गुम होते हैं जिसमें से 6 कभी नहीं मिलते। ‘इन्स्टीटड्ढूट ऑफ सोशल साइंस’ की रिपोर्ट के अनुसार महानगरों में गुमशुदगी के मामले में दिल्ली पहले स्थान पर है।
सूचना अधिकार कानून के प्राप्त सूचना के अनुसार जनवरी 2008 से अक्टूबर 2010 तक दिल्ली से 13,570 बच्चे गुम हो गये और जनवरी 2011 से अप्रैल 2011 तक 550 बच्चे गुम हो गये। गुम हुए बच्चों में 12 से 19 साल की लड़के और लड़कियाँ हैं। 90 प्रतिशत गुम हुए बच्चे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखण्ड के रहने वाले हैं।
बच्चों की तस्करी का जो मुख्य कारण है वह है गरीबी। पूर्व में मानव व्यापार आंशिक तौर पर संगठित अपराधों में था परन्तु अब तो वह विश्व व्यापार का रूप ले चुका है। देश में हर साल 4 लाऽ बच्चे व्यवसायिक सेक्स के हत्थे चढ़ जाते हैं। इससे साफ है कि वेश्यावृत्ति का कारोबार तेजी से बढ़ा है। इस कारोबार के लिए गरीब व असुरक्षित स्थानों पर रहने वाली बच्चियों का अपहरण किया जा रहा है। कई जगहों पर इंसानों के व्यापारी विकृत मानसिकता वाले बच्चों को पंगु बनाकर उनसे भीख मंगवाने का कार्य कराते हैं।
हालांकि बाल अधिकार के लिए राष्ट्रीय और राज्य आयोग बनाये गये हैं परन्तु हैरानी की बात है कि उसके बाद भी राष्ट्रीय आयोग को साल भर में देश भर के बच्चों से खतरनाक काम कराये जाने के खिलाफ कोई ठोस तथ्य नहीं मिल पाये हैं! इसके खिलाफ कानून 1986 में बनाया गया था। घरों में बच्चों से काम कराने के खिलाफ भी 2006 में कानून बनाया गया था। राज्य और उसका तन्त्र, जिसमें न्यायपालिका भी शामिल है इस भयावह स्थिति से आँखे मूँदे हैं। इसकी वजह यह है कि ये बच्चे गरीब परिवार से आते हैं।
आइएलओ की एक शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि घरेलू बाल श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा लड़कियां (72 प्रतिशत) हैं- 52 प्रतिशत घरेलू बाल श्रमिकों को ऽतरनाक परिस्थितियों में काम करना होता है- इनमें से 47 प्रतिशत बच्चे 14 वर्ष से कम उम्र के हैं- 35 लाख बच्चे 5 से 11 वर्ष और 38 लाख बच्चे 12 से 14 वर्ष की उम्र के हैं-
आइएलओ के लक्ष्यः बाल श्रम के उन्मूलन के लिए अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने एक एक्शन प्लान प्रस्तावित किया है। इस एक्शन प्लान के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और उसके सदस्य देशों को 2016 तक बाल श्रम के कुरूपतम रूपों को समाप्त करने के लिए एकजुट होना चाहिए- संगठन का कहना है कि यह एक प्राप्त किया जा सकने लायक लक्ष्य है। इससे 2015 तक पूरे किये जानेवाले सहस्नब्दी विकास लक्ष्य को हासिल करने में भी मदद मिलेगी। लेकिन आइएलओ का कहना है कि मकसद यह होना चाहिए कि हर किस्म के बाल श्रम को पूरी तरह से समाप्त किया जाये।
कैसे हो समस्या का समाधानः जानकारों का कहना है कि बालश्रम की समस्या एक जटिल आर्थिक-सामाजिक समस्या है और इसका हल सिर्फ बाल श्रम पर पाबंदी करने से नहीं निकलेगा- जानकार इसके लिए निमनलिखित अपनाये जाने की वकालत करते हैं।
- परिवार की आमदनी बढ़ा कर, ताकि बच्चों को काम पर जाने पर मजबूर न होना पड़े।
- बच्चों को शिक्षा उपलब्ध करा कर ताकि अच्छी आमदनी के लिए वे कौशल हासिल कर सकें- भारत में बालश्रम को रोकने के लिए स्कूलों में मिड डे मील योजना चलायी जाती है, जिसका मकसद है कि बच्चे स्कूल आयें, काम करने न जायें।
- सामाजिक सेवाएं, जो बच्चों और परिवार को बीमारी या किसी अन्य आपदा की स्थिति में सहायता कर सकती हैं।
- जन्म दर नियंत्रण को प्रभावी बनाकर- क्योंकि माना जाता है कि ज्यादा बच्चे होने पर उनके लालन-पालन, शिक्षा का खर्चा उठा पाने में परिवार अक्षम हो जाते हैं। अगर बच्चे कम होंगे, तो उनकी पढ़ाई की व्यवस्था करना आसान होगा।
वर्ष 2013 के विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस के मुद्देः
- घरेलू कार्य में बाल श्रम को समाप्त करने के लिए विधायी और नीतिगत सुधार किया जाना- कानूनी रूप से नियुक्त हो चुकने की उम्र तक पहुंच गये घरेलू कामगारों के लिए बेहतर कार्य-परिस्थितियां सुनिश्चित करना।
- आइएलओ कंवेंशन संख्या 189 के तहत घरेलू कामगारों के लिए काम करने की बेहतर व्यवस्थाओं के साथ आइएलओ बाल श्रम कंवेंशन को कार्यान्वित करना।
- बाल श्रम के खिलाफ विश्वव्यापी आंदोलन छेड़ना और बाल श्रम को उजागर करते हुए घरेलू श्रम संगठनों की क्षमता का निर्माण करना।
भारत में बाल श्रम की स्थितिः हमारे देश में लगभग 21 वर्ष पूर्व बच्चों के अधिकार (सीआरसी) संबंधी समझौते को स्वीकार किया गया था। बाल श्रम में लगे बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार ही अकेले प्रयास नहीं कर सकती बल्कि लोगों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। जब तक आम लोगों को अपनी जिम्मेवारी का अहसास नहीं होगा तब तक मासूम बचपन इसी तरह से कुचला जाता रहेगा। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के बाल श्रमिकों की संख्या विश्व में सबसे ज्यादा है। स्कूल न जाने वाले ये बच्चे बालश्रम सहित, किसी न किसी तरह के शोषण से जूझ रहे हैं। वैसे सरकारी आंकड़ों में तो इनकी संख्या काफी कम करके बतायी जाती है लेकिन वास्ताविकता में इनकी संख्या बहुत ज्यादा है। ऐसा भी नहीं है कि सरकारी मशीनरी को इस बारे में जानकारी नहीं होती, बल्कि वे इस ओर पूरा ध्यान नहीं देते हैं। इस मुद्दे की अनदेखी करना देश और समाज के लिए काफी घातक साबित हो सकता है।
संवैधानिक प्रावधानः भारत के संविधान के अनुच्छेद 24 में यह प्रावधान किया गया है कि 14 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को किसी कारखाने या खदान समेत किसी भी तरह के ऽतरनाक उद्योग में काम नहीं दिया जा सकता। इसके साथ ही संविधान में बच्चों को स्वस्थ तरीके से विकसित होने के लिए अवसर और सुविधाएं मुहैया कराने और किसी भी तरह के शोषण एवं उत्पीड़न से उनके बचपन को बचाने की बात कही गयी है। लेकिन, वर्तमान में सरकार की अनेक नीतियों के बावजूद बाल श्रम का उन्मूलन नहीं हो पाया है। बाल श्रम के खिलाफ बनाये गये कानूनों की अनदेखी की जा रही है।
बच्चों के साथ हो रहे अपराधों के खिलाफ पुलिस/शासन न्यायालय कानून आदि का जो रुख है वह भी कुछ स्थानों पर सख्त नहीं है, अवमानना भरा है। वहीं गरीबों के प्रति रवैया ऐसा है कि जैसे वे इंसान हो ही नहीं। और वहीं कई बार अपराधी व्यत्तिफ़ का पता लगने पर भी पुलिस उसे नहीं पकड़ती और यदि पकड़ भी लिया तो ऊपरी दबाव में उसे छोड़ देती है। सरे आम बच्चों की जिन्दगियां बरबाद हो रही है। देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के सभी बच्चों की हिफाजत, देखभाल, विकास, शिक्षा की जिम्मेदारी देता है। बाल मजदूरी, बन्धुआ मजदूरी बाल अधिकार के सम्बन्ध में अनेक कानून बने हैं, परन्तु इस पर अमल करने की जवाबदेही किसी की नहीं है! देश में होने वाले इन मासूमों के जीवन से हो रहे खिलवाड़ के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है! हम ही हैं। जो सब कुछ जानते ओर समझते हुए भी मूक बनकर तमाशबीन बने रहते हैं। आवश्यकता है इसके लिए गंभीरता से विचार-विर्मश करने की ओर सख्त कदम उठाने।