लाल बहादुर शास्त्री

विराट व्यक्तित्व के धनी थे लाल बहादुर शास्त्री….शत-शत नमन

लाल बहादुर शास्त्री जयंती

विराट व्यक्तित्व के धनी थे लाल बहादुर शास्त्री….

विराट व्यक्तित्व के धनी थे लाल बहादुर शास्त्री....

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विराट व्यक्तित्व के धनी थे लाल बहादुर शास्त्री....

विराट व्यक्तित्व के धनी थे लाल बहादुर शास्त्री….

देश की राजनीति में सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के पर्याय माने जाने वाले स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री का समूचा जीवन इस बात की जीवंत मिसाल है कि कैसे नितांत विपरीत स्थितियों में भी अपने मूल्यों व नैतिकताओं से विचलित हुए बिना अपनी खुदी को इतना बुलंद किया जा सकता है कि देश की जरूरत के वक्त उसकी नेतृत्व कामना को भरपूर तृप्त किया जा सके। दुख की बात है कि दारुण मौत ने उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में सिर्फ अठारह महीने ही दिए, लेकिन इस छोटी-सी अवधि में ही, खासकर 1965 में पाकिस्तान के हमले के वक्त अपने कुशल नेतृत्व व दूरदर्शी फैसलों से उन्होंने जैसी अमिट छाप छोड़ी, वह देशवासियों के दिल व दिमाग पर अभी भी ताजा है।

2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय में रामदुलारी के गर्भ से जन्मे शास्त्री जी का बचपन का नाम नन्हे था। बड़े हुए तो शास्त्री जी नन्हे से लालबहादुर श्रीवास्तव में बदले। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि मिलने पर उन्होंने अपने नाम से जुड़े जातिसूचक शब्द ‘श्रीवास्तव’ को हटाकर उसकी जगह ‘शास्त्री’ को दे दी। शास्त्री जी ने अपना राजनीतिक जीवन भारतसेवक संघ से शुरू किया और उसी के बैनर पर अहर्निश देशसेवा का व्रत लेकर स्वतंत्रता संघर्ष के प्राय: सारे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी की। इनमें 1921 के असहयोग आंदोलन, 1930 के दांडी मार्च तथा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस दौरान उन्होंने कई तरह की यातनाएं भी भुगतीं।

स्वतंत्रता के पश्चात उत्तर प्रदेश में गोविंदबल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में पुलिस एवं परिवहन मंत्री रूप में उन्होंने प्रथम बार बसों में महिला कंडक्टरों की नियुक्ति शुरू करायी, जबकि पुलिस मंत्री बनने के रूप में भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारंभ कराया। बाद में केंद्र में रेलमंत्री बने तो एक रेल दुर्घटना के बाद इस्तीफा देकर मंत्रियों द्वारा नैतिक जिम्मेदारी स्वीकारने की नई मिसाल कायम की। 27 मई, 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद 9 जून, 1964 को शास्त्री जी उनके स्थान पर प्रधानमंत्री बने। उन्होंने ‘जय जवान जय किसान’ जैसा लोकप्रिय नारा दिया, लेकिन वे उसकी उम्र लंबी कर पाते इससे पहले ही पाकिस्तान ने हमला कर दिया। फिर तो ठिगने कद वाले शास्त्री ने अप्रत्याशित रूप से अपने व्यक्तित्व को इतना विराट कर लिया, जिसकी पाकिस्तान ने कल्पना तक नहीं की थी। आपात बैठक में तीनों सेनाध्यक्षों ने शास्त्री जी को सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा कि उन्हें क्या करना है, तो उन्होंने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया ‘आप देश की रक्षा कीजिए और बताइए कि मुझे आपके लिए क्या करना है?’

हमला करते हुए पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने कहा था कि दिल्ली तक तो वे चहलकदमी करते हुए पहुंच जाएंगे। इसके उलट भारतीय सेना ने लाहौर पर कब्जा कर लिया। अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जनसन ने शास्त्री जी को धमकी दी कि उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की तो वे भारत को पीएल 480 के तहत दिया जा रहा गेहूं देना बंद कर देंगे। शास्त्री जी को ये बात बहुत चुभी और उन्होंने देशवासियों से अपील की कि वे हफ्ते में एक समय भोजन न करें। ताशकंद में युद्घ समाप्ति के समझौते के दौरान शास्त्री जी ने ढेर सारे दबावों का सामना करते हुए देश के हितों की रक्षा की। शुरू में उनकी और अयूब की दो छोटी-छोटी बैठकों में कोई परिणाम नहीं निकला क्योंकि शास्त्री जी को जीती हुई जमीन लौटाना हरगिज मंजूर नहीं था। बाद में जैस-तैसे वे इस पर सहमत हो गए तो अयूब ने कश्मीर पर जोर देना शुरू कर दिया, लेकिन कश्मीर पर कोई चर्चा न करने के शास्त्री जी के दृढ़संकल्प के आगे उनकी एक नहीं चली।

अंतिम सत्र में पाकिस्तान की तरफ से आए समझौते के मसौदे में लिखा गया था, ‘दोनों देशों के बीच सभी मुद्दे शांतिपूर्ण तरीके से संयुक्तराष्ट्र चार्टर के तहत हल किए जाएंगे।’ शास्त्री जी ने जोर दिया कि इस मसौदे में अयूब अपने हाथ से जोड़़ें-‘बिना हथियारों का सहारा लिए।’ अयूब ने ऐसा ही किया, लेकिन 11 जनवरी, 1966 को समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही घंटों बाद शास्त्री जी का निधन हो गया। विजयोल्लास में डूबे देश में यह खबर शोक की लहर की तरह आई। 1966 में उन्हें मरणोपरांत ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया गया।

लाल बहादुर शास्त्री का जीवन

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 को मुगलसराय, उत्तर प्रदेश में ‘मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव’ के यहां हुआ था। इनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। ऐसे में सब उन्हें ‘मुंशी जी’ ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली थी। लालबहादुर की मां का नाम ‘रामदुलारी’ था।

परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार से ‘नन्हे’ कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हे अठारह महीने के हुए तब दुर्भाग्य से उनके पिता का निधन हो गया। उसकी मां रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्जापुर चली गईं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हे की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी मां का बहुत सहयोग किया।

ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री जी ने अनपे नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया।

इसके पश्चात ‘शास्त्री’ शब्द ‘लालबहादुर’ के नाम का पर्याय ही बन गया। बाद के दिनों में “मरो नहीं, मारो” का नारा लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने एक क्रान्ति को पूरे देश में प्रचण्ड किया। उनका दिया हुआ एक और नारा ‘जय जवान-जय किसान’ तो आज भी लोगों की जुबान पर है।

भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन के एक कार्यकर्ता लाल बहादुर थोड़े समय (1921) के लिए जेल गए। रिहा होने पर उन्होंने एक राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय काशी विद्यापीठ (वर्तमान में महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ) में अध्ययन किया और स्नातकोत्तर शास्त्री (शास्त्रों का विद्वान) की उपाधि पाई। संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे भारत सेवक संघ से जुड़ गए और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की।

शास्त्रीजी सच्चे गांधीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।

स्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया।

इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढ़ी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरंतर बढ़ता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियां चढ़ते हुए वह नेहरूजी के मंत्रिमंडल में गृहमंत्री के प्रमुख पद तक जा पहुंचे।

1961 में गृह मंत्री के प्रभावशाली पद पर नियुक्ति के बाद उन्हें एक कुशल मध्यस्थ के रूप में प्रतिष्ठा मिली। तीन साल बाद जवाहरलाल नेहरू के बीमार पड़ने पर उन्हें बिना किसी विभाग का मंत्री नियुक्त किया गया और नेहरू की मृत्यु के बाद जून 1964 में वह भारत के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी पहली प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धांतिक न होकर पूरी तरह से व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थी। निष्पक्ष रूप से देखा जाए तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा।

भारत की आर्थिक समस्याओं से प्रभावी ढंग से न निपट पाने के कारण शास्त्री जी की आलोचना भी हुई,लेकिन जम्मू-कश्मीर के विवादित प्रांत पर पड़ोसी पाकिस्तान के साथ 1965 में हुए युद्ध में उनके द्वारा दिखाई गई दृढ़ता के लिए उनकी बहुत प्रशंसा हुई। ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ युद्ध न करने की ताशकंद घोषणा के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उनकी मृत्यु हो गई। शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया।

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