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लाहुल-स्पीति की संस्कृति, रहन सहन व धर्म ….

लाहुल-स्पीति में बौद्ध धर्म का इतिहास

यहां के लोगों का रहन-सहन और यहां के लोगों का धर्म

भारत में भोट बौद्ध संस्कृति को सीमावर्ती बौद्धों ने ही कर रखा है सुरक्षित

लाहुल स्पीति, लद्दाख, किन्नौर, सिक्किम व भुटान के लोगों की एक ही संस्कृति

लाहुल तथा स्पीति दो अलग क्षेत्र है। अतः दोनों क्षेत्रों का इतिहास भी भिन्न

तिब्बती भाषा में ल्ह का मतलब देवता तथा युल का मतलब प्रदेश

ल्ह युल का मतलब देवताओं का प्रदेश

लाहुल क्षेत्र में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित पुरातत्विक प्रमाण ना के बराबर

आदि काल से देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों, और मनुष्यों की मिलीजुली जातियों का संगम स्थल: लाहुल

स्पिति को गोम्पाओं तथा मठों का देश कहना भी अनुचित नहीं

 विक्रम सिंह शाशनी

लाहुल और स्पिति भारत का एक ऐसा क्षेत्र है जिसकी जानकारी बहुत ही कम लोगों

देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों, और मनुष्यों की मिली जुली जातियों का संगम स्थल

को है।यहां की संस्कृति यहां के लोगों का रहन-सहन और यहां के लोगों का धर्मइसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। मुझे आज अपनी संस्कृति के बारे में लिखने का मौका मिला इसे मैं अपनी खुशकिस्मती मानता हूँ। लाहुल स्पिति ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं।

17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लद्दाखी साम्राज्य से अलग होने के बाद लाहुल कुल्लू के मुखिया के हाथों मे चला गया। सन् 1840 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहुल और कुल्लू को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1846 तक उस पर राज किया। सन् 1846 से 1940 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा। सन् 1941 में लाहुल स्पिति को एक उपतहसील बनाकर कुल्लू उपमंडल से संबद्ध कर दिया गया।1960 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने लाहुल-स्पिति को पूरे जिले का दर्जा प्रदान कर दिया और 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद लाहुल-स्पिति जिले को हिमाचल प्रदेश में मिला लिया गया।

प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भारत में भोट बौद्ध संस्कृति को सीमावर्ती बौद्धों ने ही सुरक्षित कर रखा है। यहां की संस्कृति का

संस्कृति यहां के लोगों का रहन सहन और यहां के लोगों का धर्म

इतिहास हज़ारों साल पुराना है। लाहुल-स्पीति, लद्दाख, किन्नौर, सिक्किम और भुटान आदि के लोगों की एक ही संस्कृति है। यहां के लोगों ने अनेक कष्टों को सहते हुए अपनी संस्कृति को संभाल कर रखा है। सभी क्षेत्रों की तरह यहां के लोगों का धर्म भी बौद्ध धर्म ही है। हिमाचल प्रदेश में लाहौल स्पीति व किन्नौर की संस्कृति एक अत्यन्त श्रेष्ठ संस्कृति मानी जा सकती है। क्योंकि यहां की संस्कृति हज़ारों वर्षों पुरानी है। लाहुल तथा स्पिति दो अलग क्षेत्र है। अतः दोनों क्षेत्रों का इतिहास भी भिन्न है।

लाहुल: भारत के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित विभिन्न सुन्दर घाटियों में से एक अत्यन्त सुन्दर घाटी

लाहुल भारत के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित विभिन्न सुन्दर घाटियों में से एक अत्यन्त ही सुन्दर घाटी है। इस घाटी को लाहुल कहने के पीछे मान्यता यह है कि यह प्रदेश आदि काल से देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों, और मनुष्यों की मिली जुली जातियों का संगम स्थल रहा है। इसलिए इसका प्रारम्भिक नाम ल्ह युल पड़ा। तिब्बती भाषा में ल्ह का मतलब देवता तथा युल का मतलब प्रदेश है, अर्थात ल्ह युल का मतलब देवताओं का प्रदेश है। जिसे लोगों द्वारा लाहुल कहा जाने लगा। तिब्बती तथा लद्दाखी लोगों में यह गरजा नाम से प्रसिद्ध है तथा कुछ लोग इसे करजा भी कहते हैं। गरजा शब्द गर तथा जा दो शब्दों की सन्धि से बना है। भोट भाषा में गर का अर्थ नृत्य तथा जा का अर्थ कदम है अर्थात कदमों का नृत्य।यहां के सांस्कृतिक नृत्यों में कदमों का बहुत महत्व है। अत: इस क्षेत्र का नाम गरजा पड़ा। दूसरे शब्दों में करजा भी दो शब्दों के मेल से बना है। कर अर्थात श्वेत तथा जा अर्थात टोपी। कहा जाता है कि प्राचीन काल में लाहुल की संस्कृति में श्वेत टोपी का प्रचलन था। इसी कारण स्थानीय लोग इसे करजा कहने लगे।

ल्ह युल का मतलब देवताओं का प्रदेश

लाहुल क्षेत्र में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित पुरातत्विक प्रमाण ना के बराबर

विद्वानों के अनुसार लाहुल क्षेत्र में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित पुरातत्विक प्रमाण ना के बराबर हैं। वर्तमान काल में त्रिलोकीनाथ मन्दिर के सामने कुछ प्राचीन काल के शिलापट्ट देखे जा सकते हैं। इन शिलापट्टों को देखकर प्रतीत होता है कि कभी वहां पर कोइ विशेष विहार रहा होगा, जहां कालान्तर में केवल मन्दिर ही शेष रह गया है। वहीं पर खुदाई के समय शोधकर्ताओं को तल से आर्य अवलोकितेशवर की एक मुर्ति भी प्राप्त हुई थी तथा विद्वानों के अनुसार विहारों के अवशेष से यह भी प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में भिक्षु यहां निवास करते थे और यहां बौद्ध परम्परा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त लाहुल के कुछ अन्य स्थानों में भी बौद्ध धर्म के प्राचीन अवशेष प्राप्त होने के प्रमाण मिलते हैं जैसे- गन्धोला के विहार का खण्डहर।

कुछ विद्वानों के मत्तानुसार यह भी कहा जाता है कि यहां कुक्कुट देश के राजा महाकप्पिन ने भगवान बुद्ध से अपने दर्शन स्थली होने के कारण एक स्मारक स्वरुप विहार का निर्माण करवाया तथा बौद्ध भिक्षुऔं को इस स्थान पर रहने के लिए कठिनाई का सामना न करना पड़े इसलिए इस विहार की स्थापना की गई थी। भक्त गण जब भगवान बुद्ध के दर्शन करने जाते तो सुगन्धित पुष्प अर्पित करते थे। अत: सुगन्धित पुष्पों के परम्परा के कारण ही भगवान बुद्ध की कुटीगन्धकुटी” कही जाने लगी। सम्भवत: भगवान बुद्ध की गन्धकुटी ही बोल चाल के प्रभाव के कारण ही पहले गुन्धकुटी और फिर गन्धोला मे परिवर्तित हो गई। कहा जाता है कि इस मठ का निर्माण नवीं शताब्दी में किया गया था। यह विद्वानों का मत है।
इसके अतिरिक्त और भी कुछ बातें हैं जिनसे लाहुल में बौद्ध भिक्षुओं के आगमन का पता चलता है। अंग्रेज़ों के समय में गन्धोला के आसपास लोगों को एक पीतल का लोटा मिला था। कहा जाता है कि वह किसी भिक्षु का भिक्षा पात्र था। उस पर अंकित चित्रों के आधार पर विद्वानों ने इसे पहली शताब्दी से लेकर दूसरी शताब्दी के बीच का माना है। विद्वानों ने इसे बौद्ध भिक्षुओं का लाहुल के रास्ते तिब्बत की ओर जाने का प्रमाण माना है। कहा जाता है कि ईसा पुर्व कई बौद्ध भिक्षुओं को विभिन्न जगहों पर भेजा गया था। जिनमें से पांच को हिमवत्त (हिमालय) क्षेत्र की ओर भेजा गया। इसी के आधार पर कहा जाता है कि शायद इन्ही में से किसी का भिक्षा पात्र वहां पर रह गया था तथा इसे लाहुल में बौद्ध भिक्षुओं के होने का प्रमाण भी माना जाता है।

इस प्रकार के अनेक विवरण प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध है। विद्वानों के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों को जानने के तीन स्रोत कहे गए हैं। पुरातत्व, शास्त्र और परम्परा। इन स्रोतों से लाहौल के विभिन्न स्थानों, नदियों, तथा जातियों के बारे में जो जानकारी प्राप्त होती है, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि इस घाटी में बौद्ध धर्म का प्रवेश ईसा पुर्व से होकर वर्तमान काल तक इसका विस्तार होता रहा है।

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