हिन्दू इतिहास की कई कहानियां अपने में समेटे हुए है कांगड़ा किला

इतिहास की कई कहानियां अपने में समेटे हुए “कांगड़ा किला”

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा घाटी में स्थित कांगड़ा किला और कांगड़ा राज्य की सीमाओं के नजदीक सुजानपुर किला अपनी ख़ास अहमियत लिए हुए है। कांगड़ा हिमाचल प्रदेश का ऐतिहासिक नगर व जिला है। प्राचीन काल में त्रिगर्त नाम से विख्यात कांगड़ा हिमाचल की सबसे खूबसूरत घाटियों में एक है। धौलाधर पर्वत श्रृंखला से आच्छादित यह घाटी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रखती है। एक जमाने  में यह शहर चंद्र वंश की राजधानी हुआ करती थी। कांगड़ा का उल्लेख 3500 साल पहले वैदिक युग में मिलता है। पुराण, महाभारत और राजतरंगिणी में इस स्थान का जिक्र किया गया है। यही वजह है कि यहां के किलों का भी अपना ही खास इतिहास है। इस बार हम आपको हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा के विख्यात किलों के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं।

कटोच वंश के शौर्य और वैभव का प्रतीक कांगड़ा किला

कटोच वंश के शौर्य और वैभव का प्रतीक कांगड़ा किला

कांगड़ा किला
कांगड़ा किला हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा घाटी में स्थित है। इस किले का निर्माण कांगड़ा के शाही परिवार ने कराया था। यह किला दुनिया के सबसे पुराने किलों में से एक है जबकि यह भारत का सबसे पुराना किला है। यह किला नगरकोट या कोट कांगड़ा के नाम से प्रसिद्ध है जो पुराने कांगड़ा नगर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है और यह बाणगंगा और पाताल गंगा नदियों जो किले के लिए खाई के रूप में काम करती हैं, के संगम पर खड़ी पहाड़ी के शीर्ष पर बना है। इसी किले के भीतर ब्रजेश्वरी मंदिर है। यह किला बहुत प्राचीन है। इस किले के भीतर वर्तमान अवशेष जैन और ब्राह्मणवादी मंदिर हैं जो नौंवी-दसवीं शताब्दी ईसवी के हो सकते हैं। इतिहास के आख्यान में इसके प्रारंभिक उल्लेख, 1009 ईसवी में मोहम्मद गजनी द्वारा किए गए आक्रमण के समय के हैं। बाद में मोहम्मद तुगलक और उसके उत्तराधिकारी, फिरोजशाह तुगलक ने इस पर क्रमश: 1337 ईसवी और 1351 ईसवी में अपना कब्जा जमाया।
बाणगंगा और मांझी नदियों के ऊपर स्थित कांगड़ा, 500 राजाओं की वंशावली के पूर्वज, राजा भूमचंद की ‘त्रिगर्त’’ भूमि का राजधानी नगर था। कांगड़ा का किला प्रचुर धन-संपति के भण्डार के लिए इतना प्रसिद्ध था कि मोहम्मद गजनी ने भारत में अपने चौथे अभियान के दौरान पंजाब को हराया और सीधे ही 1009 ईसवी में कांगड़ा पहुंचा। विशाल भवन जो राजाओं के लिए कभी चुनौती बने हुए थे, विशेष तौर पर सन 1905 में आए भूकंप के बाद खंडहरों में तबदील हो गए थे। इस किले के प्रवेश मार्ग को बलुआ पत्थर से निर्मित मेहराब के कब्जों से जोड़े गए मोटे काष्ठ के तख्तों का एक बड़ा द्वार लगाकर सुरक्षित किया गया था। इसकी ऊंचाई लगभग 15 फुट है। इसका नाम रणजीत सिंह द्वार है। चट्टानों के बीच काटी गई एक खाई जो बाणगंगा और मांझी नदियों को जोड़ती है, बाहरी दुनिया से इस किले को पृथक करती है। कांगड़ा किले को नगर कोट के नाम से भी जाना जाता है। समुद्र स्तर से 350 फुट की ऊंचाई पर स्थित ये किला 4 किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है। ये किला आज जहां स्थित है उसे पुराना कांगड़ा भी कहा जाता है। कांगड़ा के शासकों की निशानी कांगड़ा किला भूमा चंद ने बनवाया था। वाणगंगा नदी के किनारे बना यह किला 350  फीट ऊंचा है।

भारत के बड़े किलों में गिना जाता है कांगड़ा किला

कांगड़ा के शाही परिवार ने कराया था किले का निर्माण ।

कांगड़ा के शाही परिवार ने कराया था किले का निर्माण ।

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा स्थित किले की गणना भारत के बड़े किलों में की जाती है। भारत के बड़े किलों में इसे आठवां स्थान प्राप्त है। खड़ी पहाड़ी ढलान पर बना यह दुर्ग अपनी निर्माण कला से देखने वालों को अपनी ओर बरबस ही आकर्षित करता है। बाण गंगा व माझी (पाताल गंगा) नदियों के संगम पर तीखी पहाड़ी पर बसा यह दुर्ग देश का प्राचीनतम दुर्ग माना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो लिखित इतिहास में इस किले का वर्णन सन् 1009 से मिलता है। परन्तु मान्यताओं के अनुसार इस किले को महाभारत कालीन माना जाता है। ऐसा भी कहा जाता है कि सुशर्मा चन्द्र, जो कि कांगड़ा के शाही परिवार का 234वां राजा था, ने 1500 ई़पू़ इस दुर्ग का निर्माण करवाया था। सुशर्मा के बारे में कहा जाता है कि उसने महाभारत के युद्ध में कौरवों के पक्ष से युद्ध किया था। इस किले पर अनेक हमले हुए हैं। सबसे पहले कश्मीर के राजा श्रेष्ठ ने 470 ई. में इस पर हमला किया। 1886 में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया। किले के सामने लक्ष्मीनारायण और आदिनाथ के मंदिर बने हुए हैं। किले के भीतर दो तालाब हैं। एक तालाब को कपूर सागर के नाम से जाना जाता है। एक दीर्घावधि तक कटोच राजवंश की वैभवशाली राजधानी रहे कांगड़ा के प्रति सीमांत उत्तरी क्षेत्र के देशी-विदेशी राजाओं और विदेशी आक्रमणकारियों की लुब्ध दृष्टि ने शांत कांगड़ा घाटी को कई बार अशांत किया था।  एक खास बात यह है कि किले में एक के बाद एक कई प्रवेश द्वार हैं, हर प्रवेश द्वार अपनी एक कहानी कहता है। 1620 में जब जहाँगीर ने इसे अपने छल-बल से हथिया लिया तो इसके मौलिक हिन्दू स्वरूप को नष्ट कर मुगलिया पैबन्द लगाने के प्रयास किये गये जिन्हें बड़ी आसानी से पहचाना जा सकता है। इस प्रवेश द्वार के दोनों ओर गंगा और यमुना की ख़ूबसूरत प्रतीकात्मक मूर्तियों को क्षतिग्रस्त कर दिया गया।

किले का प्रवेश द्वार

किले का प्रवेश द्वार

कान के आकार में बने इस दुर्ग को कहा जाता था कानगढ़ 

कान के आकार में बने इस किले की भूल-भुलैया के कारण इस दुर्ग को कानगढ़ कहा जाता था जो समय के साथ कांगड़ा कहलाने लगा। उस समय हिन्दू साम्राज्य के इस किले की समृद्धता व धन सम्पदा की गूंज दूर ईरान, अफगानिस्तान तक थी। गजनी का शासक महमूद इसी धन को लूटने के उद्देश्य से कांगड़ा घाटी में आया। उसने कांगड़ा नगर, नगरकोट देवी के मंदिर व किले को तहस-नहस करके भारी मात्रा में सोना, चांदी, हीरे, मोती व जेवरात प्राप्त किए। महमूद गजनवी ने किले पर अपना किलेदार नियुक्त कर दिया। जिसे दिल्ली के तोमर शासकों ने 1043 में हटा कर किले का नियंत्रण फिर से स्थानीय हिन्दू कटोच शासकों को सौंप दिया। वर्ष 1337 में मुहम्मद तुगलक तथा 1351 में फिरोजशाह तुगलक ने इस किले पर अपना अस्थाई आधिपत्य स्थापित किया। 1556 में अकबर के दिल्ली की गद्दी पर बैठने के पश्चात् यह किला राजा धर्मचंद के पास आ गया। 1563 में उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र माणिक्य चन्द शासक बना। 1571 में अकबर के सेनापति खानजहां ने किले पर आक्रमण किया। परन्तु अकबर कभी भी स्थाई रूप से इस दुर्ग को अपने अधिकार में नहीं रख सका। 1620 में मुगल बादशाह जहांगीर ही अपने गर्वनरों की सहायता से इस किले को फतह कर पाया। उसने अपने विवरणों में इस किले की विजय को बहुत महत्वपूर्ण व महान कहा है। इस युद्ध में 12000 से अधिक कटोच शूरवीर वीरतापूर्वक लड़ते हुए मारे गए। जीत के पश्चात् जहांगीर जनवरी 1622 में कांगड़ा किले में आया। उसे यहां का वातावरण और आबोहवा बेहद पसंद आए। उसने किले में अपने नाम से जहांगीरी दरवाजा व एक मस्जिद का निर्माण करवाया जो आज भी किले में मौजूद हैं। इसके बाद लंबे समय तक यह किला मुगल सेना के कब्जे में रहा। इसे छीनने के सारे प्रयास विफल रहे। वर्ष 1783 में बटाला के सिख सरदार जय सिंह कन्हैया ने मुगल सेना से किला अपने कब्जे में ले लिया। जिसे मैदानी क्षेत्रों के बदले किले को तत्कालीन कटोच राजा संसार चंद (1765-1823) को सौंपना पड़ा। इस प्रकार सदियों के बलिदान के पश्चात् हिंदू कांगड़ा नरेश फिर से दुर्ग में लौट पाए। नेपाल के अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा सेना ने लगभग चार वर्ष तक इस किले की घेराबंदी की। 1809 में गोरखों के विरुद्ध सहायता के आश्वासन पर संधि के अनुसार किला महाराजा रंजीत सिंह को सौंप दिया गया। 1846 तक सिख इस दुर्ग पर काबिज रहे। इसके पश्चात् किला अंग्रेजों के पास आ गया। परन्तु 4 अप्रैल 1905 के भयानक भूकंप से कुछ दिन पूर्व ही अंग्रेज सेना इसे खाली कर चुकी थी।

काँगड़ा किले का दर्शनी गेट

काँगड़ा किले का दर्शनी गेट

विनाशकारी भूकंप से किले को भारी क्षति पहुंची, कई बहुमूल्य कलाकृतियां और इमारतें हो गईं नष्ट 

कांगड़ा के इतिहास के इस सबसे विनाशकारी भूकंप से किले को भारी क्षति पहुंची। इसके कारण कई बहुमूल्य कलाकृतियां, इमारतें नष्ट हो गईं। परन्तु फिर भी यह किला अपने में हिन्दू इतिहास की कई कहानियां समेटे हुए है। आज भी इसे देखने आने वाले, प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला के अद्भुत प्रमाण को देखकर हैरान रह जाते हैं। वर्तमान में भारतीय पुरातत्व विभाग इस दुर्ग की देखभाल कर रहा है। किले में प्रवेश करने के लिए सर्वप्रथम महाराजा रंजीत सिंह द्वार से गुजरना होता है। इससे आगे एक संकरा रास्ता अहिनी दरवाजा तथा अमीरी दरवाजे से होते हुए किले के ऊपर तक जाता है। यहीं बीच में एक बरामदे पर बनी मेहराब में गणेश, महिषासुर मर्दिनी तथा हनुमान की प्रतिमाएं स्थापित हैं। इससे आगे जहांगीर दरवाजा फिर अंधेरी दरवाजा आता है। यहां से देखने पर आसपास की घाटी का अति मनोहारी दृश्य दिखाई पड़ता है। अब आगे दर्शनी दरवाजा आता है। यह एक छोटा सा द्वार है जिससे निकल कर किले के महलों तक पहुंचा जाता था। इस द्वार के दोनों तरफ गंगा व यमुना की प्रतिमाएं लगी हैं। जिन पर समय की मार स्पष्ट दिखाई पड़ती है। द्वार से अंदर आने पर सामने माता अंबिका का मंदिर दिखाई देता है। इसमें माता अंबिका की एक प्राचीन मूर्ति विद्द्मान है। माता अंबिका कटोच राजाओं की कुल देवी मानी जाती हैं। साथ ही एक कक्ष में जैन तीर्थंकर आदिनाथ की भव्य प्रतिमा विराजमान है। इस पर संवत् 1523 (1466)  का अभिलेख अंकित है। जैन श्रद्धालु इस विग्रह का आज भी पूजा अर्चना करते हैं।

कटोच वंश के शौर्य और वैभव का प्रतीक कांगड़ा किला

बनेर और मांझी नदियों के संगम पर स्थित कांगड़ा नगर 1905 के भूकम्प में खण्हडर बन गया, किंतु कटोच राजवंश की शौर्यगाथा सुनाने के लिए ये खण्डहर आज भी पूरी तरह समर्थ हैं। जिला कांगड़ा का जिला मुख्यालय है वहां से मात्र 18 किलोमीटर दूर स्थित धर्मशाला, जहां की धौलागिरि पर्वत चोटियों से निकली हैं जीवनदायिनी छोटी-बड़ी कई नदियां। धौलागिरि और शिवालिक पर्वतों के मध्य स्थित कांगड़ा घाटी अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र रही है। कला की कांगड़ा शैली और लोक संगीत ने हर किसी को मुग्ध किया है।

सुजानपुर किला - अन्दर का दृश्य

सुजानपुर किला – अन्दर का दृश्य

सुजानपुर किला

कांगड़ा राज्य की सीमाओं के नजदीक ही सुजानपुर किला है। सुजानपुर किला, कांगड़ा के सम्राट  राजा अभय चंद के द्वारा 1758 में बनवाया गया, सुजानपुर के हमीरपुर शहर में स्थित खूबसूरत इमारतों में से एक है। किला अपने कई चित्रों के लिए भी लोकप्रिय है। 19वीं सदी के दौरान, कांगड़ा के राजा, संसार चंद, लघु चित्रों की पहाड़ी स्कूल के एक अनुयायी यहां रहते थे। जब सम्राट कांगड़ा को ब्रिटिश के हाथों हार गये तब सुजानपुर किला उनके और उनके परिवार के लिए एक शरण स्थली बन गया। इस किले में 12 कक्ष और एक हॉल हैं। ये कक्ष कांगड़ा में राजा संसार चंद से मिलने आये अन्य राजाओं के लिए बनाये गए थे। ब्यास नदी के तट पर स्थित किले में एक बारादरी हॉल भी है जहां सुनवाई आयोजित की जाती थी। इस किले के बड़े परिसर का प्रयोग अब होली समारोह के लिए किया जाता है, जो रंगों का एक लोकप्रिय हिंदू त्योहार 3 से 4 दिन के लिए मनाया जाता है। यहां के कुछ अन्य लोकप्रिय स्थल नरबदेश्वर, गौरीशंकर और मुरली मनोहर मंदिर हैं।

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