हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में बसा भारत का ऐतिहासिक अंतिम गांव “छितकुल”

किन्नौर जिले में बसा भारत का ऐतिहासिक अंतिम गांव “छितकुल”

तिब्बत भाषा में चूना पत्थर को कहा जाता है “खा”

तिब्बत की भाषा में “खा” को चूना पत्थर कहा जाता है। पुराने जमाने में जब ‘¨हदोस्तान पर तिब्बत के बीच व्यापार होता था,

लोगों का रहन-सहन सीधा-सादा व सरल

लोगों का रहन-सहन सीधा-सादा व सरल

तब इसकी यहां के लोग खरीददारी करते थे। समुद्र तल से 3450 मीटर की उंचाई पर स्थित छितकुल भी भारत के ट्रेड सेंटर में से एक हुआ करता था। 1962 में भारत और चीन के बीच हुए युद्ध के बाद यहां से व्यापार बंद हो गया और अब इस केल्शियम कॉरबोनेट पत्थर को भी भारत के इस अंतिम गांव में नहीं लाया जा सकता है। पहले लोग यमरंग पास से तिब्बत के साथ यहां व्यापार करते थे। चीन के साथ जहां जिला लाहुल-स्पीति की सीमाएं लगती हैं, वहां ऐसे पत्थर मौजूद हैं। यहां के लोग वहां से इसे रिश्तेदारों या स्वयं जाकर ढ़ूंढ लाते हैं। किन्नौर के जंगी गांव में भी ऐसे पत्थर लोगों ने खोजे हैं और आज भी इस त्योहार को लोग शान से मनाते हैं।

 तीन भाइयों ने शुरू किया था त्योहार

गांव में पांच बड़े समुदाय हैं बौगेटो, दारेला, बसयान, थंगचा व यूनू। पुराने जमाने में जब कम समुदाय थे, तब तीन भाइयों के बीच यह त्योहार मनाया जाता था। आज उनके खानदान में विस्तार हुआ है, लेकिन खानदान में से एक घर में इस त्योहार की परंपरा निभाई जाएंगी। फिर अगले साल उस खानदान के दूसरे भाई की बारी आएगी, यह पहले से ही तय है। जिस खानदान में आज एक ही परिवार है, वह हर साल यह त्योहार मनाएगा। सात सौ आबादी वाले इस गांव में श्याम सिंह का परिवार ऐसा है, जो हर बार यह त्योहार मनाता है।

मांस के बनाए जाते हैं कई पकवान

यह जिले का ऐसा गांव माना जाता है जहां साल भर मांस के कई पकवान खाए जाते हैं। इसके अलावा खुशी और गम में पूरीयां और बाड़ी बनाते हैं। फाफरा ओघला के ‘हॉत’ के अलावा यहां जौ के सत्तु खाने का प्रचलन है। गांव के ठीक छोर पर स्थित ‘¨हदोस्तान के आखिरी ढाबे’ नाम से मश्हूर ढाबे में भी ऐसे पकवान परोसे जाते हैं। रीति-रिवाजों को जीवंत बनाने के लिए प्रशासन यहां हमेशा तैयार है। यह पुराना रिवाज आज भी आकर्षण का केंद्र है।

लोगों का रहन-सहन सीधा-सादा व सरल

यहां के लोग बहुत सीधे और भोले हैं और यहां के लोगों का रहन-सहन सीधा-सादा व सरल है। इस छोटे से गांव की गलियों में घूमते हुए ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम आधुनिकता की चकाचौंध को न जाने कितने वर्ष पीछे छोड़ आए हों। ऐसा प्रतीत होता है मानो हम टाइम मशीन में बैठ कर उस युग में पहुंच गए हों जब आदमी ने अपना सही मायने में विकास आरंभ किया था। इस गांव में घरों में वर्षों पुराने बड़े-बड़े ताले लगे देखकर कोई भी अचंभित हुए बिना नहीं रह सकता।

दिल्ली से किन्नौर जाने के लिये बस सेवा

दिल्ली से किन्नौर जाने के लिये एक ही बस जाती है। इस जिले के हेड क्वार्टर रिकांगपिओ तक जाने वाली यह बस शाम को दिल्ली से रवाना होती है और अगली सुबह शिमला पहुंच जाती है। इस रूट (नेशनल हाइवे- 22) पर शिमला से आगे कुफरी, फागू और नारकण्डा तक लगभग सभी पर्यटक जाते हैं, लेकिन इससे आगे का हिमाचल कम ही लोगों ने देखा है। कुछ ही दूर जाने पर सतलुज नदी दिखाई देने लगती है। यह नदी इसी हाइवे के साथ-साथ भारत-तिब्बत सीमा तक चलती रहती है। इसका उदगम स्थल तिब्बत में है। नारकण्डा के बाद रामपुर बुशहर और झाकड़ी आता है। झाकड़ी में नाथपा झाकड़ी हाइडल पावर प्रोजेक्ट नाम से देश का ऐसा सबसे बड़ा प्रोजेक्ट है, जहां पानी से बिजली बनाई जाती है। झाकड़ी के बाद करछम नाम की एक छोटी जगह से बस रिकांगपिओ की तरफ मुड जाती है।

करछम तक हाइवे होने के कारण सड़क लगभग अच्छी हालत में है, लेकिन इसके बाद छितकुल की ओर जाने वाली सड़क थोड़ी संकरी हो जाती है। यह सड़क छितकुल तक बस्पा नदी के साथ चलती रहती है। छितकुल की तरफ से आने वाली यह नदी करछम में आकर सतलुज में मिल जाती है। करछम से लगभग 18 किलोमीटर चलने पर सांगला (2680 मीटर) में सड़क एक नई घाटी में खुलती है, जिसे सांगला घाटी कहा जाता है। चारों तरफ बर्फ से ढके पहाड़ों और उनके ढलानों पर सीढीनुमा खेत और सबसे नीचे बस्पा नदी के किनारे बसा सांगला। यहां की सुन्दरता ही इसे हिमाचल की चुनिन्दा घाटियों में शुमार कर देती है।

सांगला इस घाटी का सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला गांव है। यहां बाकी गांवों की जनसंख्या आमतौर पर 1000 से कम ही है। लगभग 15 किलोमीटर और आगे जाने पर रकछम पड़ता है। यहां से छितकुल सिर्फ दस किलोमीटर दूर रह जाता है। बेशक सांगला और छितकुल से यह गांव बहुत दूर नहीं है, फिर भी यहां की बोली इन जगहों से बिल्कुल अलग है। इतनी अलग कि आसपास के लोग भी रकछम की बोली को नहीं समझ पाते। यहां लगभग सभी मकान लकड़ी के बने हुए हैं। वर्ष 2002 में एक दुर्घटना में पूरा रकछम गांव जल गया था। आज तक यहां के निवासी अपनी जिन्दगी को फिर से बसाने की कोशिश कर रहे हैं।

गांव की पूज्या देवी को  ‘देवी मथी’ (माता देवी) के नाम से पुकारते हैं स्थानीय लोग

आटा पीसने के लिए यहां आज भी घराट इस्तेमाल में लाए जाते हैं। इस गांव से आगे कोई बस्ती नहीं है। गांव की पूज्या देवी

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