दिवाली का पौराणिक महत्व, पंच-पर्वों का त्‍यौहार: दीपावली

दिवाली का पौराणिक महत्व, पंच-पर्वों का त्‍यौहार: दीपावली

कैसे करें बही-खाता पूजन

बही खातों का पूजन करने के लिए पूजा मुहुर्त समय अवधि में नवीन खाता पुस्तकों पर केसर युक्त चंदन से या फिर लाल

कैसे करें बही-खाता पूजन

कैसे करें बही-खाता पूजन

कुमकुम से स्वास्तिक का चिन्ह बनाना चाहिए। इसके बाद इनके ऊपर ‘श्री गणेशाय नम:’ लिखना चाहिए. इसके साथ ही एक नई थैली लेकर उसमें हल्दी की पांच गांठे, कमलगट्ठा, अक्षत, दुर्गा, धनिया व दक्षिणा रखकर, थैली में भी स्वास्तिक का चिन्ह लगाकर सरस्वती मां का स्मरण करना चाहिए।

मां सरस्वती का ध्यान करें। ध्यान करें कि जो मां अपने कर कमलों में घटा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, चन्द्र के समान जिनकी मनोहर कांति है. जो शुंभ आदि दैत्यों का नाश करने वाली है। ‘वाणी’ जिनका स्वरुप है, तथा जो सच्चिदानन्दमय से संपन्न हैं, उन भगवती महासरस्वती का मैं ध्यान करता हूं। ध्यान करने के बाद बही खातों का गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्ध से पूजन करना चाहिए.

जहां पर नवग्रह यंत्र बनाया गया है। वहां पर रुपया, सोना या चांदी का सिक्का, लक्ष्मी जी की मूर्ति या मिट्टी के बने हुए लक्ष्मी-गणेश-सरस्वती जी की मूर्तियां सजायें। कोई धातु की मूर्ति हो तो उसे साक्षात रुप मानकर दूध, दही ओर गंगाजल से स्नान कराकर अक्षत, चंदन का श्रृंगार करके फूल आदि से सजाएं। इसके ही दाहिने और एक पंचमुखी दीपक अवश्य जलायें, जिसमें घी या तिल का तेल प्रयोग किया जाता है।

लक्ष्मी पूजा का स्थान ईशान कोण

मत्स्य पुराण के अनुसार अनेक दीपकों से लक्ष्मीजी की आरती करने को दीपावली कहते हैं। धन-वैभव और सौभाग्य प्राप्ति के लिए दीपावली की रात्रि को लक्ष्मीपूजन के लिए श्रेष्ठ माना गया है। श्रीमहालक्ष्मी पूजन, मंत्रजाप, पाठ तंत्रादि साधन के लिए प्रदोष, निशीथ, महानिशीथ काल व साधनाकाल अनुष्ठानानुसार अलग-अलग महत्व रखते हैं। पूजा के लिए पूजास्थल तैयार करते समय दिशाओं का भी उचित समन्वय रखना जरूरी है।

दिशा: पूजा का स्थान ईशान कोण (उत्तर-पूर्व दिशा) की ओर बनाना शुभ है। इस दिशा के स्वामी भगवान शिव हैं, जो ज्ञान एवं विद्या के अधिष्ठाता हैं। पूजास्थल पूर्व या उत्तर दिशा की ओर भी बनाया जा सकता है।

रंग: पूजास्थल को सफेद या हल्के पीले रंग से रंगें। ये रंग शांति, पवित्रता और आध्यात्मिक प्रगति के प्रतीक हैं।

मूर्तियां: देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा चित्र पूर्व-उत्तर दीवार पर इस प्रकार रखें कि उनका मुख दक्षिण या पश्चिम दिशा की तरफ रहे।

कलश; पूजा कलश पूर्व दिशा में उत्तरी छोर के समीप रखा जाए। हवनकुंड या यज्ञवेदी का स्थान पूजास्थल के आग्नेय कोण (दक्षिण-पूर्व दिशा) की ओर रहना चाहिए।

दीप: लक्ष्मीजी की पूजा के दीपक उत्तर दिशा की ओर रखे जाते हैं।

बैठना: पूजा, साधना आदि के लिए उत्तर या पूर्व या पूर्व-उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना उत्तम है। तंत्रसाधना के लिए पश्चिम दिशा की तरफ मुख रखा जाता है।

श्रीयंत्र दीपावली में दक्षिणवर्ती शंख का विशेष महत्व है। इस शंख को विजय, सुख-समृद्धि व लक्ष्मीजी का साक्षात प्रतीक माना गया है। दक्षिणवर्ती शंख को पूजा में इस प्रकार रखें कि इसकी पूंछ उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रहे। श्रीयंत्र लक्ष्मीजी का प्रिय है। इसकी स्थापना उत्तर-पूर्व दिशा में करनी चाहिए।

मंत्र: लक्ष्मीजी के मंत्रों का जाप स्फटिक व कमलगट्टे की माला से किया जाता है। इसका स्थान पूजास्थल के उत्तर की ओर होना चाहिए। श्री आद्यशंकराचार्य द्वारा विरचित ‘श्री कनकधारा स्रोत’ का पाठ वास्तुदोषों को दूर करता है। दीपावली के दिन श्रीलक्ष्मी पूजन के पश्चात श्रीकनकधारा स्रोत का पाठ किया जाए तो घर की नकारात्मक ऊर्जा का नाश हो जाने से सुख-समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है।

दिवाली की कथा

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