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लाहुल-स्पीति की संस्कृति, रहन सहन व धर्म ….

स्पीति भारत और तिब्बत की सीमा पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र

स्पीति को गोम्पाओं तथा मठों का देश कहना भी अनुचित नहीं

स्पिति भारत और तिब्बत की सीमा पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है जो आजकल हिमाचल प्रदेश का अभिन्न अंग है। किन्तु इस प्रदेश की जानकारी बहुत ही कम लोगों को है। शायद यही कारण है कि यहां के लोगों ने अपनी संस्कृति और अपने रीति-रिवाज़ों को आज तक संभाल कर रखा है। संस्कृति के मामले में स्पीति अभी भी कहीं अधिक समृद्ध क्षेत्र है। स्पीति के इतिहास की बात करे तो पता चलता है कि स्पीति ने भी कई उथल-पुथल झेले हैं। कभी तिब्बत के राजाओं के कारण, कभी लद्दाख के, कभी बुशहर, कभी कुल्लू के राजाओं के आक्रमणों के कारण। परन्तु इसकी संस्कृति पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक झलक से आज भी हमें आकर्षित करता है।
विद्वानों के अनुसार इस पर सबसे पहले पश्चिमी तिब्बत के राजाओं की नज़र पड़ी। क्य़ोकि आज भी पिन घाटी में बुछेन लामाओं

स्पिति को गोम्पाओं तथा मठों का देश कहना भी अनुचित नहीं

द्वारा तिब्बत के राजा पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया जाता है। यह नाटक तिब्बत के तैंतीसवें राजा सोंगच़ेन गम्पो के जीवन पर आधारित है।ज्यादातर विद्वान उनका शासन काल 617ई0 से 650ई0 तक मानते हैं। जिनके शासन काल मे ही तिब्बत मे बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई थी। विद्वानों के मतानुसार स्पीति मे बौद्ध धर्म की उत्पत्ति तथा प्रसार में आचार्य रत्नभद्र का नाम अविस्मरणीय है। भोट भाषा में उन्हें लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के नाम से जाना जाता है। अत: स्पीति के इतिहास के बारे में लिखने से पहले लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के बारे में थोड़ा विवरण देना आवश्यक है। लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो हंगरंग वादी के सुमरा गांव से थे जो तब ग्युगे राज्य का एक भाग था। 1937 में राहुल सांकृत्यायन अपनी यात्रा के दौरान कश्मीर के रास्ते हंगरंग वादी से होकर लद्दाख व स्पिति में आए थे। उन्होंने अपनी यात्राओं के वर्णन में बताया है कि जब वे तिब्बत से स्पिति आये थे तो किन्नर गावों से होकर लौटे थे।
स्पिति को गोम्पाओं तथा मठों का देश कहना भी अनुचित नहीं है। जहां पर बौद्ध भिक्षु बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं। इनमें से ताबो, डंखर, की, करज़ेग, ल्हा-लुङ, गुंगरी आदी प्रमुख हैं। विद्वानों के अनुसार ताबो गोम्पा लोच़ावा रिन्छेन जांगपो द्वारा सन् 996 में देवी देवताओं की कृपा से बनाया गया था। उनकी योजना 108 गोम्पा बनाने की थी किन्तु सुबह होते तक सिर्फ आठ ही बना पाएं। ताबो गोम्पा में हर साल सितम्बर में (छम) मुखोटा नाच भी होता है। कहा जाता है कि राजा यिशे होद ने रिन्छेन ज़ांगपो को 21 युवकों के साथ कश्मीर में संस्कृत पढ़ने के लिए भेजा था तथा बौद्ध ग्रन्थों को लाने का कार्य भी दिया था। बीमारी के कारण 19 युवक काल का ग्रास हुए केवल रिन्छेन ज़ांगपो तथा लेग-पई शेरब ही शिक्षा पुर्ण कर अपने देश लौट पाये थे। रिन्छेन ज़ांगपो ने कंग्युर के कई ग्रन्थो का संस्कृत से तिब्बती भाषा में अनुवाद किया । सन् 1000 में गुगे राज्य में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान हुआ।

किद्-दे-ञिमा-गोन के शासनकाल मे स्पीति लद्दाख का एक हिस्सा था

किद्-दे-ञिमा-गोन के शासनकाल मे स्पीति लद्दाख का एक हिस्सा था। ञिमा-गोन

गोम्पा मे हर साल सितम्बर मे होता है (छम) मुखोटा नाच

ने अपने राज्य को अपने तीन बेटों के बीच बांट दिया। बड़े लड़के को लद्दाख, दूसरे को गुगे और पुरांग, सबसे छोटे को स्पिति तथा जंस्कर दिया। देचुक गोन जो सबसे छोटा था। उसने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाए। उसने राज्य के कुछ गावों को गोम्पाओं तथा कुछ स्थानीय लोगों को बांट दिया। दक्षिणी स्पीति पर कई वर्षों तक गुगे राजाओं का राज रहा। विद्वानों ने गोन वंश के राजाओं का भी वर्णन किया है। इनमे प्रमुख किद्-दे-ञिमा-गोन का वर्णन मिलता है। यह राजा लङ-दरमा का पोता था। इसके बाद लद्दाख और ल्हासा की लड़ाई का भी स्पिति की संस्कृति पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसके बाद कुल्लू के राजा मानसिंह ने स्पीति पर कब्ज़ा किया तथा स्पिति को कुल्लू राज्य में सम्मिलित किया गया। सन् 1941 में लाहौल के साथ मिलाकर इसे उपतहसील का दर्जा दिया गया।

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