किन्नौर में तीन लोक-नृत्य सबसे लोकप्रिय

उत्सवों के अवसरों पर किए जाने वाले नृत्यों की धुनें भी भिन्न-भिन्न

किन्नौर के लोक नृत्यों में बक्यांङ, बङगयार शिमिंग क्यांग, बानयुंगचू वशीमिंग, जापरो, गर, छम, छेरकी क्यांग, थरक्यांग, खार, शुनाक्यांग, नागस कायङ, जाबरो, पुलाशोन, लामा, डबर क्यांग, मोमाहेलङ, तेगोस्वांग, जातरू कयांङ, सांगला, बोनयांचगू, कयाङ, बक्याङ आदि नृत्य शामिल हैं।

किन्नौर क्षेत्र अपने नृत्यों के लिए प्रसिद्ध है। किन्नौर में तीन प्रकार के लोक-नृत्य हैं। इनमें सबसे लोकप्रिय क्यांग है। इस नृत्य में स्त्रियां और पुरुष अर्द्धवृत्ताकार में खड़े होते हैं और बजंतरी अर्द्धवृत के केंद्र में खड़ होते हैं। एक अधेड़ आयु का पुरुष, पुरुषों का नेतृत्व करता है और अधेड़, स्त्री, स्त्रियों का। नृत्य आगे बढ़ता है एक पूर्ण वृत्त बना लिया जाता है जिसमें हर व्यक्ति अपने दांई ओर के तीसरे व्यक्ति का हाथ पकड़ता है। यह गोलाकार समूह धीरे-धीरे घूमता है और अन्तत: नेता हो, हो, हो, होचिल्लाता है और प्रत्येक नर्तक घुटने को मोड़कर आगे झटका लगाता है। नर्तकियां गाती रहती हैं और पहले दो स्त्रियां गाती हैं और शेष सब उनके पीछे दोरहाती जाती हैं। यह नृत्य घंटों तक चलता है।

उत्सवों के अवसरों पर किए जाने वाले नृत्यों की धुनें भी भिन्न-भिन्न

उत्सवों के अवसरों पर किए जाने वाले नृत्यों की धुनें भी भिन्न-भिन्न होती हैं। रणसिंगा, करनाल, शहनाई व ढोल की आरम्भिक धुन जिसमें नृत्य के लिए पृष्ठभूमि तैयार की जाती है। देवताओं का आह्वान तथा उन्हें मंदिर से बाहर निकालने के लिए धुन। देवताओं को मंदिर प्रांगण में पहुंचाने की परिक्रमा करवाने तथा मन्दिर में घुमाने की धुन, देवता के रथङ यानि पालकी को समतल भूमि तथा उतराई वाले स्थान, चढ़ाई पर ले जाने की धुन, नदी व नाले के पुल से पार पहुंचने की धुन, देवता के ग्रोक्च यानि गूर के आवेश में आने की धुन, तूरङ्, ढोल के साथ उत्सवों तथा फागुली, दीवाली, तथा बीशू आदि की धुनें, फुल्याच उत्सव की धुन, डकरेणी उत्सव की धुन, चैत्रोल व दीवाली यानि बूढ़ी दीवाली की धुनें, साजी यानि संक्रांति की धुन, मृत्यु सूचना की धुन, प्रसन्नता के शुभ समय की धुन, दङ् उखिङ् यानि समाप्ति के फुल्याच की धुन, विवाह उत्सव की धुन।

बाक्यांग नृत्य

दूसरी प्रकार का नृत्य बाक्यांग कहलाता है। जिसमें नर्तकों की दो या तीन पंक्तियां रहती हैं। एक पंक्ति  के नर्तक तालयुक्त गति से  आगे बढ़ते हैं और दूसरी पंक्ति के नर्तक पीछे हटते हैं इसके पश्चात इन अंग-परिचालनों को विपरीत दिशा में दोहराया जाता है। यह नृत्य प्राय: स्त्रियां ही करती हैं।

बोन्यागॉंयू नृत्य

किन्नौर का तीसरी तरह का नृत्य बोन्यागॉंयू कहलाता है। यह एक प्रकार का मुक्त नाच होता है जिसमें पुरुष बजन्तरियों की लय पर अथवा किसी चुने हुए वाद्य-यंत्र की लय पर नाचते हैं। यह मूलत: पुरुषों का नाच है जिसमें स्त्रियां कभी-कभी बाहर रहकर गाकर सहयोग दती हैं।

  • किन्नौर क्षेत्र में च्खोनछ के मुखौटा नृत्य तथा लोक नाटय लोकप्रिय

प्राचीन काल में जब मनोरंजन के साधन कम थे तब लोक नाटक का प्रचलन अधिक होता था। सामाजिक जीवन में लोकगीत तथा लोककथा के पश्चात लोक नाट्य तथा लोक नृत्य का प्रमुख स्थान है। किन्नौर क्षेत्र में च्खोनछ के मुखौटा नृत्य तथा लोक नाटय लोकप्रिय हैं। बौद्ध धर्म के लोकनाटय बूचेन अथवा बूछेन प्रचलित है। लामाओं के मुखौटा नृत्य भी लोक नाटयों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

कायङ् किन्नौर का लोकप्रिय नृत्य

माला नृत्य में नर्तक मानव-माला बनाने में देता है सहयोग

कायङ् किन्नौर का लोकप्रिय नृत्य है। कायङ् शब्द को भारतीय आर्य भाषा परिवार से सम्बद्ध मानना उपयुक्त प्रतीत होता है। काया अथवा काय का अर्थ शरीर है। नृत्य कला के साथ शब्द का अर्थ शरीर प्रदर्शन के साथ जुड़ता है। कायङ का सामान्य अर्थ नृत्य अथवा लोक नृत्य हुआ। कायङ माला नृत्य है। किन्नर क्षेत्र के लोकगीत प्रश्रोतर के रूप में होते हैं। नाचते समय नर्तक एक दूसरे को ऐसे पकड़ते हैं कि माला की लड़ी की तरह एक दूसरे के बाजुओं का गुणा का चिन्ह सा बन जाता है। एक नर्तक दूसरे नर्तक के दाएं हाथ को बाएं हाथ से थामता है और अपना दायां हाथ बाएं हाथ के नर्तक को थमाता है। प्रत्येक नर्तक अपने बाएं व दाएं नर्तकों से जुड़ा रहता है। माला नृत्य में नर्तक अपने दोनों हाथों का प्रयोग करके मानव-माला बनाने में सहयोग देता है। केवल प्रथम नर्तक जिसे धुरे अर्थात मुखिया कहा जाता है, अपने हाथ में चंवर झुलाता हुआ नृत्य करता है।

फुल्याच : यह फूलों के उत्सव के अवसर पर आयोजित फूलों का नृत्य है

शुनाक्यांग, : इस नृत्य में नर्तक कभी इतना तेज दौड़ते हैं कि हांफने लगते हैं और दूसरी ही क्षण इतने मन्द गति से नृत्य करते हैं कि उनके पांव एक दूसरे से टकराने लगते हैं। शुनाक्यांग उन्हीं गांवों में आयोजित होता है जहां राक्षसों से सम्बन्धित जन कथाएं अधिक प्रचलित हैं।

पान्यस क्यांग : फागुली उत्सव के अवसर पर सांगला तथा अन्य गांवों में इस नृत्य को आयोजित करने की परम्परा है। तुरङ विशेष ढोलक जिसे देव मंदिर से बाहर ले जाने की आज्ञा नहीं होती, के बजने पर महिला व पुरूष कलाकार एक दूसरे का हाथ पकड़ कर नृत्य मुद्रा में सन्थङ मंदिर प्रांगण में आते हैं। वे परिसर के तीन या छ: अथवा नौ चक्कर लगाकर मेला सम्पन्न करते हैं। गोल दायरे में नाचते हैं। तरङ वाद्य यंत्र मंदिर से इसी अवसर पर निकाला जाता है। पान्यस कायङ पाण्डव नृत्य है। उत्सव के पश्चात सौनिगे  यानि देवियों का गांव में रूके रहना शुभ नहीं माना जाता।

थरक्यांग : इस नृत्य में कलाकार बाघ की भांति तेजी से आगे व पीछे जाते हुए नृत्य करें तो नृत्य का थरक्यांग कहा जाता है। थरक्यांग विशेष प्रकार की नाटी के आयोजन के समय प्रस्तुत किया जाता है। नृत्य के अवसर पर बाघ का शिकार करने वाले शिकारी को सम्मान स्वरूप सफेद पगड़ी पहनाकर तथा मृत बाघ की खाल में भूसा भरकर विभिन्न गांवों में नचाया जाता है। यह वीरता का नृत्य है और मनोरंजन तथा उत्साह ही इसके उद्देश्य हैं। छेरकी क्यांङ का अर्थ शीघ्रतापूर्वक नृत्य करना है।

नागस कायङ् : यह नृत्य उन गांवों में होता है जहां नाग देवता की पूजा होती है। चगांव में फुल्याच तथा ऐराटङ् उत्सवों में अवसरों के अवसरों पर गांव के बाहर निश्चित स्थान पर इसका आयोजन होता है।

डकरेणी कायङ्: डकरेणी का त्यौहार पूर्वजों की पूजा अर्चना के लिए आयोजित किया जाता है। पांगी गांव की डकरेणी प्रसिद्ध है। लोग गांवों से ऊपर पर्वत शिखरों, जिन्हें स्थानीय भाषा में कण्डा कहा जाता है, पर पूर्वजों के नाम पर स्थापित चबूतरों पर झण्डे चढ़ाते हैं।

गर नृत्य : गर नृत्य में ढोल पर अनेक धुनें बजाई जाती हैं तथा ढोल की लय पर नाचना होता है। देवता का ग्रोक्च यानि माली धुरी में देवता के पवित्र धातुवर्तन को हाथ में लेकर नृत्य करता है। देवी का नाम दोर्जे छेन्मो है। नर्तक केवल चादर, मफलर या रूमाल हाथ में घुमाते हुए दायरा लगाकर नृत्य करते हैं।

बोनयांचगू : इसमें लय व स्वर का बंधन नहीं होता। किन्नौर में मुखौटा नृत्य प्रचलित है। यह बीशू तथा अन्य अवसरों पर आयोजित किया जाता है। सुङरा गांव में बीशू के अवसर पर आयोजित किया जाने वाला राक्षस नृत्य प्रसिद्ध है।

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