“देव कमरूनाग” ...यहां स्थानीय ही नहीं, बल्कि देश-विदेश के लोग भी होते हैं नतमस्तक

हिमाचल: देव कमरूनाग का वर्णन महाभारत से…

झील के गर्भ में समाया है खजाना

सराज क्षेत्र में समुद्रतल से करीब 9 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित कमरूनाग झील में नकदी और सोना-चांदी चढ़ाने की सदियों से

झील के गर्भ में समाया है खजाना

झील के गर्भ में समाया है खजाना

परंपरा रही है। आषाढ़ माह के पहले दिन कमरूनाग मंदिर में सरानाहुली मेले का आयोजन होता है। मेले के दौरान मंडी जिला के बड़ादेव कमरूनाग के प्रति आस्था का महाकुंभ उमड़ता है। मनोकामना पूरी होने पर हर साल यहां सरानाहुली मेले में हजारों लोग अपनी मन्नतें लेकर आते हैं। जिनकी मन्नतें पूरी हो जाती हैं वे झील में अपनी श्रद्धा के अनुसार सिक्के, नोट, सोना-चांदी आदि चढ़ाते हैं। देव कमरूनाग के प्रति लोगों की आस्था इतनी गहरी है कि झील में सोना-चांदी और मुद्रा अर्पित करने की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। मेले के दौरान तो झील के तल पर 50-100 रुपए के नोट तैरते रहते हैं जबकि सोना और अन्य धातु झील में डूब जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि इस झील के गर्भ में करोड़ों का खजाना समाया हुआ है जिसे कोई भी नहीं निकाल सकता।

1911 में अंग्रेज अधिकारी ने की थी खजाना चुराने की नाकाम कोशिश

कहा जाता है कि इस झील से देवता का खजाना भी कोई चुरा नहीं सकता क्योंकि एक कथा है कि एक आदमी ने सोना चुराने के लिए झील के मुहाने पर छेद करके सारा पानी बाहर निकालना चाहा था पर वह आदमी पानी में ही फंस गया और जान से हाथ धो बैठा। ऐसी भी मान्यता है कि यहां पांडवों ने अपनी सारी सम्पत्ति झील में देवता कमरूनाग को समर्पित की थी। जानकार कहते हैं कि सन् 1911 में सीसी गारवेट मंडी राज्य के अंग्रेज अधिकारी ने कमरूनाग की प्रसिद्धि की बातें सुनने पर इस क्षेत्र का दौरा किया था। उसने जब लोगों को झील में अमूल्य वस्तुएं फैंकते हुए देखा तो उसने सोचा कि लोग व्यर्थ में ही इतना धन एवं कीमती वस्तुएं और जेवर झील में फैंकते हैं। क्यों न इस झील से सारा धन निकाल कर राज्य के खजाने में डाल कर इसका सदुपयोग किया जाए। राजा ने भी बात मान ली परंतु पुजारी व भक्तों ने इसका कड़ा विरोध किया। इसके बाद भी राजा और अंग्रेज अधिकारी अपने कार्यकर्ताओं सहित झील की ओर चल पड़े। झील की तरफ चलते ही भयंकर बारिश शुरू हो गई। उन्हें बारिश ने एक कदम भी आगे चलने नहीं दिया। मजबूर होकर उन्हें चच्योट में ही रुकना पड़ा। वहां अंग्रेज अधिकारी ने फल खाया और वह बीमार पड़ गया और उसे दस्त रोग हो गया। लोगों ने जब उन्हें कमरूनाग की शक्ति के बारे में बताया तो वे घबरा गए। अंग्रेज अधिकारी सीसी गारवेट को वापस लौटना पड़ा और वह सीधा इंग्लैंड जाने के लिए मजबूर हो गए। वहां कमरूनाग उसे सपने में आए और उसने देवता को मानना शुरू किया जिसके बाद किसी ब्रिटिश सेना ने झील से सम्पत्ति निकालने की कोशिश नहीं की। कुछ दशक पूर्व एक चोर गिरोह के सदस्य ने गुपचुप चोरी का प्रयास किया लेकिन पकड़े जाने के बाद उसी दिन से वह फिर अंधा हो गया।

कौन हैं देव कमरूनाग

कौन हैं देव कमरूनाग

कौन हैं देव कमरूनाग

महाभारत में ये भी एक प्रसंग है कहा जाता है कि कृष्ण ने रत्नयक्ष योद्धा को मारकर उसका धड़ युद्ध क्षेत्र में अपने रथ की पताका से टांग दिया था ताकि वह महाभारत का युद्ध देख सके लेकिन हुआ यूं कि जिस ओर भी रत्नयक्ष का चेहरा घूमता कौरवों व पांडवों की सेना डर के मारे उसकी हुंकार से भागने लगती। इस पर कृष्ण ने उससे प्रार्थना कर युद्ध में तटस्थ रहने का आग्रह किया ताकि पांडव युद्ध जीत जाएं और वे पांडवों के पूज्य ठाकुर होंगे तो इस बात पर रत्नयक्ष मान गए। बाद में वही हुआ और पांडव युद्ध जीतने के बाद उसे करड़ू (पिटारी में) उठाकर हिमालय की ओर ले आए।

मंडी के नलसर में पहुंचने पर वहां भूमि गंदर्भ ध्वनि के कारण उन्होंने पांडवों को एकांत स्थान में ले जाने का आग्रह किया। अंतत: वे उसे कमरूघाटी में ले गए और वहां एक पुहाल (भेड़पालक) की सादगी से रत्नयक्ष प्रभावित हुआ और वहीं ठहरने की जिद की। रत्नयक्ष ने उस भेड़पालक व पांडवों को बताया कि वह इसी प्रदेश में त्रेतायुग में पैदा हुए थे और मैंने एक नाग भक्तिनी नारी के गर्भ में 9 पुत्रों के साथ जन्म लिया था। हमारी मां हमें एक पिटारे में रखती थी और एक दिन पिटारा यह जानकार अतिथि महिला के हाथ से गिर गया कि इसमें सांप के बच्चे हैं और हम आग में गिर गए और जान बचाने को मैं यहां झील किनारे कुंवर घास (झाड़ियों) में छिप गया। बाद में माता ने मुझे यहां ढूंढ लिया तो मेरा नाम कुंवरूनाग रख दिया। मैं वही कुंवरूनाग इस युग में रत्नयक्ष राजा बन गया हूं।

  • ऐसे पहुंचे कमरूनाग

कमरूनाग घाटी मंडी शहर से लगभग 70 किलोमीटर दूर है जहां पहुंचने के लिए 6 घंटे का पैदल रास्ता चढ़ना पड़ता है। पूरी घाटी अपने आप में अपार प्राकृतिक सौन्दर्य लिए हुए है। झील पर सर्दियों में बर्फबारी भी होती है जिस कारण साल में 3 महीने के लिए यहां जाना लगभग बंद होता है। मंडी या सुंदरनगर से धनोटू होकर रोहांडा और वहां से लगभग डेढ़-2 घंटे की पैदल चढ़ाई चढ़ कर भी कमरूनाग पहुंचा जा सकता है। चूंकि श्रद्धालुओं का एक अटूट तांता यहां चलता रहता है, वनों की खूबसूरती व मनमोहक दृश्यवलियां नजर आती रहती हैं, ऐसे में बच्चे, बूढ़े और औरतें सब आसानी से इस चढ़ाई को पार कर लेते हैं। इसके लिए डडौर से वाया चैलचौक होकर भी जाया जा सकता है। चैलचौक से आगे मां जालपा मंदिर होकर भी कमरूनाग के लिए रास्ता है। ज्यूणी घाटी के जहल, कांढी व धंगयारा से भी रास्ते हैं। यह स्थल काफी ऊंचाई पर होने की वजह से यहां मेले के दौरान मौसम खराब होने पर ठंड भी हो जाती है। देवदार के घने जंगलों से घिरी यह झील प्रकृति प्रेमियों को अभिभूत कर देती है। झील तक पहुँचने का रास्ता भी बहुत सुरम्य है और यहाँ के लुभावने दृश्यों को देखकर पर्यटक अपनी सारी थकान भूल जाता है।

कमरूनाग झील के किनारे पहाड़ी शैली में निर्मित कमरूनाग देवता का प्राचीन मंदिर  है, जहाँ पत्थर की प्रतिमा स्थापित है। प्रत्येक वर्ष जून माह में यहाँ भारी मेला लगता है। हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले में स्थित इस झील में अरबों का खजाना होने का अनुमान है। यह खजाना किसी ने छिपाया नहीं है, बल्कि लोगों ने ही आस्‍थावश यहाँ आभूषण आदि झील के हवाले कर दिये। कमरूनाग झील को महाभारत काल का बताया जाता है। लोग यहाँ अपनी मनोकामना के लिए आते हैं और झील में आभूषण तथा रुपये आदि डालते हैं। यहाँ के लोगों का मानना है कि झील के अंदर कितना खजाना छिपा है, इसका अनुमान लगाना कठिन है। झील में सदियों से सोना-चांदी चढ़ाने की परंपरा का निर्वहन हो रहा है। खजाने के कारण रहस्यमयी कमरूनाग झील सुर्खियों में है। आषाढ़ माह में यहाँ ‘सररानाहुली मेले’ का आयोजन किया जाता है। पूरे भारत से लोग यहाँ अपनी मनोकामना पूरी करने के लिए आते हैं और झील में सोना-चांदी अर्पित करते हैं।

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