आज भी जीवित है लाहौल-स्पीति में बौद्ध सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन इतिहास

हिमाचल: आज भी कायम है लाहौल-स्पीति में बौद्ध सभ्यता और संस्कृति का प्राचीन इतिहास

लाहौली जनजाति के खान-पान में भी भारतीय और तिब्बती परंपरा के असर दिखाई देते हैं। लाहौली लोगों के सुबह के नाश्ते को शेमा कहते हैं, जिसमें थुंग्पा नामक व्यंजन खाया जाता है। थंग्पा जौ के भुने हुए आटे से बनता हैयह शाकाहारी और मांसाहारी दोनों विधियों से बनाया जाता है, फर्क सिर्फ एक है, एक में सब्जी मिली होती है

 खान-पान में भी भारतीय और तिब्बती परंपरा का असर

खान-पान में भी भारतीय और तिब्बती परंपरा का असर

और दूसरे में मांस। लाहौलियों के दोपहर के भोजन को छिक्किन’ कहते हैं। छिक्किन’ में जौ के भुने हुए आंटे की रोटियों के साथ आलू की सब्जी होती है। आलू लाहौलियों का पारंपरिक खाना नहीं है, लेकिन गुजरते वक्त के साथ आलू ने भी लाहौली थाली में अपना स्थान बना लिया है। छिक्किन खत्म होने के बाद बारी आती है छांछ की। छांछ लाहौली लोगों के दोपहर के खाने में जरूर शामिल होती है। रात के खाने को लाहौलियों ने यंग्स्किन नाम दिया। रात का यह खाना छिक्किन यानी दोपहर के खाने की तरह ही होता। इसमें केवल छांछ को नहीं शामिल किया जाता है। जाड़े के दिनों में इन्हें मांस मिलने में कठिनाई नहीं हो, इसके लिए ठंड आने से पहले ही मांस को सुखा कर रख लेते हैं। मांस के संरक्षण की यह विधि लाहौलियों के परंपरा की विशेषता है।

इसके अलावा इनके खान-पान में दो और महत्वपूर्ण चीजें शामिल होती हैं, जो इनके दैनिक जीवन का हिस्सा तो है ही , साथ ही मेहमानवाजी के लिए भी बखूबी इस्तेमाल होती है मक्खन की नमकीन चाय और जौ से बनी इनकी अपनी बीयर यानी छंग और अराक। मक्खन की नमकीन चाय के साथ-साथ छंग और अराक पीने का कोई निश्चित समय नहीं होता। दिल जब करे बैठ जाए, हाथों में प्याला मक्खन की चाय या छंग या अराक।

रसोई के बर्तन, अतीत से वर्तमान तक के

लाहौलियों की रसोई के बर्तन भी इनके अतीत से वर्तमान तक के सफर दास्तां बयां करते हैं। पुराने समय में लाहौली जनजाति के लोग पत्थरों के बर्तन का प्रयोग करते थे। उन बर्तनों में कुंपड अपनी विशेष पहचान रखता था। समय के साथ-साथ बर्तनों में भी परिर्वतन आने शुरू हुए और बर्तनों ने पत्थर की बजाय लकड़ी की शक्ल ले ली। लकड़ी के ऐसे ही बर्तनों में ‘डांगमों’ का प्रयोग नमकीन और मक्खनियां चाय बनाने के लिए किया जाता है।

आज बर्तनों को वर्तमान स्वरूप पत्थर और लकड़ी को छोड़कर धातु  का रूप ले चुका है। दुनिया के रंग ढंग में ढलते हुए लाहौली रसोई में भी कांसे, पीतल, अल्यूमिनियम और स्टील के बर्तन दाखिल हो चुके हैं, जो किसी भी घर के लिए सामान्य हैं। परन्तु लाहौली जनजाति के लोगों ने अपनी जीवटता और मेहनत के बल पर पत्थरों से अन्न उपजाया है।

एक मौसम में एक ही फसल क मौसम में एक ही फसल खेती ,एक मौसम में एक ही फसल

लाहौल घाटी में आलू, होय, कुथ, जौ, मेथी और गेहूं की खेती प्रमुखता से की जाती है। लाहौल में केवल बीस फीसदी जमीन ही कृषि कार्यों के लिए है। उनमें जमीनों को भी दो भागों में बांटा गया है। एक तो वह जहां सिंचाई हो सके और दूसरी जहां सिंचाई की सुविधा नहीं है। लाहौल के लिए मौसम भी एक बड़ी चुनौती है और इस चुनौती का डटकर मुकाबला करते हुए लाहौली एक मौसम में एक ही फसल पैदा कर पाते हैं। खेती के जी तोड़ मेहनत में भी लाहौली गाना-गुनगुनाना नहीं भूलते हैं। फसलों की बुआई हो या कटाई लाहौली झूमते हैं….गाते हैं….और जश्न मनाते हैं।

सर्दियों में लाहौलियों का पसंदीदा काम होता है कपड़ों की बुनाई

हर लाहौली घर में हथकरघों पर होती है बुनाई

हर लाहौली घर में हथकरघों पर होती है बुनाई

पशुपालन लाहौली जनजाति का हिस्सा है। लाहौली लोग याक, खच्चर, गाय, भेड़ और बकरे -बकरियों का पालन करते हैं। इन पशुओं में भेड़ और बकरियों का प्रयोग मांस प्राप्त करने के लिए किया जाता है। ठंड भरे जाड़े के दिनों में लाहौली जनजाति के लोग जब घरों से बाहर नहीं निकलते, तो उनका पसंदीदा काम होता है कपड़ों की बुनाई। लगभग हर लाहौली घर में हथकरघों पर बुनाई होती है। भेड़ के ऊन से लाहौली लोग अपने पहनावे के लिए गरम कपड़े तैयार करते है। परंपरागत शैली के कपड़े इनकी सभ्यता के भी परिचायक हैं।

 ‘त्सोग्बे लाहौलियों का पसंदीदा खेल

मनोरंजन और खेलकूद हर किसी समाज का अहम हिस्सा होता है। लाहौली लोगों  के मनोरंजन की अपनी खास विधाएं है। इनके खेलों पर भारतीय और तिब्बती परंपरा की विशेष छाप दिखाई देती है। शतरंज की तरह खेले जाने वाला ‘त्सोग्बे’ लाहौलियों का पसंदीदा खेल है। शतरंज की तरह ही इस खेल में राजा वजीर सिपाही से दिमागी कसरत की जाती है। त्सोग्बे की तरह ही गोटों खेल भी लाहौलियों को खूब रास आता है। पत्थरों की गोटियों से खेले जाने वाला यह खेल भी शतरंज की तरह खेला जाता  है।

जारी……………

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3 Responses

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  1. विक्रम सिंह शाशनी
    Sep 17, 2015 - 08:13 PM

    लाहुल स्पिति मे बौद्ध धर्म का इतिहास
    लाहुल और स्पिति भारत का एक ऐसा क्षेत्र जिसकी जानकारी बहुत ही कम लोगों को है।“यहां की संस्कृति यहां के लोगों का रहन सहन और यहां के लोगों का धर्म”, इनके बारे मे बहुत कम लोग जानते हैं। मुझे आज अपनी संस्कृति के बारे में लिखने का मौका मिला इसे मैं अपनी खुशकिस्मती मानता हूँ। लाहुल स्पिति ने अनेक उतार चढाव देखे हैं।17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लद्दाखी साम्राज्य से अलग होने के बाद लाहुल कुल्लू के मुखिया के हाथों मे चला गया। सन् 1840 में महाराजा रणजीत सिंह ने लाहुल और कुल्लू को जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया और 1846 तक उस पर राज किया। सन् 1846 से 1940 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा। सन् 1941 में लाहुल स्पिति को एक उपतहसील बनाकर कुल्लू उपमंडल से संबद्ध कर दिया गया।1960 में तत्कालीन पंजाब सरकार ने लाहुल-स्पिति को पूरे जिले का दर्जा प्रदान कर दिया और 1966 में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के बाद लाहुल-स्पिति जिले को हिमाचल प्रदेश में मिला लिया गया।
    प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भारत में भोट बौद्ध संस्कृति को सीमावर्ती बौद्धों ने ही सुरक्षित कर रखा है। यहां की संस्कृति का इतिहास हज़ारों साल पुराना है। लाहुल स्पिति, लद्दाख, किन्नौर, सिक्किम,और भुटान, आदि के लोगों की एक ही संस्कृति है। यहां के लोगों ने अनेक कष्टों को सहते हुए अपनी संस्कृति को संभाल कर रखा है। सभी क्षेत्रों की तरह यहां के लोगों का धर्म भी बौद्ध धर्म ही है। हिमाचल प्रदेश में लाहौल स्पिती तथा किन्नौर की संस्कृति एक अत्यन्त श्रेष्ट संस्कृति मानी जा सकती है। क्योंकि यहां की संस्कृति हज़ारों वर्षों पुरानी है। लाहुल तथा स्पिति दो अलग क्षेत्र है। अतः दोनो क्षेत्रों का इतिहास भी भिन्न है।
    लाहुल
    लाहुल भारत के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित विभिन्न सुन्दर घाटियों में से एक अत्यन्त ही सुन्दर घाटी है। इस घाटी को लाहुल कहने के पीछे मान्यता यह है कि यह प्रदेश आदि काल से देवताओं, गन्धर्वों, किन्नरों, और मनुष्यों की मिली जुली जातियों का संगम स्थल रहा है। इसलिए इसका प्रारम्भिक नाम ल्ह युल पड़ा। तिब्बती भाषा मे ल्ह का मतलब देवता तथा युल का मतलब प्रदेश है, अर्थात ल्ह युल का मतलब देवताओं का प्रदेश है। जिसे लोगों द्वारा लाहुल तथा कहा जाने लगा। तिब्बती तथा लद्दाखी लोगों में यह गरजा नाम से प्रसिद्ध है। तथा कुछ लोग इसे करजा भी कहते हैं। गरजा शब्द गर तथा जा दो शब्दों की सन्धि से बना है। भोट भाषा मे गर का अर्थ नृत्य तथा जा का अर्थ कदम है अर्थात कदमों का नृत्य। य़हाँ की सांस्कृतिक नृत्यों मे कदमों का बहुत महत्व है। अत: इस क्षेत्र का नाम गरजा पड़ा। दुसरे शब्दों में करजा भी दो शब्दों के मेल से बना है। कर अर्थात श्वेत तथा जा अर्थात टोपी। कहा जाता है कि प्राचीन काल मे लाहुल की संस्कृति में श्वेत टोपी का प्रचलन था। इसी कारण स्थानीय लोग इसे करजा कहने लगे।
    विद्वानों के अनुसार लाहुल क्षेत्र में बौद्ध धर्म से सम्बन्धित पुरातत्विक प्रमाण ना के बराबर हैं। वर्तमान काल में त्रिलोकीनाथ मन्दिर के सामने कुछ प्राचीन काल के शिलापट्ट देखे जा सकते हैं। इन शिलापट्टों को देखकर प्रतीत होता है कि कभी वहां पर कोइ विशेष विहार रहा होगा,जहाँ कालान्तर में केवल मन्दिर ही शेष रह गया है। वहीं पर खुदाई के समय शोधकर्ताओं को तल से आर्य अवलोकितेशवर की एक मुर्ति भी प्राप्त हुई थी। तथा विद्वानों के अनुसार विहारों के अवशेष से यह भी प्रमाणित होता है कि प्राचीन काल में भिक्षु यहाँ निवास करते थे। और यहाँ बौद्ध परम्परा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त लाहुल के कुछ अन्य स्थानो में भी बौद्ध धर्म के प्राचीन अवशेष प्राप्त होने के प्रमाण मिलते हैं। जैसे- गन्धोला के विहार का खण्डहर। कुछ विद्वानों के मत्तानुसार यह भी कहा जाता है कि यहाँ कुक्कुट देश के राजा महाकप्पिन ने भगवान बुद्ध से अपने दर्शन स्थली होने के कारण एक स्मारक स्वरुप विहार का निर्माण करवाया तथा बौद्ध भिक्षुऔं को इस स्थान पर रहने के लिए कठिनाई का सामना न करना पड़े इसलिए इस विहार की स्थापना की गई थी। भक्त गण जब भगवान बुद्ध के दर्शन करने जाते तो सुगन्धित पुष्प अर्पित करते थे। अत: सुगन्धित पुष्पों के परम्परा के कारण ही भगवान बुद्ध की कुटी “गन्धकुटी कही जाने लगी। सम्भवत: भगवान बुद्ध की गन्धकुटी ही बोल चाल के प्रभाव के कारण ही पहले गुन्धकुटी और फिर गन्धोला मे परिवर्तित हो गई। कहा जाता है कि इस मठ का निर्माण नवीं शताब्दी में किया गया था। यह विद्वानो का मत है।
    इसके अतिरिक्त और भी कुछ बातें हैं जिनसे लाहुल मे बोद्ध भिक्षुओं के आगमन का पता चलता है। अंग्रेज़ों के समय में गन्धोला के आसपास लोगों को एक पीतल का लोटा मिला था। कहा जाता है कि वह किसी भिक्षु का भिक्षा पात्र था। उस पर अंकित चित्रों के आधार पर विद्वानों ने इसे पहली शताब्दी से लेकर दूसरी शताब्दी बीच का माना है। विद्वानो ने इसे बोद्ध भिक्षुओं का लाहुल के रास्ते तिब्बत की ओर जाने का प्रमाण माना है। कहा जाता है कि ईसा पुर्व कई बोद्ध भिक्षुओं को विभिन्न जगहों पर भेजा गया था। जिनमे से पाँच को हिमवत्त (हिमालय) क्षेत्र की ओर भेजा गया। इसी के आधार पर कहा जाता है कि शायद इन्ही मे से किसी का भिक्षा पात्र वहाँ पर रह गया था। तथा इसे लाहुल मे बोद्ध भिक्षुओं के होने का प्रमाण भी माना जाता है।
    इस प्रकार के अनेक विवरण प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों में उपलब्ध है। विद्वानों के अनुसार ऐतिहासिक तथ्यों को जानने के तीन स्रोत कहे गए हैं। पुरातत्व, शास्त्र और परम्परा। इन स्रोतों से लाहौल के विभिन्न स्थानों, नदियों, तथा जातियों के बारे मे जो जानकारी प्राप्त होती है, उनके आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि इस घाटी में बौद्ध धर्म का प्रवेश ईसा पुर्व से होकर वर्तमान काल तक इसका विस्तार होता रहा है।
    स्पिति
    स्पिति भारत और तिब्बत की सीमा पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है। जो आजकल हिमाचल प्रदेश का अभिन्न अंग है। किन्तु इस प्रदेश की जानकारी बहुत ही कम लोगों को है। शायद यही कारण है कि यहाँ के लोगों ने अपनी संस्कृति और अपने रिति रिवाज़ों को आज तक संभाल कर रखा है। संस्कृति के मामले में स्पिति अभी भी कहीं अधिक समृद्ध क्षेत्र है। स्पिति के इतिहास की बात करे तो पता चलता है कि स्पिति ने भी कई उथल पुथल झेले हैं। कभी तिब्बत के राजाओं के कारण ,कभी लद्दाख के , कभी बुशहर, कभी कुल्लू के राजाओं के आक्रमणों के कारण । परन्तु इसकी संस्कृति पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह क्षेत्र अपनी सांस्कृतिक झलक से आज भी हमें आकर्षित करता है।
    विद्वानों के अनुसार इस पर सबसे पहले पश्चिमी तिब्बत के राजाओं की नज़र पड़ी। क्य़ोकि आज भी पिन घाटी में बुछेन लामाओं द्वारा तिब्बत के राजा पर आधारित नाटक प्रस्तुत किया जाता है। यह नाटक तिब्बत के तैंतीसवें राजा सोंगच़ेन गम्पो के जीवन पर आधारित है।ज्यादातर विद्वान उनका शासन काल 617ई0 से 650ई0 तक मानते हैं। जिनके शासन काल मे ही तिब्बत मे बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई थी। विद्वानों के मतानुसार स्पिति मे बौद्ध धर्म की उत्पत्ति तथा प्रसार में आचार्य रत्नभद्र का नाम अविस्मरणिय है। भोट भाषा मे उन्हें लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के नाम से जाना जाता है। अत: स्पिति के इतिहास के बारे मे लिखने से पहले लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो के बारे मे थोड़ा विवरण देना आवश्यक है। लोच़ावा रिन्छेन ज़ाङपो हंगरंग वादी के सुमरा गांव से थे। जो तब ग्युगे राज्य का एक भाग था। 1937 मे राहुल सांकृत्यायन अपनी यात्रा के दौरान कश्मीर के रास्ते हंगरंग वादी से होकर लद्दाख व स्पिति मे आए थे। उन्होने अपनी यात्राओं के वर्णन मे बताया है कि जब वे तिब्बत से स्पिति आये थे तो किन्नर गावों से होकर लौटे थे।
    स्पिति को गोम्पाओं तथा मठों का देश कहना भी अनुचित नहीं है। जहाँ पर बौद्ध भिक्षु बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं। इनमे से ताबो ,डंखर ,की ,करज़ेग ,ल्हा-लुङ ,गुंगरी आदी प्रमुख हैं। विद्वानों के अनुसार ताबो गोम्पा लोच़ावा रिन्छेन जांगपो द्वारा सन् 996 में देवी देवताओं की कृपा से बनाया गया था। उनकी योजना 108 गोम्पा बनाने की थी किन्तु सुबह होते तक सिर्फ आठ ही बना पाएं। ताबो गोम्पा मे हर साल सितम्बर मे (छम) मुखोटा नाच भी होता है। कहा जाता है कि राजा यिशे होद ने रिन्छेन ज़ांगपो को 21 युवकों के साथ कश्मीर में संस्कृत पढ़ने के लिए भेजा था तथा बौद्ध ग्रन्थों को लाने का कार्य भी दिया था। बिमारी के कारण 19 युवक काल का ग्रास हुए केवल रिन्छेन ज़ांगपो तथा लेग-पई शेरब ही शिक्षा पुर्ण कर अपने देश लौट पाये थे। रिन्छेन ज़ांगपो ने कंग्युर के कई ग्रन्थो का संस्कृत से तिब्बती भाषा मे अनुवाद किया । सन् 1000 मे गुगे राज्य में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान हुआ।
    किद्-दे-ञिमा-गोन के शासनकाल मे स्पिति लद्दाख का एक हिस्सा था। ञिमा-गोन ने अपने राज्य को अपने तीन बेटों के बीच बांट दिया। बड़े लड़के को लद्दाख, दूसरे को गुगे और पुरांग, सबसे छोटे को स्पिति तथा जंस्कर दिया। देचुक गोन जो सबसे छोटा था। उसने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाए। उसने राज्य के कुछ गावों को गोम्पाओं तथा कुछ स्थानीय लोगों को बांट दिया। दक्षिणी स्पिति पर कई वर्षो तक गुगे राजाओं का राज रहा। विद्वानों ने गोन वंश के राजाओं का भी वर्णन किया है। इनमे प्रमुख किद्-दे-ञिमा-गोन का वर्णन मिलता है। यह राजा लङ-दरमा का पोता था। इसके बाद लद्दाख और ल्हासा की लड़ाई का भी स्पिति की संस्कृति पर बहुत प्रभाव पड़ा। इसके बाद कुल्लू के राजा मानसिंह ने स्पिती पर कब्ज़ा किया तथा स्पिति को कुल्लू राज्य मे सम्मिलित किया गया। सन् 1941 मे लाहौल के साथ मिलाकर इसे उपतहसील का दर्जा दिया गया।

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  2. विक्रम सिंह शाशनी
    Sep 17, 2015 - 08:21 PM

    मै बनारस तिब्बती विश्व विद्यालय मे अध्ययनरत छात्र हूंँ , मुझे यह जानकर अतयन्त गर्व महसूस हो रहा है कि मेै आज भी ऐसे धर्म तथा ऐसे समाज का हिस्सा हूँ.

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  3. ashish mishra
    Aug 17, 2016 - 02:23 AM

    mujhe bhi aj bahut harsh ho rha hai yah jankar ki hamari sanskriti ko kitna acche tareeke se dekhbhal karte hai ham log mai abhi banaras hindu university se addyan kar rha hu

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