12 साल में एक बार मनाया जाता है हिमाचल का प्राचीन व रोचक उत्सव "भुण्डा"

हिमाचल का प्राचीन व रोचक उत्सव “भुण्डा”

70-80 दशक में “भुण्डा” की तिथि आने से तीन महीने पहले भुण्डा पर्व में रस्सी पर चढऩे वाले व्यक्ति जिसे ज्याली या जैड़ी कहा जाता है, को “भुण्डा” यज्ञ वाले गांव में आमंत्रित किया जाता था। बेड़ा जाति के जिस भी व्यक्ति को इस कार्य के लिए चुना जाता था, वह परिवार के सदस्यों सहित गांव देवता के मंदिर में बुला लिया जाता था और उनका खान-पान मंदिर के खजाने से किया जाता था। उत्सव के लिए इलाके के बाकी लोगों से भी अनाज एवं धन इकट्ठा किया जाता है। पुराने समय जब पर्याप्त धन इकट्ठा हो जाता था तब बेड़ा जाति के किसी व्यक्ति को इस पहाड़ पर लाया जाता था। जहां उत्सव मनाया जाता था।

 हजारों की संख्या में स्थानीय लोग व आस-पास से आये लोग इस उत्सव में हिस्सा

हजारों की संख्या में स्थानीय लोग व आस-पास से आये लोग इस उत्सव में हिस्सा

बगड़ घास से बनाते हैं 100-150 गज लंबा रस्सा

धर्मानुष्ठान से पूर्व स्थानीय देवताओं को किया जाता है आमंत्रित

रस्सा अपवित्र हो जाए तो अपवित्र करने वाला देता है बकरे की बलि

बगड़ घास इकट्ठा करके लोगों द्वारा 100 या 150 गज रस्सा अपने हाथ से बनाया जाता है जो मंदिर में संभाल कर रखा जाता है। इस रस्से के ऊपर कोई व्यक्ति नहीं जा सकता और न ही इसके नजदीक जूते ले जाए जा सकते हैं। यदि किसी प्रकार रस्सा अपवित्र हो जाए तो अपवित्र करने वाला बकरे की बलि देता है। ब्राह्मण प्रतिदिन चावल, फल और घी जलाकर इस पर भेंट चढ़ाते हैं और पूजा करते हैं। जिस देवता के नाम पर यह त्यौहार मनाया जाता है उसकी पूर्ति पवित्र यज्ञागिन के निकट रखी जाती है इस धर्मानुष्ठान से पूर्व देवताओं को आमंत्रित किया जाता है जब तक वे इसमें भाग नहीं लेते, धर्मानुष्ठान नहीं हो सकता।

देवता करके पूजा जाता था सम्बंधित व्यक्ति

उत्सव वाले दिन रस्सा एक अति दुर्गम स्थान पर पहाड़ी की ऊंची चोटी से नीचे की ओर बांध दिया जाता है। सालों पहले चुने गए व्यक्ति को स्नान करवाया जाता था। उसकी देवता के रूप में पूजा की जाती थी। इसके पश्चात स्थानीय वाद्य यंत्रों की मंगलमयी ध्वनियों के साथ मन्दिर से जुलूस चलता था। बेड़ा को पर्वत की चोटी पर ले जाया जाता था बेड़ा को लकड़ी की पीढ़ी पर बैठा दिया जाता था और जिसे रस्से से बांध दिया जाता। इसको एक अन्य रस्से से पकडक़र रखा जाता। जबकि उसके परिवार के लोग पर्वत के नीचे रस्सी के निकट रहते थे। बेड़ा बैठ जाता और यह लकड़ी रस्सी पर फिसलती जाती। उसका संतुलन बनाए रखने के लिए उसके पांवों में रेत के थैले भी बांध दिए जाते थे। ठीक समय आने पर पुजारी के इशारे पर उस रस्सी को जिससे पीढ़ी पकड़ी गई हो, काट दिया जाता।

बगड़ घास से बनाते हैं 100-150 गज लंबा रस्सा

बगड़ घास से बनाते हैं 100-150 गज लंबा रस्सा

बेड़ा बगड़ के रस्से पर नीचे की ओर खिसकना प्रारम्भ कर देता जहां से पीढ़ी छोड़ी जाती, वहां पुजारी और कुछ अन्य व्यक्ति होते थे। बाकि दर्शन और बेड़ा व्यक्ति के सम्बंधी रस्से के निचले किनारे पर खड़े होते और वे यह सब कुछ देखते रहते । यदि रस्सा टूट जाए या सम्बंधित व्यक्ति गिर जाए तो जान भी जा सकती  तब भी वह देवता करके पूजा जाता और यदि वह ठीक-ठाक रस्से से दूसरे सिरे पर पहुंच जाए, तब भी उसे देवता के रूप में पूजा जाता था। उसे मंदिर में ले जाया जाता और धन-धान्य से सम्पन्न कर दिया जाता। लेकिन अब इसमें व्यकि की जगह बकरे को बेड़ा बनाकर बिठाया जाता है। हजारों की संख्या में स्थानीय लोग व आस-पास से आये लोग इस उत्सव में हिस्सा लेते हैं और आमंत्रित देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

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