मैं जिदंगी का साथ निभाता चला गया".......

“मैं जिदंगी का साथ निभाता चला गया”…….

  •  देव आनंद 1970 में आई फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ के साथ निर्माता और निर्देशक भी बन गए

सभी के दिलों पर राज करने वाले एक्टर देव आनंद 1970 में आई फिल्म ‘प्रेम पुजारी’ के साथ निर्माता और निर्देशक भी बन गए। इस फिल्म की अपार सफलता से देव आनंद को प्रोत्साहन मिला और उनकी अगली फिल्म आई ‘हरे राम हरे कृष्ण’, जिसमें उन्होंने नए चहरे को लॉन्च किया और ये थीं जीनत अमान। एक तरफ ‘हरे राम हरे कृष्ण’ की अपार सफलता और इसकी चकाचौंध में मदहोश देव आनंद को अपनी इस खोज, यानि ज़ीनत अमान, से प्यार हो गया. अपनी इन्हीं जज़बातों को देव साहब ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में बताते हुए लिखा, “मुझे खुशी होती है जब अखबारों और पत्रिकाओं में फिल्म की सफलता के साथ-साथ हम दोनों का नाम रोमांटिकली जोड़ा जाता है।”

  • अपने करीब 65 साल के पूरे करियर में देव साहब ने कुल 114 हिंदी फिल्मों में काम किया

तकरीबन सभी जानते थे कि देव साहब को जीनत अमान से प्यार हो गया था, मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। देव साहब ने ज़ीनत से अपने प्यार का इज़हार करने के लिए मिलने का फैसला किया, लेकिन मुलाकात से पहले नशे में धुत राज कपूर की बाहों में ज़ीनत अमान को देख कर देव आनंद को गहरा सदमा पहुंचा। सुरैया और ज़ीनत के अलावा देव साहब के और भी कई अफेयर्स रहे। जहां तक अपने अफेयर्स की बात है, इसके बारे में देव साहब ने अपनी ऑटोबायोग्राफी ‘रोमान्सिंग विद लाइफ़’ में लिखा था कि “मैं वास्तविक जीवन में एक स्कर्ट चेज़र नहीं हूं, महिलाएं हमेशा सामने से पहल करती थीं और मैं बस जवाब देता था।”

अपने करीब 65 साल के पूरे करियर में देव साहब ने कुल 114 हिंदी फिल्मों में काम किया जिनमें से 104 में उन्होंने सोलो

 देव साहब

अपने करीब 65 सार के पूरे करियर में देव साहब ने कुल 114 हिंदी फिल्मों में किया काम

लीड रोल प्ले किया। देव साहब ने कुल 19 फिल्में डायरेक्ट की जिनमें 7 सुपर हिट रही और 35 फिल्में प्रोड्यूस की, जिनमें 18 फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। बहुत कम लोग जानते हैं कि देव साहब को कहानी लिखने का भी शौक था, उन्होंने कुल 13 फिल्मों की कहानी लिखी थी। इसके अलावा उन्होंने दो अंग्रेज़ी फिल्मों में भी काम किया।

सितंबर 2007 में अपने जन्मदिन के मौके पर देव आनंद ने अपनी ऑटोबायोग्राफी ‘रोमान्सिंग विद लाइफ़’ का विमोचन किया। फरवरी 2011 में देव साहब की ब्लेक अंड वाइट फिल्म ‘हम दोनों’ को रंगीन करके एक बार फिर रिलीज़ किया गया।

  • फिल्म इंडिया और अशोक कुमार

बचपन के वे दिन कठिनाइयों भरे थे, फिर भी देव आनंद दोस्तों के साथ आवारागर्दी करने और कभी-कभार फिल्में देखने का मौका जुगाड़ लेते थे। उन्हीं दिनों उन्हें बाबूराव पटेल की पत्रिका ‘फिल्म इंडिया’ पढ़ने का चस्का लग गया। वे रद्दी की दुकान से इस पत्रिका के पुराने अंक खरीद लाते और बड़े चाव से पढ़ते। अच्छे-अच्छे अभिनेताओं को उनकी क्षमता से रूबरू कराने का पटेल का अंदाज, यानी लेखन शैली देव आनंद को बहुत भाती थी। पुरानी पत्रिकाओं के ग्राहक देव आनंद के प्रति दुकानदार को भी लगाव हो गया, जो पत्रिकाएँ छाँटकर अलग रख लेता और कभी-कभी मुफ्त में दे देता। इसी दुकान पर एक दिन देव आनंद ने सुना कि अपनी फिल्म ‘बंधन’ (1940) के प्रीमियर के लिए अशोक कुमार गुरदासपुर आने वाले हैं। वे आए, भीड़ ने उमड़कर अपनी खुशी को प्रकट किया। कुछ लोगों ने ऑटोग्राफ भी लिए, लेकिन देव आनंद दूर खड़े देखते रहे, श्रद्धा से अभिभूत।

प्रशंसकों की भीड़ में भी अशोक कुमार को निर्विकार भाव से शांतिपूर्वक सबसे मिलते देख देव को आश्चर्य हुआ। वह उसके जीवन का एक विशेष क्षण था, जब उसके दिमाग में यह विचार आया-अगर आगे की पढ़ाई के लिए विदेश नहीं जा सका तो फिल्म स्टार बन जाऊँगा। उस समय वह लाहौर कॉलेज से अँगरेजी साहित्य में बीए ऑनर्स कर रहा था और अँगरेजी में एम.ए करने की इच्छा भी रखता था।

  • पहुंचे मुंबई किस्मत से बनी किस्मत

देव आनंद ने खुद के बलबूते पर बंबई में स्थापित होने का संकल्प लिया

देव आनंद ने खुद के बलबूते पर बंबई में स्थापित होने का लिया संकल्प

देव आनंद ने खुद के बलबूते पर बंबई में स्थापित होने का संकल्प लिया था। बड़े भाई चेतन के साथ फ्रंटियर मेल से मुंबई आए। तब उनकी जेब में सिर्फ 30-35 रुपए थे। चेतन ने देव को अपने लेखक मित्र राजा राव के साथ रख दिया। यह जुलाई 1943 की बात है। उस समय देश भर के सिनेमा घरों में बॉम्बे टॉकीज की युगांतकारी फिल्म ‘किस्मत’ चल रही थी, जिसमें अशोक कुमार ने एंटी हीरो की भूमिका निभाई थी। यह एक अपराध कथा थी। और संयोग देखिए कि देव ने अपने आगामी फिल्मी जीवन में अपराध कथाओं की लीक पर चलना ही ज्यादा पसंद किया।

चेतन आनंद देहरादून के एक स्कूल में अंग्रजी साहित्य का अध्यापन करने लगे थे। देव के मुंबई आने का तात्कालिक कारण नौसेना की नौकरी प्राप्त करना भी था, जिसके लिए वे चुन लिए गए और छह महीने नौसेना में काम भी किया, लेकिन उनके पिता की राजनीतिक पृष्ठभूमि के कारण नौकरी पक्की नहीं हुई। बाद में देव ने डाक विभाग में नौकरी कर ली। तनख्वाह थी 165 रुपए महीना। इतना रुपया उस जमाने में काफी होता था। मुंबई में जमे रह कर फिल्मों में हाथ-पैर मारने के लिए अच्छा सहारा था।

छुट्टियों में चेतन आनंद भी मुंबई आ जाते। उनका झुकाव वामपंथ की तरफ था और साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में उनकी अच्छी पैठ थी। देव आनंद उनके साथ इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) की गतिविधियों में भाग लेने लगे। यहीं ख्वाजा अहमद अब्बास और बलराज साहनी निर्देशित ‘जुबैदा’ में नायक के छोटे भाई का रोल दिया गया। इस मामूली भूमिका ने उनके लिए फिल्मों के द्वार खोल दिए। इसी नाटक के दौरान प्रभात फिल्म कंपनी (पुणे) संचालक बाबूराव पै की नजर देव आनंद पर पड़ी।

  • कॉफी के प्याले में तैरते सपने

न दिनों बांद्रा में ‘टॉक ऑफ द टाउन’ नामक होटल ‘पेरिसियन डैरी’ के नाम से जाना जाता था। जहाँ फिल्मों में काम पाने के इच्छुक स्ट्रगलरों का जमावड़ा हुआ करता था। जहाँ कभी-कभार दिलीप कुमार और राज कपूर जैसे स्थापित कलाकार भी आया करते थे, जिससे होटल के कारिंदे हड़बड़ा जाते थे और कोहराम मच जाता था। उस जगह कॉफी की चुस्कियाँ लेते हुए भविष्य के सपने देखना जुझारू कलाकारों का खास शगल हुआ करता था। ऐसे ही एक दिन उस रेस्तराँ में देव आनंद ने सुना कि निर्माता प्यारेलाल संतोषी (फिल्मकार राकुमार संतोषी के पिता) को अपनी फिल्म ‘हम एक हैं’ के लिए नायक की जरूरत है। अगले ही‍ दिन देव आनंद संतोषी के दफ्तर पहुँचकर उनके आने की प्रतीक्षा में जा बैठे। संतोषी आए, देव आनंद ने अपना मकसद बताया। सभी स्ट्रगलों को दिया जाने वाला स्टॉक उत्तर मिला- कुछ सोचना पड़ेगा।

ऐसा कीजिए आप मुझसे टेलीफोन पर संपर्क कीजिए। जो भी उत्तर होगा, मैं बता दूँगा। देव आनंद ने इस टालू जवाब को गंभीरता से नहीं लिया। एक माह बाद संतोषी के दफ्तर से पत्र आया कि स्क्रीन टेस्ट के लिए पूना पहुँचो। देव आनंद वहाँ गए और 55 अन्य युवकों के साथ स्क्रीन टेस्ट में चुन लिए गए। वेतन तय हुआ 400 रुपए माहवार। बस यहीं से देव साहब आगे बढ़ते गये

देव आनंद

देव आनंद को सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से किया गया सम्मानित

  • जिंदादिली की मिसाल

देव आनंद को सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए दो बार फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 2001 में एक ओर जहां देव आनंद को भारत सरकार की ओर से पद्मभूषण सम्मान प्राप्त हुआ। वर्ष 2002 में हिन्दी सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। अपनी फिल्मों से दर्शकों के दिलों में खास पहचान बनाने वाले महान फिल्मकार देव आनंद 03 दिसंबर 2011 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। लेकिन आखिरी दम तक उनमें हौसले और आगे काम करते रहने के जोश की कोई कमी नहीं थी।

सफल निर्माता और निर्देशक देव आनंद प्रख्यात उपन्यासकार आरके नारायण से काफी प्रभावित थे और उनके उपन्यास ‘गाइड’ पर फिल्म बनाना चाहते थे। उन्होंने हॉलीवुड के सहयोग से हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में फिल्म गाइड का निर्माण किया जो उनके सिने कैरियर की पहली रंगीन फिल्म थी। इस फिल्म के लिए देव आनंद को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फिल्म फेयर पुरस्कार भी दिया गया। बतौर निर्माता देव आनंद ने कई फिल्में बनाईं। इन फिल्मों में हमसफर, टैक्सी ड्राइवर, हाउस न. 44, फंटूश, कालापानी, काला बाजार, हम दोनों, तेरे मेरे सपने, गाइड और ज्वेल थीफ जैसी कई मशहूर फिल्में शामिल हैं।

वर्ष 1970 में फिल्म प्रेम पुजारी के साथ देव आनंद ने निर्देशन के क्षेत्र मे भी कदम रख दिया। हालांकि यह फिल्म बाक्स आफिस पर मुंह के बल गिरी। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इसके बाद वर्ष 1971 में फिल्म हरे रामा हरे कष्णा का भी निर्देशन किया जिसकी कामयाबी के बाद उन्होंने हीरा पन्ना, देश परदेस, लूटमार, स्वामी दादा, सच्चे का बोलबाला और अव्वल नंबर समेत कुछ फिल्मों का निर्देशन भी किया।

  • किशोर और देव आनंद के बीच अभिन्न मित्रता की शुरुआत

‘जिद्दी’ में देव आनंद की नायिका कामिनी कौशल थीं। इसका संगीत खेमचंद प्रकाश ने दिया था, जिन्होंने बाद में बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘महल’ में लता मंगेशकर से ‘आएगा आने वाला’ जैसा शाश्वत गीत गवाया था। जिद्दी में किशोर कुमार ने पहली बार पार्श्वगायन किया, वह भी देव आनंद के लिए। यहीं से किशोर और देव आनंद के बीच अभिन्न मित्रता की शुरुआत हुई। आगे चलकर देव ने अपने अधिकांश गाने किशोर से ही गवाए। 1987 में किशोर कुमार के असामयिक निधन तक यह दोस्ती कायम रही।

अंतिम बार किशोर ने ‘सच्चे का बोलबाला’ (1989) फिल्म के लिए देव आनंद को अपनी आवाज दी थी। ‘जिद्दी’ की सफलता ने देव आनंद को स्टार का दर्जा दिला दिया। उस समय तक दिलीप कुमार और राज कपूर भी स्टार का दर्जा हासिल कर चुके थे। दोनों की आठ-दस फिल्में प्रदर्शित हो चुकी थीं। अशोक कुमार के बाद इन नवोदित अभिनेताओं के मासूम चेहरे देखकर सिने दर्शक अभिभूत थे, क्योंकि आजादी के बाद सचमुच नई शुरुआत हो गई थी।

अगले तीन दशकों तक इस त्रिमूर्ति की दोस्ताना प्रतिस्पर्धा को हिन्दी सिनेमा के दर्शकों ने बड़े चाव से देखा और इनकी फिल्मों का स्वाद चखा। तीनों की अभिनय शैलियाँ एक-दूसरे से भिन्न थीं और तीनों के वफादार दर्शकों का समूह भी अलग-अलग रहा। आज तक इन तीनों के नाम एक साथ लिए जाते हैं।

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