प्रदेश की आर्थिकी में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका

विशिष्ट वेशभूषा का अलग अस्तित्व “गद्दी” जनजाति

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अन्य जातियां या तो खेती करती हैं या वे शिल्पी हैं। कोली तथा सिप्पी को एक ही समझा जाता है। कपडे बुनना इनका कार्य है। रिहाड़े पीतल के बर्तन या जेवर बनाते हैं, लोहार लोहे का काम करते हैं, बाढी लकड़ी का, हाली हल जोतते हैं। ये जातियां सम्भवतः इस ओर बाद में आईं, अतः अछूत मानी जाने लगीं। गद्दी वर्ग में इन्हें अपना हिस्सा नहीं माना।
ब्रह्मण, खत्री, ठाकुर या राठी ब्राह्मणों के समान अपने गोत्र रखते हैं। कुछ स्थानों के नाम तथा शारीरिक विकलांगता के नामों पर भी गोत्र बने जैसे बतियाल के ब्राह्मण भाट  हुए, एक हाथ वाला डण्डू हुआ। घुलने अर्थात पहलवाने करने से कोई घुलेटू हुआ तो लूण या नमक का काम करने वाला लूणेसर।
ब्राह्मण, राजपूत, राठी ये उच्च बने क्योंकि ये लोग यहाँ पहले से रह रहे थे। हल जोतने वाले या शिल्पी जो बहार से आए, निम्न हो गए। हल जोतने वालों पर राजपूतों या राजाओं का अधिकार रहा, इसलिए निम्न कोटि के, कामगार किस्म के कहलाये।

जालंधर खण्ड में किन्नौर, स्पिति  दोनों लाहुल, पांगी और धेरन के लोगों को उनके निवास स्थान और जातीय-विशेषता के कारण हम  सीमांती या जनयुगीन जातियां कह सकते हैं। इनमें से कुछ के बारे में विशेष रूप से राहुल जी ने लिखा है: गद्दी वस्तुतः एक जाती का नहीं, बल्कि एक इलाके के रहने वाले ब्राह्मणों, राजपूतों, क्षत्रियों, ठाकुरों और राठियों का नाम है, जिनमें सबसे अधिक संख्या खत्रियों की है। पंजाब में भी खत्री शब्द क्षत्रिय से वैसे ही बिगड़कर बना है, जैसे नेपाल में खत्री। इसलिये गधेरन के क्षत्रियों के उद्गम के लिये हमें पंजाबी खत्रियों की ओर निगाह डालने की जरूरत नहीं। बाहर के लोगों ने गद्दी का जो अर्थ लगा रखा है अर्थात एक भेड़ चुराने वाली हीन जाती, उसके कारण गधेरन के लोग अपने को गद्दी न कहकर ब्रह्मण, राजपूत, खत्री आदि कहते हैं और जनगणना में उसी तरह लिखवाते हैं। ये गद्दी मुख्यतः चंबा जिले के ब्रह्मौर वजारत (तहसील) में मिलते हैं, लेकिन, उनमें से कितने ही अपनी दक्षिणी सीमा धौलाधार के घाटों को पार कर कांगड़ा जिले के गाइरों बुकियालों) के लिये उधर भी चले गए हैं। गधेरन (चंबा) के रहने वाली जातियों के गोत्र फकरू, घोरू (राजवंशी), घलेटू (पहलवान), भजरेटू (भारवाहक), गाहरी (चरवाहें), अदापी, लुनेसर (नमक-रोजगारी), काहनघेरू (कंघी रोजगारी), पालनू आदि होते हैं। गद्दी लोग शरीर से बहुत स्वस्थ, रंग में बहुत गोरे और स्वभाव में सीधे-सादे आत्मसम्मान के पुतले होते हैं। वे उत्सवप्रिय होते हैं, गाना-नाचना उन्हें पसंद है।

आजीविका का साधन खेती और भेड़-बकरी पालना-भेड़ों को लेकर वे धौलाधार, पांगीधार या जांस्करधार की ऊंची चरागाहों (गाहरों) में साल के बहुत-से महीने बिताते हैं। उनकी आजीविका का साधन खेती और भेड़-बकरी पालना दोनों हैं। जाड़ों के दिनों में वे अपनी भेड़-बकरियों को लेकर नीचे की ओर चले जाते हैं। घर के पुरुष बारी-बारी से भेड़-बकरियों के साथ बाहर रहते हैं, बाकी लोग गाँव में रहकर खेती और ढोरों को देखते हैं। गद्दी धौलाधार के दोनों तरफ बसे हुए हैं, इसलिए उनके खेत भी चंबा और कांगडे दोनों जिलों में है। कांगड़ा में जाड़े की फसल काटकर ब्रह्मौर (गदेरन) जाकर अपनी गर्मियों की फसल काटते हैं। वे अक्टूबर-नवम्बर में कांगड़ा की ओर जाते हैं और अप्रैल-मई में ब्रह्मौर लौटते हैं। गद्दियों की ईमानदारी के लिये कहावत मशहूर है ‘गद्दी मित्तर भोला, दिन्दा टोप तो मंगदा चोला।’

विवाह संस्कार-गद्दी समाज में विवाह संस्कार एक महत्वपूर्ण संस्कार है। यह एक उत्सव की तरह मनाया जाता है। हर्षोल्लास के इस अवसर पर सभी सम्बंधित मिलकर खाते-पीते हैं। सुरा पी जाती है, बकरे कटते हैं, डंडारस नाच किया जाता है, दूसरा विवाह पहली पत्नी की मृत्यु होने पर या नि-संतान होने पर पहली पत्नी की अनुमति से किया जाता है।
वर-वधु के माता पिता की आपसी रजामंदी से विधिवत किया गया विवाह ‘धर्म पुत्र’ कहलाता है। सगाई पक्की होने पर वर पक्ष के कुछ लोग एक सेर शुद्ध घी लेकर वधू पक्ष के यहाँ जाते हैं। यहाँ पुरोहित दोनों पक्षों की सुविधानुसार तिथि निश्चित करता है। पुरोहित पूरा कार्यक्रम बनाकर देता है। जिसे ‘लखणोतरी’ कहा जाता है। विवाह की सभी रस्में लगभग कांगड़ा की रस्मों की भांति हैं। यद्यपि स्थानीय परम्परा के अनुसार कुछ अतिरिक्त संस्कार भी जुड़े हैं।

विवाह का आरम्भ समूहत से होता है जिनमें वर को बूटणा (उबटन) लगा कर आँगन में नहलाया जाता है। क्योंकि यज्ञोपवीत पहले नहीं होता। अतः इसी दिन मंजुमाला, म्रगछाला, मुद्रा पहना कर ब्रह्मचारी बनाने के साथ याग्योपवीत पहनाया जाता है। पुरोहित वर से पूछता है वह ‘जतेरा जीवन’ (सांसारिक जीवन) जीएगा या मतेरा जीवन (सन्यासी जीवन) ? वर जतेरा जीवन जीने के लिये कहता है। तेल संस्कार मामा द्वारा एक कटोरी में तेल डाल कर वर के सिर पर रख हरी डूब से हिलाने के साथ होता है। डूब से तेल का छिडकाव किया जाता है। सभी संबंधी भी ऐसा करते हैं। मामा द्वारा दिया सेहरा वर द्वारा पहना जाता है। मामी आँखों में सुरमा डालती है। माँ वर को तमोल लगाती है। वर को पालकी में बिठा अन्य लोगों के साथ वधु पक्ष के यहाँ ले जाया जाता है। बरात को ‘जनेत’ कहा जाता है। बरात बाजे-गाजे के साथ जाती है। वर की पालकी हाली उठाते हैं।
बरात को ठहरने के लिये अलग मकान दिया जाता है। वर के पिता, मामा तथा पुरोहित लुचियों का टोकरा लेकर जाते हैं। वे रात में तथा अगले दिनों होने वाले संस्कारों पर बातचीत करते हैं।बरात को भोजन के लिये निमंत्रण दिया जाता है। वर की ओर से कन्या को ‘बरासूही’ दी जाती है जो एक पिटारी या ट्रंक में होती है। इसमें वधु के लिये कपडे, श्रृंगार की सामग्री, गुड, नारियल, बादाम, लड्डू, केसर, न्हाणी (सुगंधित जडी) आदि होते हैं।
बरात के भोजन के बाद मूहर्त के अनुसार पुरोहित वर को कन्या के घर ले जाता है हां सास आरती उतारती है। ससुर वर के पैर धुलाता है। कन्या को बाहर लाया जाता है। वर तथा वधु के सिर तीन बार एक दूसरे से लगाए जाते हैं। चीरी संस्कार में मालती की लकड़ी के सात टुकडे कन्या वर को देती है जिसे वह पाँव के नीचे रख कर तोड़ता है।
कन्यादान तथा लग्न संस्कार कांगड़ा की भांति किये जाते हैं। कन्या का भाई कन्या का दुपट्टा फैलाता है जिस पर वर केसर के छींटे फेंकता है। कन्या भी वर के पटके पर केसर छिडकती है। पुरोहित कन्या के हातों में फल, फूल तथा कुछ पैसे रखता है। वर अपने हाथ कन्या के हातों पर रखता है। पिता भी हाथ लगाकर पुरोहित द्वारा मन्त्रोच्चारण के साथ कन्या दान करता है। कन्यादान के बाद कन्या को घर के भीतर ले जाते हैं। वर कुछ संस्कार अकेला पूरे करता है जिन्हें मनिहार कहते हैं। फिर वर को भीतर ले जाते हैं जहां कामदेव की प्रतिमा बनी होती है। कन्या को वहां लाकर उसके बाल सँवारे जाते हैं।
‘खिलां खलाणी’ संस्कार में एक छाज में जौ की खीलें रखी जाती हैं। वर ये खीलें तीन दिशाओं में रखता है, कन्या की बहनें इन्हें पुनः जल्दी से छाज में डालती हैं। यह बार-बार किया जाता है। वर-वधु द्वारा अग्नि के फेरे लिये जाते हैं जो चार या सात हो सकते हैं। गोत्राचार में वर कन्या को अपने गोत्र में सम्मलित करता है।
बरात वापित आने पर दुल्हा-दुल्हन की आरती उतारी जाती है। सास बहु को कुछ भेंट देती है। वर-वधु से गणपति पूजन करवाया जाता है। दो परिवारों के पुरुष तथा महिला वर-वधु का कंगणा खोलते हैं। पुरुष वर का तथा महिला वधु का कंगणा खोल कर कंगण भाई या बहन बनते हैं। महिलाएं वधु का मुंह देखकर कुछ भेंट देती हैं। एक विवाह में कम से कम चार धामें (भोज) दी जाती हैं। पहली समूहत के दिन, दूसरी बरात जाने के समय, तीसरी बरात वापसी पर तथा एक अगले दिन। धाम में बकरे कटने के साथ सुरा पान भी आवश्यक है।

पहले थी गद्दी जनजाति में बाल-विवाह की प्रथा- गद्दी जनजाति में बाल-विवाह की प्रथा थी। जब बच्चे अभी गोद में ही होते थे तो उनका रिश्ता तय कर दिया जाता था। खेलने के दिनों में विवाह हो जाता था। यदि बचपन में विवाह हो जाए तो कन्या के युवा होने पर वर अपने सम्बन्धियों सहित वधु को लेने आता था। यह ‘सदनोज’ कहलाता है। यह कन्या के युवा होने पर होता है। इस बरात को वधु के घर तीन भोज दिए जाते हैं। यदि ये लोग शाम को आएं तो अगले दिन दोपहर का खाना खा कर जाते हैं। खाने में बकरे कटना आवश्यक है, सुरा भी पी जाती है। वर पक्ष की ओर भी धाम दी जाती है। पुराने समय में कन्या की विदाई के समय बीस सेर आटे के बबरू, दो चोलू, दो लुआंचडियां, दस-पन्द्रह चुंडू, एक चादर तथा चार सेर गेहूं दिए जाते थे। दहेज में चांदी के आभूषण, भांडे-बरतन दिए जाते थ।

‘बट्टा- सट्टा’ एक लोकप्रिय विवाह पद्धति है। वर किसी कन्या से विवाह करने के बदले अपनी सगी बहन, ममेरी, फुफेरी या ताऊ चाचा की लड़की को अपनी भावी पत्नी के भाई को प्रस्तावित करता है। अतः एक परिवार की कन्या या पुत्र का विवाह दूसरे परिवार के पुत्र या कन्या से होता है। इस प्रकार से विवाह भी सुगम रहता है और सम्बन्ध भी प्रगाढ़ होते हैं।

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