प्रदेश की आर्थिकी में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका

विशिष्ट वेशभूषा का अलग अस्तित्व “गद्दी” जनजाति

जादू-टोना-यह जाति जादू-टोनों एवं ओझा के पद में भी पूरी आस्था रखती है। नवरात्रि में शक्ति या देवी की पूजा विशेष धूमधाम से की जाती है। यह उत्सव वर्ष में दो बार मनाया जाता है। इस अवसर पर अंतिम दिन पशु बलि देने का विशेष रिवाज बन गया है। अब धीरे-धीरे पशु बलि का स्थान मीठे व्यंजन का प्रसाद भी कई स्थानों पर चढ़ाया जाता है।हिन्दू धर्म के साथ-साथ जादू-टोने एवं जादू-टोना जानने वाले ओझा की भी समाज में विशेष कद्र की जाती है। अब इस जनजाति में भी शिक्षा के प्रसार से अनेक परिवर्तन आने लगे हैं।

भरमौर गद्दियों की वास्तविक भूमि

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यह मान्यता कि भरमौर (पुरातन ब्रह्मपुर) गद्दियों की वास्तविक भूमि थी, इतिहास से मेल नही खाती। ब्रह्मपुर एक सम्पन्न राज्य था जो यहां के मंदिरों, वास्तुकला, मूर्तिकला को देखकर प्रमाणित होता है। ब्रह्मपुर का इतिहास आदित्य वर्मन (सन 620 ) तक और उसके भी पहले मारू तक जाता है।
ब्रह्मपुर का पुरातन राज्य राजा साहिल वर्मन (सन 920 ) के समय राजधानी चम्बा स्थानांतरित होने से उपेक्षित हो गया था। बाद में गद्दियों की प्रवासी प्रकृति के कारण सूना-सूना रहने लगा। सम्भवत: तभी गजेटियर में (1904) भरमौर की जनसँख्या 1901 की जनगणना के अनुसार मात्रा 4,343 बताई गयी है। हो सकता है कि जनगणना सर्दियों के मौसम में हुई हो और अधिकाँश गद्दी अपनी भेड़-बकरियों के साथ कांगड़ा या मैदानों में चले गए हों। घरों में बूढ़े लोग ही बचे होंगे। अन्या स्त्रोंतों के अनुसार वास्तविक जनसँख्या 33,907 थी।

क्या गद्दी लोग पहले से ही प्रवासी थे?

क्या गद्दी लोग पहले से ही प्रवासी थे और भेड़-बकरी पालन के कारण मात्रा गर्मियों में ही भरमौर आते थे? इनके व्यवसाय, रहन सहन तथा परम्पराओं और देवी देवताओं के अस्तित्व से ऐसा ही प्रतीत होता है। गर्मियों में अपनी भेड़-बकरियों ‘धण’ के साथ कुछ धौलाधार से कांगड़ा की ओर आते हैं, तो कुछ ‘साच’ दर्रे, ‘कुगति’ दर्रे या अन्य मार्गों से पांगी तथा लाहौल की ओर से। अतः गद्दियों का पंगावालों और विशेषकर लाहुलों से सम्बन्ध रहा है।

गद्दी लोग आज भी आग जलाने के लिये चमकदार पत्थर का इतेमाल करते हैं। कुल्लू, किन्नौर तथा लाहौल के लोगों की भांति बलि देते हैं और कई प्रकार के विश्वासों (या अंधविश्वासों) मान्यताओं से ग्रसित हैं। उनकी अपनी अलग वेशभूषा और भाषा है। अतः यह जनजाति भी यहाँ की मूल जानाति है। यदि ये दिल्ली या मैदानों से आए होते तो इनमें इतना कुछ अलग नहीं होता। अलबत्ता बाद में बहुत से लोग मुस्लिम काल में धौलाधार की ओर पलायन करते रहे, जो चंबा या आसपास के लोगों में घुल-मिल गए।

गद्दियों में प्रमुख जातियां

गद्दियों में प्रमुख चार जातियां है- ब्राह्मण, खत्री, ठाकुर या राठी तथा अन्य। ब्राह्मण तथा खत्री राजपूत यज्ञोपवीत धारण करते हैं। ठाकुर या राठी यज्ञोपवीत नहीं पहनते। अन्य जातियों में कोली, रिहाडे, लोहार, बाढी, सिप्पी तथा हाली आते हैं, जिन्हें गद्दी लोग अपनी तरह गद्दी नहीं मानते। हर वर्ग कई गोत्रों में विभक्त है। ब्राह्मण, खत्री आपस में विवाह सम्बन्ध कर लेते हैं। विवाह के लिये यज्ञोपवीत धारण करने वाली या न करने वाले भी कोई शर्त नहीं है।

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