प्रदेश की आर्थिकी में पशुपालन की महत्वपूर्ण भूमिका

विशिष्ट वेशभूषा का अलग अस्तित्व “गद्दी” जनजाति

गद्दी जनजाति हिमाचल प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर पाई जाती है। इनकी क़द-काठी राजस्थान की मरुभूति के राजपूत समाज से मिलती है। यह भी अपने आप को राजस्थान के ‘गढवी’ शासकों के वंशज बातते हैं। इस जनजाति का विश्वास है कि मुगलों के आक्रमण काल में धर्म एवं समाज की पवित्रता बनाये रखने के लिए यह राजस्थान छोड़कर पवित्र हिमालय की शरण में यहाँ के सुरक्षित भागों में आकर बस गये। हिमाचल प्रदेश में गद्दी एक विशिष्ट जनजाति है जो शारीरिक सरंचना, संस्कृतनिष्ठ भाषा, विशिष्ट वेशभूषा के कारण अपना अलग अस्तित्व रखती है। इस जनजाति का मूल क्या रहा होगा, यह निश्चित तौर से नहीं कहा जा सकता।
गद्दी अपने को मैदानों से आया हुआ बताते हैं। ’ए ग्लोरी ऑफ द ट्राईब्स एण्ड कास्टस’ में उल्लेख है कि राजा अजय वर्मन के समय में कुछ चौहान राजपूत गद्दी ब्राह्मण, मैदानों से पलायन कर यहां आए। कुछ राजपूत और खत्री औरंगजेब के समय मैदानों से यहां आए। अजय वर्मन का समय सन 850-70 माना गया है जो सही प्रतीत नहीं होता। ’हिस्ट्री ऑफ पंजाब हिल्ज स्टेट’ में अजय वर्मन का कार्यकाल सन 760 दिया गया है, जो सही प्रतीत होता है, जिसमें गद्दी ब्राह्मणों तथा राजपूतों के दिल्ली आने का उल्लेख है।

निवास-वर्तमान समय में गद्दी जनजाति के लोग धौलाधार श्रेणी के निचले भागों में हिमाचल प्रदेश के चंबा एवं काँगड़ा ज़िलों में बसे हुए हैं। प्रारम्भ में यह ऊँचे पर्वतीय भागों में आकर बसे रहे, किंतु बाद में धीरे-धीरे धौलाघर पर्वत की निचली श्रेणियों, घाटियों एवं समतलप्राय भागों में भी इन्होंने अपनी बस्तियाँ स्थापित कर लीं। इसके बाद धीरे-धीरे यह जनजाति स्थानीय जनजातियों से अच्छे सम्पर्क एवं सम्बन्ध बनाकर उनसे घुल-मिल गई और अपने आप को पूर्ण रूप से स्थापित कर लिया। भरमौर में या कांगड़ा के ऊपरी भाग, पालमपुर की धौलाधार के नीचे रहने वाले सभी व्यक्तियों को गद्दी ही कहा जाता है। वे चाहे ब्राह्मण हों, राजपूत या राठी हों या खत्री। खत्री और महाजन अब एक व्यापारी जाति है, जो दुकानदारी करते हैं, पुरातन खत्री राजपूत बने। यह सम्भवतः खत्री की क्षत्रिय से व्युत्पति के कारण रहा होगा। गद्दी खत्री मैदानों से आए खत्री महाजनों से, जो व्यापारी हैं, भिन्न हो सकते हैं।

शारीरिक रचना: अधिकांशत: गद्दी जनजाति के लोगों का रंग गेहुँआ या गौरवर्ण तथा कभी-कभी हल्का भूरा भी होता है। यह जनजाति राजपूत वर्ग से कुछ नाटे क़द के होते हैं, किंतु इनके नाक-नक्श अब भी उनसे मिलते हैं। अत: वर्तमान समय में नाटे क़द के पुरूषों का क़द प्राय: 128 से 135 सेमी. की ऊँचाई तक एवं महिलाओं का उससे 3 से 5 सेमी. कम होता है। इनका बदन भारी, गठा हुआ एवं हृष्ट-पुष्ट होता है। इनमें आर्यों के चेहरे के लक्षणों के साथ-साथ मंगोलॉयड लक्षण भी आँखों व भौहों, गालों की हड्डियों पर विशेष रूप से देखे जा सकते हैं। निरंतर भारी बोझा उठाते रहने, पहाड़ों पर चढ़ने, आदि कारणों से इनके पैर कुछ मुड़े हुए एवं पाँवों व हाथों की मांसपेशियाँ कठोर होती हैं। इनमें कठोर शीत सहने की भी क्षमता होती है।

भोजन

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यहाँ के पर्यावरण एवं स्थानीय वस्तुएँ ही इनके भोजन का आधार बनी रहती हैं। इसमें मुख्यत: दूध, दही, खोया, पनीर एवं माँस होता है एवं सीमित मात्र में चावल, मोटे अनाज, गेहूँ , मटर, चन्ना, आदि का तथा कभी-कभी मौसमी सब्जियाँ, आलू आदि भी बनाते हैं। जौ, गेहूँ एवं चावल अब यहाँ के मुख्य खाद्यान्न है। जौ एवं धान से शराब भी बनाई जाती है, इसे ‘सारा’ कहते हैं। अब आलू, रतालू एवं अरबी का प्रचलन भी धान से बढ़ा है। शराब का सेवन विशेष त्योंहारों, सामाजिक उत्सवों एवं समारोह के समय नाच-गान के साथ एवं सामाजिक भोज के अवसर पर खुलकर होता है।

धर्म-गद्दी जनजाति के लोग हिन्दू धर्मावलम्बी होते हैं। यह शिव एवं माँ पार्वती के विविध रूपों एवं शक्ति की आराधना विशेष रूप से करते हैं। पूजा करते समय यह उत्तम स्वास्थ्य एवं सम्पन्नता की कामना भी करते हैं। क्योंकि गद्दी जनजाति के विश्वास के अनुसार अनेक प्रकार की बीमारियाँ, पशुओं की महामारी एवं गर्भपात का कारण प्रतिकूल आत्माओं या प्रेतात्मा का कोपयुक्त प्रभाव है। अत: ऐसी कठोर या क्रूर स्वाभाव वाली प्रेतात्माओं को प्रसन्न करने के लिए ये लोग भेड़ या बकरे की बलि चढ़ाते हैं।

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