स्थानीय संस्कृति व मेल-मिलाप के परिचायक हिमाचल के "मेले”

स्थानीय संस्कृति, मेल-मिलाप, हर्षोल्लास व आमोद-प्रामोद के परिचायक हिमाचल के मेले

महाभारत काल से है बाड़ी मेले का संबंध

बाड़ीधार-अर्की, बिलासपुर, नालागढ़ की सीमा संधि स्थल है जो 7000 फुट ऊंचाई पर मनोहर स्थान है। यहां प्रति वर्ष आषाढ़ संक्रांति को बहुत बड़ा मेला लगता है। यह हजारों वर्षों से मनाया जा रहा है। इस का संबंध महाभारत काल से जोड़ते हैं। मेले में चारों दिशाओं से चार यात्राएं आती हैं। मेले के दिन देवता गण परस्पर मिलते हैं। देवनृत्य होता है, पुजारी चेले पुछ देते हैं। यह मेले धार्मिक, ऐतिहासिक, प्राकृतिक आकर्षण हैं।

मणीकर्ण- मणीकर्ण में गर्म जल के कुण्डों में स्नान करने से थकान और बीमारी दोनों दूर हो जाते हैं। महिलाओं के स्थान के लिए अलग कुण्ड हैं।

महाभारत काल से है बाड़ी मेले का संबंध

महाभारत काल से है बाड़ी मेले का संबंध

गर्म जल के अनेक स्त्रोत हैं। जिनमें भोजन पकाया जाता है। इनके अतिरिक्त समीप ही शीतल जल के भी स्त्रोत हैं। यह प्रसिद्ध तीर्थ कुल्लू घाटी में हिमालय के चरणों में हारिन्द्र नामक सुन्दर सुरभ्य पर्वत श्रृंखला में पार्वती और व्यास नदियों की धाराओं के बीच है। इसके पश्चिम में शीतल एवं गर्म जल के स्रोवर और पूर्व में ब्रह्म गंगा है। एक पौराणिक कथा के अनुसार कभी शिव पार्वती ने यहां के शीतल एवं उष्ण स्रोवर में जलक्रीड़ा की थी। जल क्रीड़ा के समय पार्वती के कर्ण फूल की मणी जल में गिर गई। शिव ने अपने गणों को मणी ढूंढने का आदेश दिया किन्तु गणों को वह न मिले। शिव ने क्रोध होकर अपना तीसरा नेत्र खोला तो शेषनाग भयभीत हो गए। तभी इस स्थान पर उद्र्धव धारा में से मणी प्राप्त हो गई। प्रकृति संपदा से भरपूर मणीपुर तक यह क्षेत्र यात्रियों का मोह लेता है। तीर्थ की यह छटा अतिशोभनीय है। यात्रियों के लिए निशुल्क लंगर है।

सोलन जिला के प्रसिद्ध मंदिर और मेले- सोलन नगर के पास पूर्व की ओर विशालकाय पत्थर की शिलाओं से निर्मित नरसिंह भगवान का मंदिर है जिसका निर्माण राजा दुर्गा सिंह के राज्य काल में हुआ था। इसका श्रेय शोघी वाले बाबा को है। नृसिंह भगवान राज परिवार का इष्ट देव है। बाबा जी के अनुसार मुख्य द्वार के साथ विशाल शिवलिंग की स्थापना की गई है। शिव मंदिर के सामने दुर्गा मंदिर है जिसमें दुर्गा की अष्ट धातु की मूर्ति स्थापित है। अन्य देवताओं की प्रतिमाएं भी हैं। धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए एक बड़ी चौपाल है।

पाण्डवों के स्मृतिदाता पत्थर- शिमला-मण्डी मार्ग पर दानोंघाट स्थान पर दो पत्थर, एक छोटा बड़े के ऊपर स्थापित है। उन्हें चमत्कारी पत्थर कहते हैं। लोक मान्यता के अनुसार इन पत्थरों में असीम शक्ति है जिन्हें पाण्डु पुत्र भीम ने गोल द्वारा फेंका था। धामी नाम का क्षेत्र है जिसके मैदान में प्रत्येक वर्ष मेला लगता है। इस मेले का मुख्य आकर्षण कौरव और पाण्डवों के प्रतीक दो वर्गों में पत्थर युद्ध है। आमने-सामने खड़े एक दूसरे पर पत्थर प्रहार करते हैं। खेल तब समाप्त होता है जब कोई व्यक्ति घायल होकर लहुलुहान होता है। इन पत्थरों के संबंध में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं।

सोलन नगर की अधिष्ठात्री देवी मां शूलिनी है। आराध्य देवी शूलिनी की भूमि के कारण ही सोलन शब्द की उत्पति हुई। असुर संहार से दुर्ग का नाम शुलिनी प्रसिद्ध हुआ। राजवंश की यह कुल देवी है। अन्य भी कुलजा मानते हैं। आषाढ़ मास के द्वितीय सप्ताह में रविवार को शुलिनी माता के मंदिर में वार्षिक मेले का आयोजन होता है। मूल मंदिर सोलन गांव में शालनि देवी अपनी बहिन दुर्गा के मंदिर में तीन दिन आतिथ्य पर जाती है। पूजा-अर्चना के पश्चात हजारों श्रद्धालु शोभा यात्रा निकालते हैं वाद्य धुनों के साथ। भक्तजन गेहूं की फसल से भेंट चढ़ाते हैं। इसलिए यह कृषि त्यौहार भी है। इस यात्रा का प्रसिद्घ कार्यक्रम ठोडोमैदान में ठोडो खेल है। तीर कमान के युद्ध कौशल का प्रदर्शन होता है। यह ठोडो खेल बड़ा आकर्षक और महत्वपूर्ण है इसके अतिरिक्त मल्ल युद्ध प्रदर्शनियां, व्यापार का आयोजन प्रशासन की ओर से और मंदिर समिति की ओर से रहता है।

अनेक रहस्यों से जुड़ी : करोल गुफा

करोल का सबसे बड़ा आकर्षण वहां की रहस्यमय गुफा है। इस गुफा का सम्बंध भी महाभारत से जुड़ा है। पाण्डवों को जीवित भस्म करने के लिए पिंजौर में लाक्षागृह के निर्माण का षडय़ंत्र हुआ तो भीष्म पितामह ने पिंजौर से करोल तक लम्बी गुफा का निर्माण करवा दिया था जिससे पांडवों के रहने के कारण पांचपुरा और बाद में अपभ्रंश पिंजौर हुआ। पिंजौर बाग में रंगमहल के प्रांगण में पानी का चश्मा है। करोल पर्वत के बन के पत्ते इस गुफा से होकर चश्में से पिंजौर पहुंचते हैं। इस बात की परीक्षा जर्मनी के कुछ पर्यटकों ने भी की और सत्य जाना। यह गुफा लगभग 20 किलोमीटर लम्बी है, हिमाचल की प्राचीनतम और विश्व की सबसे लम्बी गुफा है। इसके रहस्य को जानने के लिए अनेक दलों ने समय-समय पर प्रयास किए किन्तु कोई भी व्यक्ति गुफा के दूसरे सिरे पर नहीं पहुंच सका। रहस्य क्या है, अभी पता नहीं चल सका है। अन्त में यही अनुमान लगाया जाता है कि करोल गुफा में किसी अदृश्य शक्ति का बोलबाला है। इसके अतिरिक्त विषैले जन्तुओं की उपस्थिति से भी इन्कार नहीं किया जा सकता।

मंदिर स्थानों पर यात्राएं, देवी-देवताओं की जात्रें।

मंदिर स्थानों पर यात्राएं, देवी-देवताओं की जात्रें।

हिमाचल की घाटियां अपने नैसर्गिक सौंदर्य के अतिरिक्त रहस्यमय स्थानों, गुफाओं के लिए भी प्रसिद्ध हैं। यथा अर्की की लूटरू महादेव, कुनिहार की शिव कन्दरा और सोलन उत्तरी पर्वत की उपत्यका पर स्थित करोल गुफा अनेक रहस्यों से जुड़ी है। कहते हैं कि इस पर्वत पर चमत्कारी जड़ी-बूटियां आज भी विद्यमान हैं। जनसाधारण इस पर्वत का संबंध महाभारत काल से जोड़ते हैं। इसे कैलाश पर्वत का भाग मानते हैं। किंवदन्ती है कि जब हनुमान संजीवनी विशल्यकरणी जैसी जड़ी बूटियों के पर्वत को उठाकर ले जा रहे थे तो उसका एक भाग टूटकर यहां गिरा जिसे करोल पर्वत नाम दिया।

निरमंड नगर के बीच स्थित हजारों वर्ष पुराना भगवान परशुराम का मंदिर

दैत्य संहार करने की खुशी में अमावस्या को किया था बूढ़ी दिवाली मेले का आयोजन

निरमंड की बूढ़ी दिवाली- भगवान परशु राम द्वारा एक दैत्य संहार करने की खुशी में भी अमावस्या को बूढ़ी दिवाली मेले का आयोजन किया था। इस मेले में पांडवों व कौरवों का घमासान युद्ध दिखाया जाता है। मेले की पहली रात गांव के सब लोग अपने घरों से दशनामी अखाड़े में लकड़ी के गेल्टु जिसे रोहट कहते हैं, लाते हैं और विधि पूर्वक पूजन कर अखाड़े में ले जाते हैं। इस प्रक्रिया को कौरव दहन कहा जाता है। इसके बाद जनसमूह जलती आग के चारों ओर ढोल नगाड़ों के साथ नाचते गाते हैं। लोगों की दयाऊड़ी कुड़े दयाऊडि़ए की ऊंची आवाजों से पूरा निरमंड क्षेत्र गूंज उठता है। यह प्रक्रिया सारी रात चलती है। पर्वत मालाओं के आंचल में रामपुर से 17 किलोमीटर पर निरमंड नगर है। निरमंड नगर के बीच में स्थित हजारों वर्ष पुराना भगवान परशुराम का मंदिर है। यहां घने जंगलों में परशुराम ने 12 वर्षों तक घोर तपस्या की, नरमेघ यज्ञ किया, फिर इस स्थान को बसाया। अब भी 12 वर्षों के बाद एक महायज्ञ का आयोजन किया जाता है। कहा जाता है कि जब पांडवों ने कौरवों का नाश किया, तो इस खुशी में लोगों ने बूढ़ी दिवाली मेले का आयोजन किया। इसे अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक माना जाता है। रात 12 बजे के करीब दशनामी अखाड़े में क्षत्रीय जाति के लोग पाण्डवों के रूप में प्रवेश करते हैं। सबके साथ वह भी नाच गाने में शामिल हो जाते हैं। अंतिम प्रहर में हरिजन जाति का समूह दानव रूप में मुख्यद्वार से प्रवेश करने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार दयाऊड़ी कुड़े दयाऊडि़ए की तेज भाषाओं के साथ कौरव-पाण्डव का युद्ध छिड़ जाता है। पाण्डवों की विजय दिखाई जाती है। ब्राह्मण पहाड़ी बोली में महाभारत की गाथा सुनाते हैं। प्रात: दिवाली सम्पन्न हो जाती हैं।

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