- औषधीय गुणों से भरपूर है हिमाचल की वनस्पतियां
- बेशकीमती जड़ी-बूटियों को अपने आंचल में समेटे हिमाचल
हिमाचल में उगने वाले जंगली वृक्षों में विविधता है। यहां फलदार वृक्ष व औषधि में प्रयोग में लाई जाने वाली जड़ी बूटियां बहुतायत में पाई जाती हैं। पुराने समय में हकीम, वैद इन्हीं जड़ी-बूटियों से लोगों के रोगों का उपचार किया करते थे और वर्तमान में भी ग्रामीण लोग प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से रोगों के उपचार करते आ रहे हैं। हिमाचल प्रदेश पर्वतीय प्रदेश होने के कारण विभिन्न प्रकार की जनवायु भू-संरचना का क्षेत्र है। अत: यहां विविध प्रकार की वनस्पतियां पाई जाती हैं व बेशकीमती जड़ी-बूटियों को अपने आंचल में समेटे हुए है। ऊंचाई के आधार पर हिमाचल में पाए जाने वाली वनस्पति संपदा को इसी आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इन विविध ऊंचाई वाले क्षेत्र में आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण वनस्पतियां पाई जाती हैं। पश्चिमी हिमालय में पाई जाने वाली हर प्रकार की वनस्पति यहां उपलब्ध है जैसे कि ऊंचाईयों पर पाए जाने वाले फर के पेड़ और चरागाहों से लेकर निचले पहाड़ों में भूरेखीय क्षेत्र के झाड़-झंखाड़ और बांस के वन भी यहां पाए जाते हैं।
- औषधीय गुणों से भरपूर कई प्रकार की वनस्पति
पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण प्रदेश में वनस्पति का विविधता भरा भण्डार है। जिसमें अमलतास, बहेड़ा, कल्हम, कचनार, काहु, लसूड़ा, एलान, औवला, बलझा, ऐसान, अंगश अथवा अंगु, अर्जुन, बान, छलदाड, हरड़, करयाल, खैर, बंदरोल, बन्नी, बर्थुआ, बेल, बेनुस, बाशल, भुर्ज, बोर्थ, ब्रास, बुधर, बुल, छम्बा, चमरोर, चर्क, दारली दायर या देवदार, ढाक, धुइन, धुरा, धरेक, घीयौ, कैल, कांगु, कल्हम, कंदरौल, करमरू, करू या खरशु, कुनच, लोडार, लसूड़ा, मक्खन, मकलैन, मंदार, मराल मरेहनु, मोहरू, नीम, ओही, पाडल, पहाडी-पीपल, पाजर, पंसीरा, पारंग या परगोई, परोरा, कलाश, फुलाह, पिंडरयू, पीपल, पूला, पुना, रई, रिखोडलू, रीठा, शाल, खम्बा, सनन या संदन, सरू, शिन या गुलार, शीशम या टॉली, सिम्बल, सिरी, सुखचैन या करंज, ततपोगा अथवा टेटू या तारलू, तारचरबी, धुना, तून, तिम्बल या तिरमल, तुंग तथा तून इत्यादि शामिल हैं।
हरड़ का फल औषध के रूप में प्रयोग किया जाता है एवं चमड़ा रंगने के काम भी आता है। कचनार के पत्ते चारे और इंधन के लिए प्रयुक्त होते हैं। काहु के पेड़ का छडिय़ां बनाने, चारे तथा र्इंधन के रूप में प्रयोग होता है और इसके बीजों का तेल निकाला जाता है। ककर या ककरैन की लकड़ी इमारती सामान बनाने के काम आती है और यह निचले पहाड़ों पर पाया जाता है। इसके पत्तों पर ककर सिंघी बनती है जो औषधीय गुणों से भरपूर होती है।
ब्रांस के फूलों की चटनी और पेय पदार्थ बनता है तथा इसकी लकड़ी ईंधन के काम आती है। छम्बा नामक पेड़ आमों के पेड़ की तरह उगाए जाते हैं। दारली के पेड़ की लकड़ी फर्नीचर बनाने के काम आती है। धरेक (द्रेक) के फलों से तेल निकाला जाता है। ऐलान, निचले पहाड़ों में पाया जाने वाला साधारण वृक्ष है। बेल का पेड़ भी औषधियों में काम आता है। बयोल या ब्यूल पशुओं के चारे में काम आता है। इसकी छाल से रस्सियां बनाई जाती हैं। बाशल का पेड़ ऊंचे पहाड़ों पर होता है। भुज-पत्तरी या भुर्जर 3000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर मिलता है जिसकी छाल
कभी कागज की जगह लिखने के काम आती थी। अल्सान भी निचले पहाड़ों में पाया जाता है जिसकी लकड़ी भवन निर्माण के लिए प्रयुक्त होती है। अमलतास के बीच पेट की सफाई के लिए प्रयुक्त होते हैं। कमबल के बीजकोष पर पाया जाने वाला गहरा लाल रंग, रेशम रंगने के काम आता है। इसकी लकड़ी ईंधन के रूप में प्रयुक्त होती है। मदार या रिखाण्डलू के पेड़ ऊंचे पहाड़ों पर पाए जाते हैं तथा इसकी लकड़ी की छडिय़ां बनती हैं।
रीठे का प्रयोग ऊनी और रेशमी कपड़े धोने तथा इसके पत्तों का प्रयोग चारे के लिए होता है। करू या खरशु का पेड़ ईंधन, चारे, कोयले और कृषि औज़ार बनाने के काम आता है। मोहरू का पेड़ भी ऊंचे पहाड़ों पर पाया जाता है जिसकी लकड़ी से कृषि के औज़ार बनते हैं और पत्ते चारे की तरह प्रयुक्त होते हैं। इसकी छाल चमड़ा रंगने के भी काम आती हैं। पाड़ल की जड़ें और छाल औषधियों के रूप में काम आती है। साल की कठोर लकड़ी भवन निर्माण और फर्नीचर के काम आती है। इसके फल से तेल निकाला जाता है। सन्नान या संदन के पेड़ की लकड़ी फर्नीचर और कृषि औज़ारों के लिए काम में लाई जाती है और पत्ते, चारे के काम आते हैं। शिन अथवा गूलर की लकड़ी सस्ते फर्नीचर, झोंपडिय़ों के दरवाजे तथा खिलौने आदि बनाने के काम आती है और पत्ते चारे के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इसके पत्ते, छाल, फल और रस का प्रयोग, औषध रूप में होता है। पिंदरयू, 3000 से 4000 मीटर की ऊंचाई पर होता है। इसकी लकड़ी फर्नीचर और कागज के लिए गुदा बनाने के काम आती है।
हिन्दुओं का पवित्र पीपल एक छायादार वृक्ष है इसके पत्तों का प्रयोग धार्मिक कार्यों व शादी-ब्याह में किया जाता है और यह अधिक ऑक्सीजन देता है। उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र में पाया जाने वाला पुला घरेलू सामान बनाने के काम आता है और इसके रेशों से रस्सियां बुनी जाती हैं। सुखचैन अथवा करन्ज का पेड़ निचले पहाड़ी प्रदेशों में पाया जाता है। इसकी लकड़ी, भवन निर्माण, हल और पंजाली बनाने के काम आती है। गांव के लोग इसके बीजों का तेल रोशनी के लिए प्रयोग करते हैं, इसके तेल में कीटनाशक गुण भी हैं। तुन या तून की लकड़ी भवन निर्माण के लिए प्रयुक्त होती है। इसके पत्ते चारे के लिए प्रयुक्त होते हैं और इसकी छाल का प्रयोग औषध के रूप में होता है।
तिम्बल या तिरमल का फल खाया जाता है तथा पत्ते चारे के लिए प्रयुक्त होते हैं। तुंग की लकड़ी, चित्रों के लिए फ्रेम बनाने के काम आती है। इसकी छाल चमड़ा सुखाने के काम आती है और शाखाएं, टोकरियां बनाने के काम आती हैं। तूत का पेड़ मध्यम ऊंचाई पर होता है और इसकी लकड़ी फर्नीचर और खेल का सामान बनाने के काम आती है। इसका फल बहुत ही स्वादिष्ट होता है। ततपलंगा अथवा तेलू या तरलू का वृक्ष निचले पहाड़ों में होता है जिसकी छाल चमड़ा रंगने और सुखाने के काम आती है। इसकी जड़ें, छाल, पत्ते और बीज औषध के रूप में प्रयुक्त होते हैं। तारचरबी के पेड़ों के बीज से तेल निकलता है और पत्तों से काला रंग तैयार होता है। थुना की लकड़ी, इमारती लकड़ी की तरह प्रयुक्त होती है। किन्नौर के लोग इसकी छाल को चाय की तरह उबाल कर पीते हैं। इसका फल खाया जाता है। शीशम की बहुमूल्य लकड़ी भवन निर्माण फर्नीचर, तथा खेल का सामान बनाने के काम आती है।
सिम्बल की लकड़ी खिलौनों, पेटियों आदि को बनाने के काम आती है। इसके कोयों से मिलने वाले रेशे से रेशमी कपास मिलती है। इसके बीजों से प्राप्त तेल, साबुन बनाने के काम आता है। इसके पत्ते और फूल पशुओं के खिलाने के काम आते हैं। हिमाचल में पाए जाने पेड़ों की विविधता और उनकी उपयोगिता के इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि इसमें जलवायु की विविधता के अनुसार विविधता और परम्परा से लोगों ने इसके सदुपयोग के रास्ते खोज निकाले हैं।
- उपयोगी पौधे
हिमाचल में कुछ ऐसे पौधे भी पाए जाते हैं जो कि आर्थिक दृष्टि से बहुत ही उपयोगी हैं जिसमें कि कशमल, भेकुल , कथी, तिरमर, बनक्शा, अमलोराह, छेरटा, कथ, अतिस, जेकु, काला जीरा, रत्नजोत, शिगनी, मिंफनी आदि शामिल हैं। अतिस की जड़ें शक्तिवद्र्धक और ज्वर-रोधक मानी जाती हैं। बनक्शा के फूल तथा पत्ते औषधीय गुण रखते हैं। अमलोराह 2 हजार से 3 हजार मीटर की ऊंचाई पर उगने वाला घास-पात है। भेकुल के बीजों से जलाने के लिए तेल प्राप्त किया जाता है। भांग की बुटी अनेक मादक पदार्थ बनाने में प्रयुक्त होती है। इसके बीजों का तेल उपयोगी है, रेशों से रस्सियां और पुलाह (जूते) तैयार होते हैं। जेकु अथवा ओहाक इसकी छाल से कागज बनाया जाता है। काला जीरा 2500 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर पाया जाता है और मैदानों को निर्यात होता है। कशमल का नन्हा फल खाया जाता है और जड़ों से औषधीय गुणों वाला रसौंत पदार्थ प्राप्त किया जाता है। कथी के पत्ते चारे के लिए, टहनियां टोकरियां बनाने के लिए प्रयुक्त होती हैं। ऊंचाई पर पाया जाने वाला कुथ मूल्यवान पौधा है। रत्नजोत के कटे-फटे पत्ते अत्यधिक सुगंधित होते हैं। शिगनी फिगनी का पौधा 3 हजार मीटर से अधिक की ऊंचाई पर पाया जाता है।
प्रदेश की कुछ महत्वपूर्ण वनस्पतिक संपदा जिनके स्थानीय नाम व वनस्पतिक नाम निम्र प्रकार से हैं तथा इनका प्रयोग किसलिए किया जाता है :
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