- राज्य स्तरीय जैव सुरक्षा क्षमता निर्माण कार्यशाला में 100 से अधिक शोधकर्ताओं ने लिया भाग
नौणी : डॉ. वाईएस परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी में ‘राज्य स्तरीय जैव सुरक्षा क्षमता निर्माण कार्यशाला’ का आयोजन किया गया। यह आयोजन विश्वविद्यालय और बायोटेक कॉन्सोर्शियम इंडिया लिमिटेड (बीसीआईएल) द्वारा स्युंक्त रूप से किया गया। भारत सरकार के पर्यावरण,वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के यूएनईपी/ जीईएफ की जैव सुरक्षा (चरण II) क्षमता निर्माण परियोजना के तहत यह कार्यक्रम आयोजित किया गया।
नौणी विवि के कुलपति डॉ. एचसी शर्मा ने कार्यशाला का उद्घाटन किया जहां जैव सुरक्षा नियमों,सुरक्षा पहलुओं और एलएमओ संबंधित विषयों पर विभिन्न तकनीकी सत्रों में विशेषज्ञों ने अपने विचार रखे। केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान के निदेशक डा॰ एस के चक्रवर्ती सहित कई अन्य वक्ताओं जिनमें एन॰आई॰एन॰ हैदराबाद के डा॰ दिनेश कुमार, आई॰ए॰आर॰आई॰ में जेनेटिक्स विषय के पूर्व प्रोफेसर डा॰ ओपी गोविला, पंजाब बायोटेक्नोलॉजी इनक्यूबेटर के सीईओ डा॰ अजीत दुआ और भारत सरकार के पर्यावरण,वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में संयुक्त निदेशक डा॰ मुरली कृष्णा प्रमुख थे, ने प्रतिभागियों को संबोधित किया। यूनिवर्सिटी के सभी विभागों के 100 से अधिक छात्रों,शोधकर्ताओं और विस्तार विशेषज्ञों ने कार्यशाला में भाग लिया।
बी॰सी॰आई॰एल॰ के चीफ जनरल मैनेजर डा॰ विभा आहूजा ने बताया कि कार्यशाला का उद्देश्य भारत सरकार की बायोसेफेटी पर क्षमता निर्माण परियोजना के तहत विकसित परियोजना परिणामों का प्रसार करना है। उन्होंने बताया कि इस परियोजना के अंतर्गत कई संसाधन दस्तावेजों और आउटरीच सामग्री का विकास किया गया है, जिनमें से कुछ का स्थानीय भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है, प्रतिभागियों को बांटी गई।
अपने संबोधन में डा॰ चक्रवर्ती ने कहा कि जैव प्रौद्योगिकी देश की खाद्य सुरक्षा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है। हालांकि,बायोटेक उत्पादों को उनके व्यावसायिक उपयोग से पहले जैव सुरक्षा नियमों का पालन होना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत में बायोटेक क्षेत्र में सक्रिय अनुसंधान हो रहा है और प्रभावी जैव सुरक्षा नियम भी हैं। सभी हितधारकों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है कि जैव सुरक्षा नियमों के बारे में जागरूक हो ताकि सुरक्षित और टिकाऊ तरीके से प्रौद्योगिकी के लाभों को दोहन किया जा सके।
इस मौके पर डा॰ एचसी शर्मा ने कहा कि आनुवांशिक संशोधन, विकास का आधार है और आज के दौर में इसक स्वास्थ्य और कृषि में व्यापक अनुप्रयोग है। आमतौर पर इस्तेमाल किए गए उत्पादों जैसे इंसुलिन,हेपेटाइटिस बी के टीके, कई जैव औषधि भी इसी तकनीक से विकसित की गई है। कपास की आनुवांशिक किस्म (बीटी कॉटन) से भारत को बहुत लाभ हुआ है। डा॰ शर्मा ने वैज्ञानिकों द्वारा जीएम फसलों (genetically modified crops) के बारे में जागरुकता पैदा करने के लिए वैज्ञानिकों की आगे आने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होनें कहा कि कृषि जैव प्रौद्योगिकी में अनुसंधान और विकास की पहल को जारी रखा जाना चाहिए और हर स्तर पर सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि समाज में स्वीकृति, विनियामक आवश्यकताओं के अनुसार हो।
विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डॉ॰ जे एन शर्मा ने भी इस विषय से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात की। कार्यशाला में अन्य वक्ताओं का यह मानना था कि जैव प्रौद्योगिकी उत्पादों के व्यावसायीकरण के संबंध में वैज्ञानिकों के लिए निरंतर क्षमता निर्माण की आवश्यकता है। उनके अनुसार सार्वजनिक रूप से जीएम फसलों को स्वीकार करने में जनता के बीच कुछ चिंताएं हैं और वैज्ञानिक समुदाय को इन्हें दूर करने के लिए आगे आकर तथ्यात्मक जानकारी प्रदान करने की जरूरत है।