गद्दी जनजाति की वेशभूषा व आभूषण प्रियता बड़ी मनोहर

गद्दी जनजाति की वेशभूषा व आभूषण प्रियता

  • धरोहर बन रही परिधान-आभूषण प्रियता

गद्दी जनजाति की वेशभूषा तथा आभूषण प्रियता बड़ी मनोहर रही है। प्राय: बड़े शौक से पहनतीं महिलाएं लुआंचड़ी, चोली, कुरती, सुत्थण, सलवार, मोछड़, डोरा यानि गात्री। इस पर खूब बनते आभूषण, वह भी चांदी के भारी-भारी। जैसे चौक, बालू, डोडमाला, जैमाला, चिड़ी, कांटे, कसकुल, कंगणू, टोके, छट्टा, मुर्की, चन्द्रहार, बंगां, अंगूठी, पायजेब-पंजेबां, लौंग, कोका, तीहली आदि। खूब सजती-संबरती हैं पर्व त्यौहारों, विवाह-जातरा, मेलों में जाती गद्दनें। देखते ही बनता है उनका रूप सौंदर्य। गठीले, गोरे शरीर पर चमकते-दमकते-शोभते चांदी के आभूषण। बड़े शोभले लगते हैं ठुडी, माथे, बांहों आदि शरीर के अंगों पर गोदना के रूपचित्र। पूर्वकाल में तो मेलों-छिंजों में बड़े चाव से गुदवाते थे गोदना, गद्दनें और गद्दी। शरीर पर फूलकारी करवाना जहां इनके सौंदर्य चाव का प्रतीक है वहां कुछ विश्वास-आस्थाएं भी रही हैं। गले में रंग-बिरंगी डोडमालाएं, माथे पर भारी भरकम चांदी की चिड़ी, नाक में सोने के बालू या लौंग, बाहों में टोके-तो प्राय: हर समय पहने रखती हैं गद्दने। लुआंचड़ी और गात्री में सजी गद्दने आरसी भी लटकाए रहती हैं वक्ष पर। सर पर चादर या सालू लेना कभी नहीं भूलतीं। सर गुंदाने पर उस पर चौक लगाना, फुलियां सजाना, चोटी-मिटियां गुंदाना भी उनका शौक रहा है। पांव में मोचडू (जूते) ही चलने-चढऩे उतरने में सहायक होते। बोझ ढोती हैं तो बेचारी पीठ पर, चाहे त्योड़ी में या किरड़े में। तब सहायक होती हैं गात्री या कमर में बांधा डोरा।

  • गद्दी (पुरूष) चोला, चोली (गात्री) कुरता, सुत्थण, साफा, टोपी पहनने के शौकीन

गद्दी (पुरूष) चोला, चोली (गात्री) कुरता, सुत्थण, साफा, टोपी पहनने के शौकीन रहे हैं। पांवों में मोटे चमड़े के जूते जिन्हें गाद्दी-जूट्टे कहा जाता है। कंटीली पहाड़ी पगडंडियों पर चढ़ते उतरते वर्षों तक नहीं टूटते। चोले-डोरे में ढके, सर पर ऊनी लम्बाकार टोपी पहने, हाथ में नरेलू, सोठा लिए, गात्री के साथ रूणका, तम्बाकू-चकमक की गुथली सजाए गद्दी पुरूष वास्तव में ही विचित्र भी लगता है और आकर्षक भी। उसके कानों में सोने की नंतियां या कुडुए, हाथों में कंगन, गले में मालाएं सजी रहती हैं। पहले आग जलाने के काम आता था रूणका जिससे चकमक और भुजलू से आग पैदा की जाती थी। बड़ा दिलचस्प था वह जीवन। डोरे में छिपी रहती बांसुरी जो अकेलेपन को दूर करती पहाडिय़ों को भी अपने सुरों से सम्मोहित कर देती थी।

  • भौगोलिकता के कारण भी वेशभूषा में सहज बदलाव आ जाता है

परन्तु आजादी के बाद और आज के बदलते माहौल के चलते शिक्षा प्रसार-प्रचार के साथ उनकी आभूषण प्रियता पहरावे में काफी बदलाव आ रहा है। नए युवा-युवतियां तो अब पश्चिमी पहरावे की शौकीन हो गई हैं। ये आम स्त्रियों का पहनावा पहनने लगी हैं। वास्तव में भरमौर के जनजाति क्षेत्र के अनेक परिवार कांगड़ा, पालमपुर, नुरपूर आदि समतलीय क्षेत्रों में बस गए हैं। परिणामत: स्थानीय निवासियों की वस्त्राभूषण अनुरूपता ही इनमें बढ़ती जा रही है। भौगोलिकता के कारण भी वेशभूषा में सहज बदलाव आ जाता है।

  •  हमें अपनी संस्कृति, पहनावे, आभूषणों को सहज सम्भाल कर रखना चाहिए ताकि हमें गर्व हो सके अपनी धरोहर पर

समय की गति के साथ सभ्यता और संस्कृति के बदलते स्वरूप में इस जनजाति के आभूषण भी धरोहर में बदल जाएंगे। समय रहते इनकी सम्भाल करना परमावश्यक होगा। नई पीढ़ी अपने मूल आवासीय क्षेत्र से अछूती रहने पर वहां की परंपरित संस्कृति से अपरिचित या उदास रहती है, इसके प्रति चिंता नहीं होनी चाहिए। क्योंकि मनुष्य जिन स्थितियों, जिस परिवेश, जिस संगति में जन्मता, जीता, पलता-बढ़ता है, स्वभावत: वहीं की सांस्कृतिक धारा में नहाता नित्य नए रूप स्वरूप पाता है। यही कारण है कि गद्दी जनजाति में परम्परागत सांस्कृतिक धाराहों का प्रवाह मूल क्षेत्र के प्रौढ़, अनपढ़ चरवाहा परिवारों में ही द्रष्टव्य होगा। समय के साथ बदल रहे हैं परम्परागत व्यवसाय, खान-पान, पहरावे, भाषा-बोलियां और लोकाचार। इस बदलावा को रोकना सहज सम्भव नहीं, न ही रूढिय़ों से चिपके रहना समझदारी है। हमें अपनी संस्कृति, पहनावे, आभूषणों को सहज सम्भाल कर रखना चाहिए ताकि हमें गर्व हो सके अपनी धरोहर पर।

साभार: डॉ. मीनाक्षी दत्ता

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