खलनायक, चरित्र अभिनेता, कॉमेडियन सभी आयामों में प्राण उत्कृष्ट रहे।

आज भी भारतीय फिल्म प्रशंसकों के ज़हन में हैं जंजीर के शेरखान का पठान : प्राण

यादें

'जंजीर' प्राण साहब के करियर की एक यादगार फिल्म

‘जंजीर’ प्राण साहब के करियर की एक यादगार फिल्म

प्राण कृष्ण सिकंद, खलनायक और चरित्र अभिनेता परदे और परदे के बहार सिर्फ प्राण नाम से ही मशहूर रहे हैं। एक ऐसे अभिनेता हैं जिनके चेहरे पर हमेशा भावनाओं का तूफ़ान और आँखों में किरदार का चरित्र नज़र आता है जो अपने हर किरदार को निभाते हुए यह अहसास करा जाता है कि उनके बिना इस किरदार की कोई पहचान नहीं है । बात चाहे जिस देश में गंगा बहती है के डाकू राका की हो या फिर उपकार के अपाहिज मलंग चाचा का किरदार या जंजीर में शेरखान का पठान किरदार उनकी संवाद अदायगी आज भी भारतीय फिल्म प्रशंसकों के जेहन में हैं। 12 फ़रवरी, 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में बसे एक रईस परिवार में प्राण साहब का जन्म हुआ। बचपन में उनका नाम ‘प्राण कृष्ण सिकंद’ था। दिल्ली में उनका परिवार बेहद समृद्ध था। प्राण बचपन से ही पढ़ाई में प्रवीण थे। एक सशक्त और सफल अभिनेता के बचपन का स्वप्न बड़े होकर एक फोटोग्राफर बनाना था। लेकिन प्राण का इन्तजार तो भारतीय सिनेमा कर रहा था 1940 में जब मोहम्मद वली ने पहली बार पान की दुकान पर प्राण को देखा तो उन्हें फ़िल्मों में अभिनय के लिये तैयार किया और एक पंजाबी फ़िल्म “यमला जट” बनाई जो बेहद सफल रही।

मुख्य बातें

  • एक बार उनसे पूछा गया क‌ि आप अगले जन्म में क्या बनना पसंद करेंगे तो वे बोले क‌ि केवल प्राण

  • उनकी बॉयोग्राफी …and PRAN’ के नाम से प्रकाशित हुई।

  • प्राण अकेले ऐसे अभिनेता है, जिन्होंने कपूर खानदान की हर पीढ़ी के साथ काम किया। चाहे वह पृथ्वीराज कपूर हो, राजकपूर, शम्मी कपूर, शशि कपूर, रणधीर कपूर, राजीव कपूर, रन्‍धीर कपूर, करिशमा कपूर, करीना कपूर।

  • 1972 में उन्होंने फिल्म बे इमान के ल‌िए बेस्ट सहायक अभिनेता के फिल्मफेयर अवार्ड को लेने से मना कर दिया था।

  • प्राण ने अपने 60 साल के फिल्मी कैरियर में केवल एक फिल्म 1992 में लक्ष्मण रेखा का निर्माण किया।

  • अशोक कुमार के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी। दोनों ने 25 फिल्मों में एक साथ काम किया।

  • 18 अप्रैल 1945 को प्राण ने शुक्ला आहलुवालिया से विवाह रचाया। उनके तीन बच्चे हैं। दो लड़के अरविंद और सुनील और एक लड़की पिंकी।

  • 1998 में प्राण में दिल का दौरा पड़ा था। उस समय वह 78 साल के थे।

क्या मार सकेगी मौत उसे औरों के लिए जो जीता है!

दिल्ली में 1920 में जन्मे

12 फ़रवरी, 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में बसे एक रईस परिवार में प्राण साहब का जन्म हुआ। बचपन में उनका नाम ‘प्राण कृष्ण सिकंद’ था।

दिल्ली में उनका परिवार बेहद समृद्ध था। वे बचपन से ही पढ़ाई में होशियार रहे, खास तौर पर गणित में। 12वीं की परीक्षा उन्होंने रामपुर के राजा हाईस्कूल से पास की।

बनना चाहते थे फोटोग्राफर

बहुत कम लोग जानते होंगे क‌ि एक सशक्त और सफल अभिनेता के बचपन का स्वप्न बड़े होकर एक फोटोग्राफर बनाना था और इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने, दिल्ली की एक कंपनी ‘ए दास & कंपनी’ में एक अप्रेंटिस के तौर पर काम भी किया। उनका इंतजार तो भारतीय सिनेमा जगत कर रहा था।

पंजाबी में थी पहली फिल्म

1940 में लेखक मोहम्मद वली ने जब पान की दुकान पर प्राण को खड़े देखा तो पहली नजर में ही सोच लिया कि ये उनकी पंजाबी फ़िल्म “यमला जट” के लिए बेहतर है। उन्होंने प्राण को इसके लिए तैयार किया। ये फिल्म बेहद सफल रही।

1942 से ह‌िंदी फिल्मों में

लौहार फिल्म उद्योग में एक नकारात्मक अभिनेता की छवि बनाने में कामयाब हो चुके प्राण को हिंदी फिल्मों में पहला ब्रेक 1942 में फिल्म ‘खानदान’ से मिला। दलसुख पंचौली की इस फिल्म में उनकी नायिका नूरजहां थीं।

बंटवारे से पहले 22 फिल्में

बंटवारे से पहले प्राण ने 22 फिल्मों में नकारात्मक भूमिका निभाई। वे उस समय के काफी चर्चित विलेन बन चुके थे। आजादी के बाद उन्होंने लाहौर छोड़ दिया और वे मुंबई आ गए। यह उनके लिये संघर्ष का समय था।

मंटो की मदद से पहला ब्रेक

लेखक शहादत हसन मंटो और अभिनेता श्याम की सहायता से प्राण को बाम्बे टाकिज की फिल्म जिद्दी में अभिनय का अवसर मिला। फिल्म जिद्दी में मुख्य किरदार देवानंद और कामिनी कौशल थे। उसके बाद गृहस्थी, प्रभात फिल्म्स की अपराधी, वली मोहम्मद की पुतली जैसी फिल्मे काफी महत्वपूर्ण रही।

खलनायकी में डाली जान

इस दशक की सभी फिल्मों में अभिनेता प्राण नकारात्मक भूमिका में नजर आए। 1955 में

अभिनेता प्राण ने खलनायकी में डाली जान

अभिनेता प्राण ने खलनायकी में डाली जान

दिलीप कुमार के साथ आजाद, मधुमती, देवदास, दिल दिया दर्द लिया, राम और श्याम और आदमी नामक फिल्मों के किरदार महत्वपूर्ण रहे तो देव आनंद के साथ मुनीमजी (1955), अमरदीप (1958) जैसी फिल्में पसंद की गई। राज कपूर अभिनीत फिल्में आह, चोरी-चोरी, छलिया, जिस देश में गंगा बहती है, दिल ही तो है जैसी फिल्में हमेशा याद की जाएंगी।

देवानंद के साथ जोड़ी

फिल्म उद्योग में चालीस की उम्र में भी प्राण की डिमांड कम नहीं हुई। प्राण ने हलाकू नमक फिल्म में मुख्य अभिनेता का किरदार निभाया यह एक सशक्त डाकू का किरदार था। साठ के दशक के बाद भी प्राण का अभिनेता देवानंद के साथ सफल जोड़ी बनी रही बात चाहे जॉनी मेरा नाम, वारदात या देस परदेस की करें, ज्यादातर सभी फिल्में दर्शको को बेहद पसंद आई।

हास्य अभिनेता भी बने

हास्य अभिनेता किशोर कुमार और महमूद के साथ भी उनकी फिल्में पसंद की गईं। किशोर कुमार के साथ फिल्म नया अंदाज, आशा, बेवकूफ, हाफ टिकट, मन मौजी, एक राज, जालसाज जैसी यादगार फिल्में हैं तो महमूद के साथ साधू और शैतान, लाखों में एक प्रमुख फिल्म रही।

चरित्र किरदार भी निभाए

1967 में अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म मलंग चाचा के किरदार ने प्राण का चरित्र किरदार की तरफ झुकाव बढाया। इसके बाद शहीद, पूरब और पछिम, बे-ईमान, सन्यासी, दस नम्बरी, पत्थर के सनम में महत्वपूर्ण किरदार निभाए। अभिनेता शशि कपूर के साथ भी उनकी कई फिल्में जैसे बिरादरी, चोरी मेरा काम, फांसी, शंकर दादा, चक्कर पे चक्कर, राहू केतु, अपना खून और मान गए उस्ताद जैसी फिल्मे बेहद सफल रही। हमजोली, परिचय, आंखों आंखों में, झील के उस पार, जिंदादिल, ज़हरीला इंसान, हत्यारा, चोर हो तो ऐसा, धन दौलत, जानवर (1983), राज तिलक, इन्साफ कौन करेगा, बेवफाई, इमानदार, सनम बेवफा, 1942 ए लव स्टोरी, फिल्मों में चरित्र अभिनेता के तौर पर नजर आये।

अमिताभ को दिलाई जंजीर

अमिताभ बच्चन के अभिनय कैरियर को बदलने वाली फिल्म जंजीर के किरदार विजय के लिये निर्देशक प्रकाश मेहरा को प्राण ने सुझाया था। इस किरदार को पहले देव आनंद और धर्मेन्द्र ने नकार दिया था। प्राण ने अमिताभ की दोस्ती के चलते इसमें शेरखान का किरदार भी निभाया। इसके बाद अमिताभ बच्चन के साथ ज़ंजीर, डान, अमर अकबर अन्थोनी, मजबूर, दोस्ताना, नसीब, कालिया और शराबी जैसी फिल्में महत्वपूर्ण हैं।

90 के दशक से करियर का ढलान शुरू

नब्बे दशक के शुरुवात से उन्होंने फिल्मो में अभिनय के प्रस्ताव को बढती उम्र और स्वास्थ्य के चलते अस्वीकार करने लगे लेकिन करीबी अमिताभ बच्चन के घरेलु बैनर की फिल्म मृत्युदाता और तेरे मेरे सपने में नजर आये।

350 फिल्में और दादा साहेब फाल्के

प्राण को तीन बार फ़िल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला। 1997 में उन्हें फ़िल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से नवाजा गया। प्राण को हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के लिए 2001 में भारत सरकार के पद्म भूषण और इसी साल दादा साहेब फाल्के सम्मान से सम्मानित किया गया था। प्राण ने तकरीबन 350 से अधिक फिल्मों में काम किया। कापते पैरो की वजह से वह 1997 से व्हीएल चेयर पर जीवन गुजार रहे थे।

प्राण साहब पर्दे पर बुरे आदमी का किरदार करते हुए कितने आक्रामक और कमोबेश प्राणघातक लगते हैं यह किसी से छिपा नहीं है। वे उस जमाने के कलाकार थे जब कलाकारों के सिर पर इमेज चढ़कर बोलती थी। पर्दे पर वे जैसे दिखाई देते थे, समाज उनको वैसे ही अंगीकार करता था। उस तरह का प्रतिसाद दिया करता था। उस समय की वैंप बिन्दु को हमेशा से दर्शकों ने ‘घरफोडू’ और ‘कुलटा’ स्त्री कहकर ही धिक्कारा, जबकि परदे पर निभाए गए उनके चरित्र तो कहानी की मांग हुआ करते थे।

इसी प्रकार प्राण साहब के साथ भी रहा। दर्शक इस बात की जांच-पड़ताल करने लगे कि असल जीवन में प्राण क्या हैं, उन्हें तो प्राण हमेशा एक बुरे आदमी का पर्याय नजर आए। यह तो उनके करियर का टर्निंग प्वाइंट था कि खासी लोकप्रियता के आलम में एक के बाद एक सफल फिल्में दे रहे प्राण अचानक चरित्र अभिनेता बन गए। वे सकारात्मक चरित्र करने लगे। कॉमेडी भी अपने आपको औरों से इक्कीस रखकर बतलाया, वरना अच्छे-अच्छे अभिनेता इमेज बदलने के चक्कर में ‘लाइन हाजिर’ होकर रह गए।

प्राण अकेले ऐसे अभिनेता है, जिन्होंने कपूर खानदान की हर पीढ़ी के साथ काम किया

प्राण अकेले ऐसे अभिनेता है, जिन्होंने कपूर खानदान की हर पीढ़ी के साथ काम किया

प्राण की शख्सियत विराट थी। निश्चित रूप से कहीं न कहीं अपने जीवन में अनुशासन को उन्होंने भरपूर तवज्जो दी है और अपनी आत्मशक्ति को विकसित। अपने प्रति समाज और इंडस्ट्री के मन में व्याप्त आदर की झलकियां जब वे बड़े आयोजनों, सभा सोसाइटियों में देखते तो भावुक हो जाते। लाखों-करोड़ों आंखों में अपने प्रति जो जज्बात देखते, वह उनको उनके स्वर्णिम अतीत की ओर ले जाता।प्राण का जन्म 12 फरवरी 1920 में हुआ था। उनके पिता एक सरकारी कॉन्ट्रेक्टर थे और व्यापक दौरे किया करते थे। फील्ड में रहा करते थे। लिहाजा प्राण को सबसे ज्यादा सान्निध्य, स्नेह और आत्मीयता अपनी मां से मिली। मां ने उनका काफी ख्याल रखा। उनकी एक लाड़ले बेटे की तरह देखरेख की।

प्राण का पढ़ाई में मन ज्यादा नहीं लगता था। जीवन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना उनके मन में अवश्य रही। उनको शायद स्वयं भी अंदाजा था ‍कि अपनी जिंदगी में करियर के लिए फिल्म लाइन बेहतर अवसरों के साथ उनका इंतजार कर रही होगी।

पढ़ाई उन्होंने मैट्रिक तक की। उसके बाद वे पढ़े नहीं। युवावस्था में वे कुछ खास करना चाह रहे थे मगर क्या करेंगे यह तय नहीं था। युवावस्था में प्राण साहब का फोटोग्राफी के प्रति बड़ा लगाव था। इसी वजह से वे दिल्ली चले गए और एक स्टूडियो में नौकरी कर ली। बाद में स्टूडियो मालिक ने शिमला में अपना एक और शॉप खोला जहां प्राण साहब को उस शॉप की जवाबदारी सौंपकर भेज दिया गया। प्राण शिमला में काम करने लगे। एक साल वहां रहे। बाद में फिर इसी काम के सिलसिले में वे लाहौर चले गए।

सिगरेट वे 12 साल की उम्र से पीने लगे थे। इसी कारण शहर की कई पान की दुकानों में उनकी पहचान-सी हो गई थी। पान वाला उनकी शक्ल देखते ही उनके ब्रांड की सिगरेट निकालकर सामने रख दिया करता था।

ऐसे ही एक दिन जब वे सिगरेट पीने पान की दुकान पर गए तो वहां उन्हें पटकथा लेखक वली मोहम्मद वली मिले। वली मोहम्मद ने उनको देखा, तो ध्यान से घूरने लगे। प्राण तब बात को समझ नहीं पाए। दरअसल वली मोहम्मद को प्राण के व्यक्तित्व में अपनी कहानी का एक चरित्र मिल गया था जिस पर ‘यमला जट’ फिल्म बनी थी।

वली मोहम्मद ने वहीं एक छोटे से कागज पर अपना पता लिखकर प्राण साहब को दिया और मिलने को कहा। मगर प्राण साहब ने वली मोहम्मद और उस कागज के टुकड़े को जरा भी तवज्जो नहीं दी। कुछ दिनों के बाद जब वली मोहम्मद फिर टकराए तो उन्होंने प्राण साहब को फिर याद दिलाया। आखिर प्राण साहब ने चिड़चिड़ाकर उनसे पूछ ही लिया कि वे क्यों उनसे मिलना चाहते हैं? जवाब में वली मोहम्मद ने फिल्म वाली बात बतलाई।

दिलचस्प बात यह है तब भी प्राण ने उनकी बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया मगर मिलने को तैयार हो गए। आखिरकार जब मुलाकात हुई तो वली मोहम्मद प्राण को ‘कन्वीन्स’ करा सके। इस तरह प्राण पंजाबी में बनी अपने करियर की पहली फिल्म ‘यमला जट’ में आए। इसी कारण प्राण साहब वली मोहम्मद वली को अपना गुरु और पथप्रदर्शक मानते। ‘यमला जट’ एक सफल फिल्म साबित हुई। इस फिल्म के हिट होने पर वली मोहम्मद ने प्राण के साथ और काम किया। प्राण साहब खुद इस बात को स्वीकार करते थे कि मेरा यह सौभाग्य ही कहा जाएगा कि वली साहब ने मुझे नोटिस लिया।

वली साहब उस समय के शीर्ष पटकथाकार, संवाद लेखक और गीतकार थे। वे पंचोली स्टूडियो लाहौर में स्थायी नौकरी पर थे। ‘यमला जट’ में उन्होंने पचास रुपए प्रतिमाह की तनख्वाह पर काम किया लेकिन साइड बाय साइड वे अपना फोटोग्राफी का काम भी करते रहे। उनको इस फिल्म के निर्माता ने इतनी सहूलियत दे रखी थी कि पूरे समय पर सेट पर रहने की जरूरत नहीं है, जब काम हो तब बुला लिया जाएगा। इसी कारण उनके दोनों काम चलते रहे, अभिनय भी और फोटोग्राफी भी। ‘यमला जट’ के बाद उन्होंने शौतक हुसैन निर्देशित फिल्म ‘खानदान’ साइन की। इस फिल्म में वे मशहूर गायिका नूरजहां के हीरो बनकर आए। यह फिल्म सुपरहिट हुई मगर प्राण नायक के रोल में काम करते हुए बड़ा संकोच करते थे। वे कहते थे कि पेड़ों के पीछे चक्कर लगाना अपने को जमता नहीं था।

नूरजहां को वे तब से जानते थे जब वे दस साल की थीं। बाद में प्राण साहब की उनसे अच्छी दोस्ती हो गई। इस समय तक प्राण काफी लोकप्रिय कलाकार हो गए। लोग उनके नाज-ओ-अंदाज की नकल भी करने लगे थे।1947 के आसपास जब भारत की आजादी का आंदोलन जोर पकड़ने लगा था और देश में तनाव और उन्माद की स्थितियां बन रही थीं तब प्राण साहब ने अपनी पत्नी और बेटे को इंदौर अपने एक रिश्तेदार के पास भेज दिया था। जल्दी ही वे खुद भी आ गए और फिर वापस लाहौर नहीं गए। बाद में इंदौर से प्राण एवं उनका परिवार मुंबई आ गया।

मुंबई में एक बार फिर उनका संघर्ष हुआ। चार-पांच महीने वे बेरोजगार रहे। परेशानियां ऐसी आईं कि पत्नी के गहने तक बेचने पड़े, लेकिन कुछ ही दिनों बाद उनका चार फिल्मों का अनुबंध एक के बाद एक हासिल हुआ। फिल्में थीं- बॉम्बे टॉकीज की ‘जिद्दी’, प्रभात की ‘आपाधापी’, एसएम यूसुफ की ‘गृहस्थी’ और वली मोहम्मद की ‘पुतली’।

‘जिद्दी’ फिल्म के लिए उनको पांच सौ रुपए पारिश्रमिक मिला। बाद में ‘अपराधी’ के लिए उन्होंने हीरो से सौ रुपए ज्यादा पारिश्रमिक ज्यादा लिया। इन फिल्मों के बाद प्राण के करियर का सिलसिला ऐसा चला कि फिर रुकने का नाम ही न था।

आगे चलकर उनको एवीएम की एक बड़ी फिल्म ‘बहार’ में काम करने का अवसर मिला। इस फिल्म में वैजयंतीमाला, ओमप्रकाश काम कर रहे थे। इस फिल्म के प्रीमियर पर पत्नी के साथ कार से जाने का ख्वाब प्राण साहब का था, इसीलिए प्रीमियर के कुछ दिन पहले उन्होंने एक छोटी-सी कार खरीदी, लेकिन ऐसा दुर्योग आया कि एक दिन उनकी पत्नी का इसी कार से एक्सीडेंट हो गया और कार की टूट-फूट हो गई। लेकिन तब प्राण साहब ने इस बात की ज्यादा परवाह नहीं की कि उनकी पत्नी को किसी किस्म की चोट तो नहीं आई? ‘बहार’ फिल्म के प्रीमियर पर तो प्राण साहब सपत्नीक कार से नहीं जा सके मगर इस फिल्म की कमाई से जरूर उन्होंने एक दूसरी कार खरीद ली। बाद में प्राण साहब ने सोहराब मोदी की फिल्म ‘शीशमहल’ साइन की जो एक बड़ी सुपरहिट साबित हुई।

प्राण साहब ने उन दिनों तमाम सफल निर्देशकों के साथ सफल फिल्में दीं मगर कुछ निर्देशकों से उनकी ट्यूनिंग खूब जमती थी इनमें प्रमुख थे, सोहराब मोदी, बिमल राय, राजकपूर, एसएस वासन। इन सबके साथ प्राण को कई बार काम करने के अवसर मिले, लेकिन नए निर्देशकों के साथ भी काम करने में प्राण को बड़ा मजा आता था।

उन्होंने नाडियाडवाला के साथ उनकी पहली फिल्म ‘इंस्पेक्टर’ में काम किया था। इस फिल्म के माध्यम से पहली बार निर्देशन के क्षेत्र में उतरे थे शक्ति सामंत। सुबोध मुखर्जी की पहली फिल्म ‘मुनीमजी’ उन्होंने की। नासिर हुसैन की पहली फिल्म ‘तुमसा नहीं देखा’ में काम किया। मनोज कुमार की पहली निर्देशित फिल्म ‘उपकार’ में प्राण साहब ने अविस्मरणीय भूमिका निभाई। मनमोहन देसाई की पहली निर्देशित फिल्म ‘छलिया’ में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। और भी ऐसे कई नवोदित निर्देशक थे जिनके साथ प्राण साहब ने काम किया।

मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ प्राण साहब के करियर की एक सबसे अहम फिल्म है। इस फिल्म में प्राण साहब का किरदार एक तरह से सूफी फकीर का किरदार था, जिसके जीवन में गजब का दर्शन समाया हुआ है। इससे पहले उनकी पहचान एक बुरे आदमी के रूप में होती थी। प्राण उस दौर को याद करते हुए कहते थे- ‘उपकार’ से पहले सड़क पर मुझे देखकर लोग मुझे ‘अरे बदमाश’, ‘ओ लफंगे’, ‘ओ गुंडे हरामी’ कहा करते थे। मुझ पर फब्तियां कसते। उन दिनों जब मैं परदे पर आता था तो बच्चे अपनी मां की गोद में दुबक जाया करते थे और मां की साड़ी मुंह छुपा लेते। रुंआसे होकर पूछते- मम्मी गया वो, क्या अब हम अब अपनी आंखें खोल लें।

एक खास फिल्म अर्जुन हिंगोरानी की बनाई हुई ‘कब क्यों और कहां’ थी। इस फिल्म में प्राण साहब ने एक मरे हुए आदमी का रोल किया था। इस किरदार छोटे तो छोटे, बड़े-बड़े लोगों में भी दहशत हो उठती। मनोजकुमार से प्राण साहब की गहरी आत्मीयता रही। मनोज कुमार ने अपनी फिल्म ‘शहीद’ में भी सकारात्मक टच देते हुए प्राण साहब का किरदार खुद ही लिखा था। जब मनोज कुमार ने मलंग चाचा वाले रोल के लिए प्राण साहब को आफर किया तो काफी असमंजस में थे।

प्राण साहब कहते थे- उस समय मेरे लिए कतई जरूरी नहीं था कि मैं इमेज चेंज करने के लिए ऐसा रोल करूं। मुझे खलनायकी में भी काफी सफलता मिल ही रही थी। आखिरकार मनोज कुमार के आग्रह को मैं टाल नहीं पाया। इस तरह एक बुरा आदमी, एक अच्छा आदमी, सबका चहेता बन गया। प्राण साहब को ‘जिस देश में गंगा बहती हैं’ का डाकू वाला किरदार भी बेहद पसंद था। प्रकाश मेहता की ‘जंजीर’ भी मनोज कुमार की फिल्म ‘उपकार’ की तरह प्राण साहब के करियर की एक यादगार फिल्म है।

‘जंजीर’ वह फिल्म थी जिसने हिन्दी सिनेमा को अमिताभ बच्चन जैसा सुपरस्टार दिया। अमिताभ बच्चन प्राण साहब के बेटे के दोस्त थे। इस नाते वे प्राण साहब को अंकल ही बोला करते थे। ऐसे में अमिताभ बच्चन के लिए प्राण को थाने में बुलाकर ‘कुर्सी पर लात मारने’ वाला दृश्य करने में काफी मुश्किल आ आ रही थीं।

प्राण साहब एक बड़े स्टार थे और अमिताभ नवोदित। तब प्राण ने ही अमिताभ बच्चन की हौसला अफजाई यह कहते हुए कि ‘यहां पर मैं तुम्हारा अंकल नहीं हूं, बेटा। यहां तुम एक इंस्पेक्टर हो और मैं एक मुजरिम। अपना शॉट आत्मविश्वास के साथ दो।’ तब जाकर अमिताभ की उलझन कम हुई। फिल्म ‘जंजीर’ का वह सीन फिल्म जगत में यादगार बन गया।

इसके बाद तो अमिताभ बच्चन और प्राण एक सफल टीम बन गए। दोनों ने ‘मजबूर’, ‘कसौटी’, ‘गंगा की सौगंध’, ‘कालिया’, अमर-अकबर एथंनी, शराबी जैसी सफल फिल्में दीं। अमिताभ की ही तरह प्राण साहब की दादामुनि अशोककुमार के साथ भी खूब जोड़ी जमी जिसका उदाहरण एक लोकप्रिय फिल्म ‘विक्टोरिया नं. 203’ है।

यह एक ऐसी फिल्म है जो कैरेक्टर आर्टिस्ट की वजह से हिट हुई जबकि इसमें हीरो-हीरोइन भी थे मगर वे गौण होकर रह गए थे राजा और राना के कारण। बाद में इसी पैटर्न के कई रोल दोनों ने साथ-साथ किए और अलहदा किरदारों में भी दोनों साथ-साथ आए। ‘चोरी मेरा काम’, ‘चोर के घर चोर’, ‘अपना खून’, ‘चक्कर पे चक्कर’ जैसी कई फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं।

देव आनंद के साथ प्राण साहब की सिक्वेंस भी गजब की रही। देव आनंद की फिल्मों में वे खलनायक भी हुए, चरित्र भूमिकाएं भी की। ‘जिद्दी’, ‘जब प्यार किसी से होता है’ जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। कई फिल्मों में वे उनके बड़े भाई और पिता की भूमिका में भी आए जैसे ‘जॉनी मेरा नाम’, ‘देस परदेस’, और ‘वारंट’। इन दोनों शीर्ष कलाकारों की ट्यूनिंग भी गजब की रही।

दिलीप कुमार और राजकपूर के बारे में तो स्वयं प्राण साहब कहते- इनके साथ काम कर जो मजा आता था, वो अलग ही था। धर्मेन्द्र के साथ ‘पूजा के फूल’, ‘कब क्यों और कहां’, ‘धरमवीर’, ‘जुगनू’, ‘प्यार ही प्यार’, ‘गुड्डी’, ‘तुम हसीं मैं जवां’, ‘नया जमाना’ आदि कितनी ही फिल्में प्राण साहब ने की और खलनायक पिता के कैरेक्टर किए।

प्राण साहब को भारतीय सिनेमा की इंडिपेडेंट आयडेंटिटी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी एक फिल्म ‘धर्मा’ का उदाहरण इसी संदर्भ में लिया जा सकता है। उस फिल्म का नाम ही प्राण साहब के निभाए चरित्र पर रखा गया था। दिलचस्प यह है कि उस फिल्म में भी हीरो-हीरोइन थे, मगर गौण थे। सारी फिल्म प्राण साहब के कंधों पर थी।

उस फिल्म की एक कव्वाली जो बिन्दु के साथ फिल्माई गई, ‘इशारों को अगर समझो, राज को राज रहने दो’ एवरग्रीन कव्वाली है, जिसको लोगों ने तब रट तक लिया था, जब यह फिल्म प्रदर्शित हुई थी। प्राण की अदाकारी के मुरीद दर्शक इस फिल्म को देखने महीनों तक सिनेमाघर तक जाते रहे।

किसी भी फिल्म को सफलता के दरवाजे तक अपने दमखम पर ले जाने की महारत प्राण साहब को

प्राण साहब एक यशस्वी अभिनेता रहे

प्राण साहब एक यशस्वी अभिनेता रहे

हासिल थी। प्राण साहब की सक्रियता का कालखंड इतना विस्तीर्ण है कि उनके सामने ही कितने ही चरित्र अभिनेता, कितने ही नायक, कितने ही खलनायक, कितनी ही हीराइनें आईं और चली गईं मगर प्राण साहब वहीं के वहीं रहे।

प्राण साहब एक यशस्वी अभिनेता रहे। उनके निभाए किरदार आज तक लोग भुला नहीं पाए। इसका यही कारण है कि वे अपने काम को पूजा मानते। खलनायक, चरित्र अभिनेता, कॉमेडियन सभी आयामों में प्राण उत्कृष्ट ही रहे। सभी डायमेंशनों में सबसे सर्वोत्कृष्ट नजर आने वाले प्राण के व्यक्तित्व और उनकी सर्जनात्मक क्षमता को रेखांकित करना समुद्र की लहरें गिनने से भी ज्यादा बड़ा और कठिन काम है। सिनेमा में अविस्मरणीय और कालजयी योगदान को माप सकने के लिए हमारे पास कोई बैरोमीटर नहीं है। फिल्म जगत में वे सर्वोत्कृष्ट रहेंगे।दादा साहब फालके अवॉर्ड विजेता अभिनेता प्राण भले ही आज हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन अपने यादगार अभिनय के कारण वे सदा लोगों के दिलों में जिंदा रहेंगे।

वे एक ऐसे अभिनेता रहे हैं जिनके चेहरे पर हमेशा भावनाओं का तूफान और आंखों में किरदार का चरित्र नजर आता है जो अपने हर किरदार को निभाते हुए यह अहसास करा जाता है कि उनके बिना इस किरदार की कोई पहचान नहीं है।

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