कुल्लू दशहरे का इतिहास

कुल्लू दशहरे का इतिहास…

सौह कहते हैं प्रांगण को

ढालपुर आने पर मैदान की मिट्टी को पवित्र समझ साथ ले जाते हैं ग्रामीण

सौह कहते हैं प्रांगण को। देवता का प्रांगण जहां देवता का रथ सज-धजकर विराजता है। धार्मिक कृत्य होते हैं, नृत्य होते हैं। देवता नाचता है। गूर नाचते हैं। प्रजा नाचती है। हर देवता की गांव में मंदिर के समीप अपनी-अपनी सौह होती है। ढालपुर मैदान को ठारा करडू री सौह माना है अर्थात सब देवताओं की संयुक्त स्थली। एक ऐसी जगह जहां वादी के सभी देवताओं व मनुष्यों का समागम होता है। सबका इस पर समान रूप से अधिकार है। सभी देवता अपनी-अपनी निश्चित जगह पर बैठते हैं। नाचते हैं गाते हैं और धार्मिक कृत्य करते हैं। कुल्लू के जनमानस में इस मैदान के प्रति अथाह श्रद्धा है। ग्रामीण ढालपुर आने पर मैदान की मिट्टी को पवित्र समझ साथ ले जाते हैं।

हटकर होती हैं इन देवताओं की अठखेलियां

एक समय था जब दशहरे में तीन सौ साठ के लगभग देवता एकत्रित होते थे। देवशिरोमणि रघुनाथ जी के दरबार में झूमता-गाता हुआ देवसमूह जब एकत्रित होता है समां बंध जाता है। रंग-बिरंगे रथ, चांदी-पीतल के साज, रंगीन व ऊंचे झंडे, देवताओं के निशान, छत्र-चंबर, वृद्ध पुजारी, कुशल कारदार, लम्बे बालों वाले ऋषि-तुल्य धीर-गम्भीर गूर।

बहुत अजीब हैं इन देवताओं की हरकतें। कोई भागता है, कोई खड़ा होता है, कोई चलता है, कोई बैठता है। कोई नाचता है, कोई टक्कर मारता है, कोई गले मिलता है, कोई दूर भागता है, कोई रूठता है तो कोई मनाता है। देवी-देवता, ऋषि, नाग सिद्ध-कोई देवता किसी का भाई है तो किसी की बहन। कोई बड़ा है तो कोई छोटा। कोई गुरू है तो कोई चेला। बिजली महादेव, भागा सिद्धि, नाग धूमल, ऋष्य श्रृंग आदि ब्रह्मा, नारायण, वीर नाथ, पंचबीर आदि अनेकों देवता अपने-अपने झंडे, निशान बाजों सहित सज-धजकर निकलते हैं।

समस्त देवताओं के शिरोमणि हुए रघुनाथ जी

कुल्लू व अवध के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान

दशहरे के साथ-साथ जल-विहार, वन-विहार, बसंत पंचमी व होली के त्यौहार अवधो रंगों में रंग गए और आरम्भ हुआ कुल्लू व अवध के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान। कुल्लू के लोग अवध जाने लगे। अवध से वैरागी यहां आकर बसने लगे। इनका एक दल अखाड़े में बसा जिससे उसका नाम अखाड़ा पड़ा। कुछ वैरागी बाद में राजा टेढ़ीसिंह के समय में आए। कहा जाता है यहां के खश लोगों ने राजा के विरूद्ध बगावत कर दी थी जिसे दबाने के लिए अवध से वैरागी मंगवाए। ये लोग लठैत भी थे। ये लोग कुल्लू व इसके आसपास तथा समीपस्थ ग्रामों में बसने लगे और समय के अनन्तर यहां की प्रजा से सांस्कृतिक रूप से घुलमिल गए। इनके वंशज आज भी कुल्लू की विभिन्न राजधानियों से सम्बन्द्ध स्थानों में बसे हुए हैं।

दशहरे के साथ जल-विहार आदि त्यौहार अब राजसी शान-बान से मनाए जाने लगे। रघुनाथ जी समस्त देवताओं के शिरोमणि हुए।

यह भी मान्यता है कि कुछ दिन रघुनाथ जी मूर्ति मणीकर्ण में रखी गई। वहीं से सुल्तानपुर में लाई गई। इस लोकास्था का प्रमाण मणीकर्ण में (जो शिव-पार्वती को समर्पित स्थान है), भव्य रघुनाथ मंदिरों का निर्माण है। मणीकर्ण में भी ढालपुर मैदान की भांति एक छोटा सा रथ खड़ा रहता है और वहां भी दशहरा मनाया जाता है, रथ यात्रा होती है।

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