कुल्लू दशहरे का इतिहास

कुल्लू दशहरे का इतिहास…

दशहरे का प्रारम्भ

कुल्लू में विजयदशमी का उत्सव तब प्रारम्भ होता है जब देश के अन्य भागों में रावण का बुत जल चुका होता है। उत्सव आश्विन शुक्ल दसवीं से आरम्भ होकर एक सप्ताह बाद पूर्णिमा को समाप्त होता है। दशहरे के इस प्रकार शुरू होने के विषय में इस उत्सव को राम की शक्ति-पूजा से जोड़ा जाता है। शक्ति के वर से ही राम रावण को परास्त कर पाए। ऐसा भी कहा जाता है कि यह उत्सव पूर्णतया शास्त्रीय पद्धति से तथा कर्मकाण्ड की विधि से होता है। उसी शास्त्रीय विधि के अनुरूप दशहरा इन्हीं दिनों में मनाया जाना अपेक्षित है।

उज्जवल अतीत

कुल्लू दशहरा के बाद में प्रारम्भ होने के विषय में यह भी मत है कि इसके पीछे आर्थिक कारण रहा है। व्यापारिक दृष्टि से यह आयोजन तब आरम्भ होता है जब देश के निचले भागों में समाप्त हो जाता है ताकि वहां से व्यापारी आसानी से इस मेले में सम्मिलित हो सकें।

ऐसा भी विश्वास है कि राजा मानसिंह ने इस उत्सव को व्यापारिक रंग दिया। सत्रहवीं शताब्दी से ही यहां व्यापारी आने प्रारम्भ हो गए। उस समय भी यह मेला अन्तर्राष्ट्रीय महत्व का रहा है। उस समय व्यापारी पर्वतों को लांघ रूस, चीन, तिब्बत, समरकंद, यारकंद, लद्दाख, लाहुल स्पीति से आते थे। वे घोड़े तथा पश्म आदि का व्यापार करते थे। घुड़-दौड़ में प्रथम आने वाले घोड़े ऊंचे दामों पर बिकते। यह घुड़दौड़ कुछ समय पहले तक इस उत्सव में होती रही।

राजाश्रय पाने के कारण इस उत्सव में नए-नए आयाम जुड़ते गए। राजाओं के समय में पूरा उत्सव राजा की ओर से होता था। अंग्रेजों के शासन के दौरान भी यह उत्सव राजाश्रय से चलता रहा। एक ओर सामने राजा रूपी का कैम्प लगता था जो दूसरी ओर वर्तमान कला-केन्द्र के पास राजा शांगरी का। दोनों कैम्पों में अपने-अपने ढंग से नाच-गाना, खान-पान चलता रहता था।

सत्रहवीं शताब्दी : राजा जगतसिंह (1637-1662)का समय

देवों में शिरोमणि रघुनाथ जी के आगमन से पूर्व कुल्लू में शैव-संस्कृति का प्राधान्य था। शैव-सम्प्रदाय में भी नाथ ही राजाओं के गुरू थे।  इन नाथों की मुद्राओं की पूजा होती थी। मुद्रा-दर्शन के बिना राजा भोजन नहीं कर सकते थे। सत्रहवीं शताब्दी में एकाएक परिवर्तन हुआ। उस समय की कथा वादी में अपने-अपने ढंग से बखानी जाती है।

पार्वती घाटी में (मणीकर्ण की ओर) टिपरी मड़ौली गांव। गांव के एक ब्राह्मण दुर्गादत्त की उसके जाति भाइयों ने राजा से चुगली कर दी कि उसके पास एक पथा (लगभग एक किलो) सुच्चे मोती हैं। किसी ने इतना तक कह दिया, उसने तो आंगन में सूखने डाले थे महाराज! मैंने अपनी आंखों से देखा।

मोती! राजा चौंका। मोती रो राज्यलक्ष्मी है। मोतियों का ब्राह्मण के घर क्या काम?

एक बार राजा मणीकर्ण की ओर जा रहा था तो उसने ब्राह्मण के घर मोती लाने के लिए आदमी भेजे। राजपुरूषों ने ब्राह्मण से मोती निकलवाने चाहे। मोती तो थे नहीं। कंगाल ब्राह्मण कैसे विश्वास दिलाता कि चुगली झूठी है। अन्त में अपनी पीछा छुड़ाने के लिए कह दिया कि जब राजा वापस लौटेगा, मोती मिल जाएंगे।

राजा के लौटने का समय भी आ गया। ब्राह्मण घबराया। अब क्या हो? आखिर उसने हल ढूंढ लिया। अपने बच्चों, परिवार को घर में बंद कर दिया। बाहर से आग दिखा दी। लपटें उठीं। घर-परिवार धधकने लगा। वह हाथ में छुरी लिए बैठा था। राजा के आदमी आए तो देखा-वह अपना मांस काट-काटकर आग में डाल रहा है और कहता जा रहा है : ले राजा, तेरे पथा मोती! ले राजा, तेरे पथा मोती!

ब्राह्मण स्वाहा हो गया। राजा खाली हाथ राजधानी मकड़ाहार लौट आया। महलों में पहुंच राजा भात खाने लगा तो उसमें कीड़े दिखने लगे। पानी पीने लगा तो लहू नजर आने लगा। राजा को ब्रह्म-हत्या से कैसे छुटकारा मिले? अनेकों उपाय किए गए। गुरू हार गए। कोई फायदा नहीं हो सकता।

उस समय नगर में बाबा किशनदास पौहारी रहता था (बाबा की गुफा अब भी नगगर में विद्यमान है)। पौहारी बाबा की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। आखिर राजा ने उससे प्रार्थना की और छुटकारे का उपाय बताने को कहा। बाबा ने उपाय बताया: यदि राजा वैष्णव हो जाए और अयोध्या से रघुनाथजी की मूर्ति लाकर यहां स्थापित करे, सारा राज्य रघुनाथ जी को सौंपे और स्वयं छड़ी-बरदार (मुख्य सेवक बनकर रहे तभी पाप का प्रायश्चित हो सकता है)।

कुल्लू से अवध तक राजा ने बीस-बीस कोस पर तैनात करवाए हरकारे

रघुनाथ जी की मूर्ति कैसे लाई जाए? यह समस्या थी। बाबा ने सुझाया कि उनका चेला दामोदर सुकेत के राजा के पास रहता है। वही मूर्ति ला सकता है। राजा ने संदेश भेज दामोदर को बुलवाया। गुरू पौहारी ने भी पत्र भेजा। दामोदर गुरू के समक्ष उपस्थित हुआ और अयोध्या से मूर्ति लाने का कार्य स्वीकारा। राजा की ओर उसे खर्च मिला व सहायक मिले। कुल्लू से अवध तक राजा ने बीस-बीस कोस पर हरकारे तैनात करवाए।

दामोदर गुसाईं अवध जा पहुंचा। वहां वह पुजारी का चेला बन गया और नित्यप्रति मंदिर जाने लगा। पुजारियों का विश्वास जीतकर और एक दिन मौका पाकर वह मूर्ति को ले भागा। जब पुजारियों को इस बात की खबर हुई तो वे भी भागदौड़ करने लगे। उनमें से एक पुजारी जोधबीर हरिद्वार आ पहुंचा और दामोदर को धर दबोचा। दामोदर ने मिन्नत की कि मूर्ति कुल्लू के राजा जगतसिंह ने मंगवाई है। जोधबीर ने तर्क दिया कि इसी मूर्ति से तो उनका भेंट भरता था। अब वे क्या करेंगे! दामोदर ने आश्वासन दिया कि जो आमदनी उन्हें मंदिर से होती थी, वह राजा कुल्लू से मिला करेगी। दामोदर को राजा ने कहला भेजा कि पुजारी मूर्ति को आगे नहीं लाने देते। राजा ने उन्हें रकम देने का विश्वास दिलाया, तब पुजारियों ने मूर्ति कुल्लू लाने दी।

यह भी कहा जाता है कि वह पुजारी गुटका सिद्धि जानता था जिसके कारण दामोदर को पकड़ पाया। दूसरे यह लोकास्था है कि हरिद्वार में जब पुजारियों की आपस में खींचा9तानी हुई तो मूर्ति कुल्लू की ओर खींची जाती, यह हल्की हो जाती और जब अवध की ओर खींची जाती तो भारी हो जाती। अर्थात मूर्ति स्वयं कुल्लू की ओर आना चाहती थी।

अंतत: रघुनाथ जी राजधानी मकड़ाहार पहुंचे। राजा उनके दर्शनों से कृतकृत्य हुआ। उसने राज्य रघुनाथ जी को सौंप दिया और स्वयं उनका छड़ी-बरदार या मुख्य सेवक बना। यज्ञ किया गया। दामोदर को भुन्तर में भूमि व ठाकुरद्वारा बख्शा। कोठी जगतसुख की आय ठाकुरद्वारे के नाम कर दी गई। अवध में पुजारियों को ताम्रपत्र दिया और प्रतिवर्ष राशि दी जाने लगी। दामोदर गुसाईं के वंशज अभी भी भुन्तर में रहते हैं।

राजा रोगमुक्त हुआ। बाबा किशनदान राजगुरू बना। नाथ गुरू तारानाथ अपनी मुद्राओं सहित पलायन हो गए। प्रजा में वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ और दशहरे का प्रादुर्भाव हुआ।

लम्बे-ऊंचे, भरे-पूरे देवदारूओं से आच्छादित शिखर। हिमस्खलित निर्झर। मदमस्त वादियां, हरी-भरी घाटियां, बतखों सी सरसराती घटाएं, नादों से गूंजती उपत्यकाएं, नाच-गाना, खेल-तमाशा, झरझराती ब्यास किनारे बसा कुल्लू।

एक ओर बिजली महादेव का शिखर। दूसरी ओर दपौइण-जमदगिन का स्थल। ऊपर, सामने भेखली मैया तो नीचे पहाडिय़ों की नैया। बीच घाटी में है ढालपुर मैदान। अक्तूबर में सभी शिखर, निर्झर, घाटियां, वादियां गूंज उठती हैं शहनाई, ढोल, रणसिंगों की मधुर गूंज से। यूं तो देवताओं से सजे रथ बाजे-गाजे सहित यत्र-तत्र झूमते पहाडिय़ों से उतरते दिखते रहते हैं परन्तु वादी के देवताओं के सामूहिक उत्सव विजयदशमी के अपने ही रंग हैं, अपने ही ढंग हैं।

कहा जाता है कि : ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त होने के लिए वर्ष 1650 में अयोध्या से लाई गई भगवान रघुनाथ की मूर्ति की पूजा के साथ कुल्लू दशहरा उत्सव शुरू हुआ था। तत्कालीन राजा जगत सिंह ने अपना राजपाठ भगवान रघुनाथ को सौंपकर छड़ीबरदार बनकर उनकी सेवा का संकल्प लिया था। तभी से यह आयोजन होता आ रहा है। अब इस परंपरा को राजपरिवार के सदस्य महेश्वर सिंह निभाते आ रहे हैं।

ढालपुर मैदान को कहते हैं ठारा करडू री सोह

पहले सभी देवताओं को करडू अर्थात टोकरी में रखा जाता था

कुल्लू ब्यास के दाएं किनाने पर बसा है जिसमें सुल्तानपुर, अखाड़ा बाजार तथा ढालपुर मैदान-तीन प्रमुख आकर्षण हैं। सुल्तानपुर राजधानी रहा है, अत: यहां अब भी राजमहल है। रघुनाथजी का मंदिर भी यहीं है। अखाड़ा बाजार प्रमुख बाजार है। ऐसा कहा जाता है कि यहां अवध से आकर साधु ठहराए जाते थे, इसलिए अखाड़ा कहलाता है। ढालपुर मैदान कुल्लू की पहाडिय़ों के बीच एक ऐसा स्थल है जो दूर-दूर की चोटियों से दिखता है। यह मैदान सबकी संयुक्त स्थली है। ऐसा कहा जाता है कि इस मैदान का नाम राजा बहादुरसिंह ने सोलहवीं शताब्दी के मध्य में अपने भाई मियां ढालसिंह पर किया।

मैदान को ठारा करडू री सोह कहते हैं। करडू का अर्थ टोकरी से लिया जाता है। ऐसा सम्भव है कि पहले सभी देवताओं को एक टोकरी में रखा जाता था, जिसे करडू कहा जाता है। देवताओं की उद्गम कथा में भी ऋषि जमदगिन देवताओं को एक टोकरी पर उठाए किन्नर कैलाश की ओर से आए थे। देवताओं के रथ बाद में बने, यह निश्चित है। अब भी कुछ ऐसे देवता हैं जो एक टोकरी में विद्यमान रहते हैं और उन्हें एक आदमी सिर पर उठाता है। कुछ देवताओं के ऐसे पुराने करडू भी हैं और नए रथ भी हैं जो विशेष रूप से कुल्लू-दशहरे में जाने के लिए ही बनाए गए हैं।

राजाओं के समय में देवताओं को अवश्य हाजिरी देनी होती थी ढालपुर मैदान में

ठारा करडू का अर्थ अट्ठारह करोड़े से भी लिया जाता है। अट्ठारह करडू या अट्ठारह करोड़ देवता या अनेकों देवता। दशहरे में आने वाले देवताओं की संख्या तीन सौ साठ या तीन सौ पैंसठ मानी जाती है। बुजुर्गों ने दशहरे में दो सौ तक देवता आते देखे हैं। अब भी साठ-सत्तर से ऊपर देवता आते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि राजाओं के समय में देवताओं को ढालपुर मैदान में अवश्य हाजिरी देनी होती थी।

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