बौद्ध धर्म के पुनरूत्थान के सम्बंध में गुगे राज्य का अभूतपूर्व योगदान

“लामा धर्म” अपनी ख्याति के साथ आज भी विद्यमान

लामा धर्म अपनी विलक्षणता के साथ आज भी विद्यमान

लामा धर्म अपनी विलक्षणता के साथ आज भी विद्यमान

तिब्बत, हिमाचल प्रदेश के जनजातीय जिलों किन्नौर तथा लाहुल-स्पिति में बौद्ध धर्म अपनी विलक्षणता के साथ विद्यमान है। गेरूआ वस्त्र पहने लामा, ऊंचाईयों में स्थित बौद्ध मठ, आकर्षक मूर्तियां व चित्र पाण्डुलिपियों के अम्बार, पत्थरों, चट्टानों पर खुदे बौद्ध मन्त्र, हवा में लहराती धर्मपताकाएं इस अद्भुत परम्परा के दृढ़ अस्तित्व को दर्शाती हैं। लामा लोग इसके अधिष्ठाता हैं। विपरीत परिस्थितियों और भौगोलिक कठिनाइयों के बावजूद इन्होंने इसे आज तक सुरक्षित रखा है। परम्परा निभाते हुए लामा आज भी त्याग, तपस्या से परिपूर्ण कष्टमय जीवन जीते हुए धर्मचक्र लिए रहते हैं।

इस परम्परा को समझने के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नजर दौड़ानी होगी।

बुद्ध का जन्म

563 ई. पर्व कपिलवस्तु के लुम्बिनी ग्राम में बुद्ध का जन्म एक अद्वितीय घटना थी। शाक्यवंश के शुद्धोदन तथा माता महामाया के यहां जन्मे सिद्धार्थ का जीवन प्रारम्भ ही से विचित्र रहा, अनहोनी घटनाओं से परिपूर्ण। कहीं राह जाते हुए जन्म,

अकस्मात माता महामाया की मृत्यु, महाप्रजापति गौतमी द्वारा लालन-पालन आदि। यद्यपि उन्नीस वर्ष की आयु में पत्नी तथा पुत्र को त्याग कर संसार छोडऩे की कथाएं जुड़ी हैं। इतनी आयु होने पर विवाह तथा पुत्र प्राप्ति होने के बाद जीवन के इन कटु सत्यों से अनभिज्ञ रहकर पहली बार वृद्ध, रोगी, मृतक तथा सन्यासी से साक्षात्कार व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता। तथापि ये घटनाएं प्रतीकात्मक लगती हैं और बुद्ध के अभावग्रस्त जीवन के कारण जो वैरागय शनै: शनै: घर कर गया होगा, उसी ने सुविधापूर्ण संसार छोडऩे पर विवश किया।

संसार त्यागने पर विभिन्न साधु-सन्यासियों के पास भटकने के बाद अंतत: अपनी एक राह खोजी। एक धारणा बनाई और पैंतीस वर्ष की आयु में सारनाथ से उपदेश प्रारम्भ करने के बाद जीवन के अंत (483 ई.पूर्व) तक जारी रखे। बुद्ध के पहले पांच शिष्य ब्राह्मण माने जाते हैं। इसके बाद शाक्यवंश से शुद्धोदन के भाई के पुत्र आनन्द, बुद्ध के सौतेले भाई नन्द, चचेरे भाई देवदत और कुछ राजपुरूष भिक्षु बने। महाप्रजापति गौतमी तथा आनन्द के आग्रह पर बुद्ध ने संघ में महिलाओं को स्थान दिया।

चार परम सत्य, आत्मा, पुनर्जन्म सिद्धान्त, कर्म सिद्धान्त, मध्यमार्ग तथा निर्वाण पर बुद्ध के उपदेश केन्द्रित रहे। संसार नित्य है या नहीं, आत्मा का शरीर से क्या सम्बन्ध है, जीवन के बाद मृत्यु तथा मृत्यु के बाद जीवन है या नहीं, ऐसे अनेक प्रश्र अनुतरित भी माने जाते हैं जिन्हें उन्होंने या तो टाल दिया या इन पर वे मौन रहे।

कब लिपिबद्ध हुए बुद्ध के उपदेश!

बौद्ध सिद्धांत कब लिपिबद्ध हुए, यह स्वयं बौद्ध भी नहीं जानते। उत्तर भारत में यह और भी अस्पष्ट है। बुद्ध वचन तो मौखिक था। मौखिक परम्परा से ही शिष्यों ने ग्रहण कर आगे बढ़ाया। इस परम्परा को पहली बार किसने और क्यों लिपिबद्ध किया होगा, यह अज्ञात है। बाद में तो पूरा एक शास्त्र तैयार हुआ जिसकी कई शाखाएं बनीं। बुद्ध वचन क्या रहे होंगे, इसमें भी मतभेद है। आत्मा-संसार-त्याग, निर्वाण आदि शब्दों की अलग-अलग व्याख्या की गई।

दक्षिण भारत में लिखित परम्परा पर विभिन्न बौद्ध सम्मेलनों से प्रकाश पड़ता है जिनमें बौद्ध धर्म के विद्वानों ने एक परिपाटी निर्धारित की और कुछ सिद्धांत बनाए जिन पर अधिकांश विद्वान सहमत हुए।

पहला बौद्ध सम्मेलन बुद्ध के परिनिर्वाण के तीन महीने बाद अजातशत्रु की अध्यक्षता में राजगृह में हुआ। कहा जाता है, शुभदा नामक भिक्षु को बुद्ध के प्रति प्रतिकूल टिप्पणी से आगामी समय में धर्म-सुरक्षा का प्रश्र उत्पन्न हो गया। अत: पांच सौ भिक्षुओं की एक सभा बनी जिसमें भिक्षु आनन्द को बाद में सम्मिलित किया गया। भिक्षु आनन्द पर कुछ आरोप भी लगाए गए। अश्वघोष की सुमंगल विलासिनी के अनुसार आनन्द द्वारा प्रतिपादित धम्म तथा उपालि द्वारा प्रतिपादित विनय को स्वीकारा गया। इस सभा में बुद्ध के रथवाहक चन्ना को ब्रह्ममदण्ड दिया गया।

दूसरा सम्मेलन महानिर्वाण के एक सौ दस वर्ष बाद हुआ। यह सम्मेलन वैशाली के भिक्षुओं द्वारा दस सूत्रों में छूट लेने के कारण हुआ। इनमें सींग में प्रयोग हेतु नमक ले जाना, दोपहर के बाद भोजन करना, दूसरे गांव में पुन: भोजन करने से अधिक खाना, दुष्कर्म के लिए संघ से आज्ञा, भोजन के बाद दूध-मक्खन लेना, सोना-चांदी लेना बहस का मुख्य मुद्दा था। ये सब विनय के विरूद्ध तो थे ही अत: अधिकांश विद्वानों ने इन्हें गलत करार दिया। सभा में सात सौ भिक्षु एकत्रित हुए। जिसमें वैशाली के भिक्षुओं ने इन दस बातों को अस्वीकार कर दिया।

तीसरा सम्मेलन सम्राट अशोक के समय पाटलिपुत्र में हुआ जो महानिर्वाण के 218 या 236 वर्ष बाद हुआ माना जाता है। बौद्ध धर्म में विभिन्न सम्प्रदाय बनने के कारण धर्म में शुद्धि लाने के उद्देश्य से इसे बुलाया गया। भ्रष्ट लोगों के संघ में आने से संघ की मर्यादा क्षीण हुई। इस सम्मेलन का भारत तथा एशिया के विभिन्न भागों में बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु भिक्षुओं को भेजा जाना महत्वपूर्ण निर्णय था। सम्राट अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्र संघमित्रा को लंका भेजा गया। कुछ इतिहासकार तीसरे सम्मेलन की ऐतिहासिकता पर संदेह करते हैं।

बौद्ध ग्रन्थ धर्म के अनुसार दो श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं-हीनयान और महायान।

बौद्ध ग्रन्थ धर्म के अनुसार दो श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं-हीनयान और महायान।

चतुर्थ सम्मेलन कनिष्क के समय 100 ई. में हुआ। सम्मेलन जालन्धर या कश्मीर में हुआ जिसमें अटठारह सम्प्रदायों को मान्यता दी गई। कनिष्क ने पांच सौ भिक्षुओं का सम्मेलन किया जिसमें वसुमित्र उपाध्यक्ष तथा अश्वघोष अध्यक्ष थे। एक मठ का निर्माण किया और उन्हें पिटक पर व्याख्या लिखने को कहा।

इतिहासकार बताते हैं कि बुद्ध के महानिर्वाण के लगभग चार सदियों से बाद तक बुद्ध वचन मौखिक ही चलते रहे। लिखित उपदेश 104 ई. पूर्व के बीच आया। पिटक पहली बार पालि में लिखा गया। इसकी व्याख्या सिंहली में की गई। मगध के मूलत: ब्राह्मण बुद्धघोष ने लंका जाकर मागधी में काम किया। बुद्धघोष ने पालि को बौद्धों की पवित्र भाषा बनाया। इसके बाद महावंश तथा दीपवंश की रचना पालि में हुई।

त्रिपिटक को पालि, मागधी आदि में लिखा गया किन्तु इसकी पालि में ही पूरी व्याख्या उपलब्ध रही। इस समय संस्कृत में कोई पूरी कृति उपलब्ध नहीं है।

बौद्ध ग्रन्थ

बौद्ध ग्रन्थ धर्म के अनुसार दो श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं-हीनयान और महायान। हीनयान के सूत्र पालि तथा मिश्रित संस्कृत में हैं, महायान के शुद्ध तथा मिश्रित संस्कृत में।

पालि में त्रिपिटक सबसे पुराना और पूरा ग्रन्थ है। त्रिपिटक में तीन पिट्क हैं- विनय पिटक (अनुशासन संग्रह), सूत्रपिटक (व्याख्यान), अभिधम्म पिटक (धर्मग्रन्थ)। विनय पिटक में चार ग्रन्थ आते हैं। सूत्रपिटक में बुद्ध के व्याख्यान, (सूत्र) हैं। इसमें पांच ग्रन्थ हैं। अभिघम्म में सूत्रपिटक के अनुसार ही धर्म के विषय में कहा है जिसके अन्तर्गत सात ग्रन्थ आते हैं।

ऊँ मणि पद्मे हुं

नेपाल, तिब्बत तथा लाहुल-स्पीति में बौद्ध शब्दावली मिश्रित तथा अशुद्ध संस्कृत व स्थानीय भाषाओं से ली गई है। ऊँ मणि पद्मे हुं इसका उदाहरण है। इस ओर अवलोकीतेश्वर एक अधिष्ठाता देवता है जिसकी हजार आंखें, हजार सिर या गयारह सिर, आठ बांहें होती हैं।

तिब्बत, लाहुल-स्पीति तथा किन्नौर की ओर बौद्ध ग्रन्थों के रिन-चेद-जंगपो द्वारा अनुवाद से पूर्व भी यहां पद्मसम्भव के समय बौद्ध मठ विद्यमान थे। इस युग में बौद्ध ग्रन्थों का पाठ तथा परम्परा का निर्वाह सम्भवत: मिश्रित भाषा के माध्यम से होता था।

बुद्ध का जन्म

बुद्ध का जन्म

रिन-चेन-जंगपो ने बौद्ध ग्रन्थों का अनुवाद भोटी में उपलब्ध कराया और एक नई परम्परा का जन्म हुआ जिसमें तन्त्रवाद का समावेश रहा।

वर्तमान लामा धर्म

तिब्बत, किन्नौर तथा लाहुल-स्पीति में बौद्ध धर्म के वर्तमान स्वरूप को देखकर लगता है कि यह शाक्य मुनि द्वारा प्रतिपादित बौद्ध धर्म नहीं, कोई दूसरा ही धर्म है। बौद्ध मठों में लामाओं द्वारा वाद्यों के साथ मन्त्रोच्चारण, सामाजिक जीवन में धर्मगुरू की तरह दखल, हर संस्कार करवाते हुए टाणे-माणे में मुख्य भूमिका-यह सब ब्राह्मण धर्म की भांति प्रतीत होता है। जो ब्राह्मण लोग मन्दिरों में करते थे वही सब लोग मठों में कर रहे हैं।

लाहुल-स्पीति में प्रत्येक परिवार में बड़े लडक़े की शादी कर दी जाती है। छोटे लडक़े को लामा बनाया जाता है। पांच-छ: वर्ष की आयु में ही उसे शपथ दिलाई जाती है। अहिंसा धर्म का पालन, सत्य वचन, मद्यनिषध आदि की शपथ के बाद उसे गयाछल कहा जाता है। वरिष्ठ लामा उस पर नजर रखते हैं। यदि शपथ तोड़े तो मठ से बाहर निकाल दिया जाता है। मठ में ही अब शिक्षा-दीक्षा दी जाती है। गर्मियों में ऐसे युवा लामा घर आ सकते हैं। घर का पूरा काम कर सकते हैं। मठ में वापसी पर इस बात की पुष्टि की जाती है कि कोई गलत काम तो नहीं किया। दस-बारह वर्ष बाद यह व्यक्ति गेलोङ बन जाता है। गेलोङ अर्थात धर्म पर चलने वाला। पूर्ण लामा बनने में वर्षों लग जाते हैं।

लामा लोग मठ में रहते हैं जहां धर्मग्रन्थों के पाठ के अतिरिक्त धर्म चक्र घुमाते रहते हैं। ग्रामीण मठ में जाने पर भेंट चढ़ाते हैं। लामाओं को धर्म-कर्म के लिए घरों में आमन्त्रित किया जाता है। तिब्बत में बौद्ध धर्म के चार सम्प्रदाय विकसित हुए। यही सम्प्रदाय किन्नौर तथा लाहुल-स्पीति में फैले। पद्मसम्भव तथा शान्तरक्षित द्वारा प्रतिपादित सबसे पुराना सम्प्रदाय ञिङम-पा या निङमा। गे-लुगपा, कर-गयुद-पा, डुगपा आदि अन्य शाखाएं हैं।

साभार : हिमाचल, सुदर्शन वशिष्ठ

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