हिमाचल: गाँव में आठ दिन पहले “घरेसू” (कहारू) जलाकर होता है “दिवाली” का आगाज

बच्चे सूखी घास के पूले का एक लंबा गटठा बनाकर जिसे आम भाषा में घरेसू या कहारू कहा जाता है। शाम को खाना खाने से पहले अंधेरा होने पर घरों से दूर खलियान, खुले मैदान या जगह पर घुमाते हुए जलाया जाता है। इसके साथ-साथ बच्चे अब पटाखे और फूलझडियां भी जलाने लगे हैं। यह दिवाली से आठ दिन पहले शुरू हो जाता है जोकि दिवाली की रात तक चलाया जाता है। अंतिम दिन जहां धरेस जलाए जाते हैं वहीं उस दिन प्रसाद भी बांटा जाता है और घरेसू जलाते हुए आग में प्रसाद को अर्पित किया जाता है।

कुल्लू में बोरी दिआली (बूढ़ी दीवाली) :

दिवाली पर विशेष हिमाचली पकवान

हिमाचल: गाँव में दिवाली का आठ दिन पहले “घरेसू” (कहारू) जलाकर होता है आगाज

हिमाचल में दीवाली का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।  दीवाली मनाने का ढंग पहाड़ों में भी मैदानी भागों जैसा ही है। प्रकाश का ये त्यौहार दीवाली, कार्तिक अमावस की रात को सुख और समृद्धि की देवी लक्ष्मी जी के पूजन के लिए मनाया जाता है। पौराणिक कथा अनुसार इस दिन भगवान रामचंद्र जी चौदह वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या लौटे थे। उनके आने की खुशी में लोगों द्वारा घर के बाहर घी के दीये जलाकर उनका स्वागत किया गया था जिसके चलते इस त्यौहार की महत्ता और भी बढ़ जाती है।  यह त्यौहार रोशनी का त्यौहार है जिसमें लक्ष्मी-पूजन का विशेष महत्व रहता है। हिमाचल के गांवों में दीपावली मनाने की अपनी खास विशेषता लिए रहती है। जहां दिवाली के आने पर महीने पहले लोगों द्वारा घर में साफ-सफाई और रंग-रोगन शुरू हो जाता है। वहीं गांवों में बच्चे दीवाली का त्यौहार असली दीवाली  से 8 दिन पहले ही शुरू कर देते हैं। बच्चे सूखी घास के पूले का एक लंबा गटठा बनाकर जिसे आम भाषा में घरेसू या कहारू कहा जाता है। शाम को खाना खाने से पहले अंधेरा होने पर घरों से दूर खलियान, खुले मैदान या जगह पर घुमाते हुए जलाया जाता है। इसके साथ-साथ बच्चे अब पटाखे और फूलझडियां भी जलाने लगे हैं। यह दिवाली से आठ दिन पहले शुरू हो जाता है जोकि दिवाली की रात तक चलाया जाता है। अंतिम दिन जहां धरेस जलाए जाते हैं वहीं उस दिन प्रसाद भी बांटा जाता है और घरेसू जलाते हुए आग में प्रसाद को अर्पित किया जाता है। हिमाचल के गांवों में दीपावली मनाने के तरीके विषयक विशेष बात यह है कि शाम के समय गांव के लोग ग्राम देवता के प्रांगण में या चौपाल में इकट्ठे होते हैं और वे वहां पर आग जलाते हैं। पतली खपचियों की मशालें लेकर नाचते हैं और देर रात तक व्यंगयपूर्ण गीत गाते हैं। मण्डी में इस दिन रात को जलती कहौर (घास के गोले) घुमाने का रिवाज है।

 देवताओं और राक्षसों के मध्य युद्ध का अभिनय

देवताओं और राक्षसों के मध्य युद्ध का अभिनय

कुल्लू में बोरी दिआली (बूढ़ी दीवाली) : यह दिवाली मनाने का अलग ढंग है। शाम को लोग एक चुने हुए स्थान पर इकट्ठे होते हैं और वहां आग जलाई जाती है। वे अपनी बोली में रामायण और महाभारत गाते हैं और आग के चारों ओर नाचते हैं। इसी समय देवताओं और राक्षसों के मध्य युद्ध का अभिनय किया जाता है। इस कृत्रिम लड़ाई में देवताओं की विजय दिखायी जाती है।

लौहाल में दीपावली : लाहौल में यह (माघ) जनवरी में पूर्णमासी को मनाया जाता है और इसे खोजला कहा जाता है। प्रत्येक घर से एक जलती हुई मशाल एक ऊंचे स्थल पर ले जाई जाती है और गांव के सारे लोग वहां एकत्रित होकर अपनी जलती हुई मशालें एक स्थान पर डालकर एक बड़ी आग जलाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति गेफान और ब्रजेश्वरी देवी के नाम पर देवदार वृक्ष की पत्तियां आग में डालता है। तब सब, अलाव के चारों और बैठ जाते हैं। वे एक-दूसरे पर बर्फ के गोले भी फैंकते हैं। इस काम को भटका कहा जाता है और शुभ माना जाता है। पूरे कार्यक्रम को सद हल्का अर्थात देवताओं की खोज बत्ती कहा जाता है। प्रकाशोत्सव होने के कारण यह दिवाली जैसा त्यौहार है। कुछ क्षेत्र में दयाली का त्यौहार पौराणिक दीवाली से दो महीने बाद मनाया जाता है। इस दिन बबरू आदि पकवान बनते हैं। दीया-बाती के समय गृहणियां देवदारू की लकडिय़ां जलाकर पूजन करती हैं। वे आंगन में उपस्थित लडक़ों की ओर अखरोट फेंकती है जिन्हें वे झपटते हैं। अथवा पकड़ते हैं।

पहाड़ों में दीवाली अथवा दियाली द्याली या बोरी दियाली का त्यौहार परम्परागत दीवाली से ठीक एक मास पश्चात मगहर की अमावस्या को मनाया जाता है। यह तीन दिन तक मनाया जाता है। दीवाली के दिन मंदिर के आंगन में या निकट की पहाड़ी की चोटी पर आग जलाई जाती है जिसे बलराज भी कहते हैं। गांव के लोग विशेषकर युवक खपचियों से बनी मशालों को जिन्हें उल्का कहते हैं धागों से बांधकर गोलाकार घुमाते हैं। इससे गांव की अंधेरी रात में पटाखे चलने का भ्रम होता है। लोग रातभर नाचते गाते हैं। जिन परिवारों में पिछले वर्ष पुत्र का जन्म हुआ होता है उनके यहां जाकर मजाकिया अभिनय करते हैं और बदले में उपहार पाते हैं।

दिवाली पर विशेष हिमाचली पकवान

दिवाली पर विशेष हिमाचली पकवान

दिवाली पर विशेष हिमाचली पकवान

दिवाली के दिन यूँ तो हिमाचल के लोग भी खास पकवान बनाते हैं कचौडिय़ां, बबरू और ऐंकलू बनाने की इस दिन खास महत्ता है। इस दिन ससुराल से बेटियों को खास तौर पर भोजन के लिए मायके आमंत्रित किया जाता है और उनके लिए विशेष पकवान परोसे जाते हैं। दीवाली के दिन कुछ इलाकों में पकाया जाने वाला चावल के आटे का विशेष ऐंकली या ऐंकलू है। चावल का आटा खुले बर्तन में घोल दिया जाता है और ऐंकली चपाती की तरह तवे पर डालकर बनाई जाती है और ऐंकलू बनाने के लिए पत्थर का एक विशेष प्रकार का सांचा बना होता है जिसमें 40 से 50 छोटे-छोटे गोल खाने बने होते हैं। इसे बिलासपुर, हमीरपुर-कांगड़ा में चुआंसी कहा जाता है। दिवाली के दिन ऐंकलू को घी, शक्कर के साथ खाया जाता है इस दिन माश (माह) की दाल बनायी जाती है। दाल में घी डालकर ऐंकलू को परोसा जाता है।

 

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