हिमाचल "बौद्ध धर्म" इतिहास, गलेशियर में छिपी नदी की तरह

हिमाचल: बौद्ध धर्म के पुनरूत्थान के सम्बंध में गुगे राज्य का अभूतपूर्व योगदान

वैदिक काल का तांत्रिक प्रभाव आज भी मौजूद

हिमालय पर्वत श्रृंखला के उस पार लाहौल, स्पिति, किन्नौर के जनजातीय क्षेत्र में बुद्धधर्म आज भी प्रभावी ह

हिमालय पर्वत श्रृंखला के उस पार लाहौल, स्पिति, किन्नौर के जनजातीय क्षेत्र में बुद्धधर्म आज भी प्रभावी ह

गुगे राजाओं ने शंबर की 500 चान्दी के सिक्कों की बनवाई थी मूर्ति

एक शिलालेख के अनुसार इसका नाम रचबरंग अर्थात शबरंग वैदिक शंबर है जो दस्युराज था। यह सारा पश्चिमी हिमालय दास-दस्युओं का घर है और दस्युराजा शंबर की यहां पूजा होती थी। वैदिक काल का तांत्रिक प्रभाव आज भी मौजूद है। गुगे राजाओं ने शंबर की 500 चान्दी के सिक्कों की मूर्ति बनवाई थी। विद्वानों का मानना है कि दस्युओं का इतिहास वैदिक काल से जुड़ता है। ये बाद के काल में पूर्णकाल से हिन्दू परम्पराओं को मानने लगे। ईसा से पूर्व ये सेन राजा थे। जब राज्य का पतन हुआ, तिब्बती प्रभाव बढ़ा तो बौद्धमत का स्थापना में महत्वपूर्ण कार्य किया। लामदर्मा के वंशज कमजोर होने पर गूगे राजा पुन: भारतीय मूल आर्य संस्कृति की ओर प्रेरित हुए।

ऐसा प्रतीत होता है कि हिमाचल के बहुत बड़े भाग में बुद्धमत का प्रसार महात्मा बुद्ध के जीवन काल में ही हो गया था

ऐसा प्रतीत होता है कि हिमाचल के बहुत बड़े भाग में बुद्धमत का प्रसार महात्मा बुद्ध के जीवन काल में ही हो गया था। बौद्ध साहित्य में भी ऐसा उल्लेख है। यह भी सम्भव है कि महात्मा बुद्ध इस क्षेत्र में आए थे। चीनी यात्री ह्यूनत्सांग ने कुल्लू के बारे में लिखा है ऐसी परम्पराएं रही हैं। प्रदेश के शिवालिक क्षेत्र में अनेक पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त हुए हैं जिनसे ईसा से पूर्व दूसरी तीसरी शताब्दी में बुद्धमत का प्रचलन सिद्ध होता है। कुल्लू कांगड़ा गणराज्यों के सिक्कों पर बौद्ध प्रतीक पाए गए हैं जो स्पष्ट करता है कि बुद्धमत उन राज्यों का लोकधर्म था। मुद्राओं पर बौद्धमठ अंकित हैं। कांगड़ा के अंचल में बौद्ध पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। धर्मशाला के निकट श्वेत पाषाण शिला पर, पठियार और दाड़ी गांवों में पुरालेख प्राप्त हुए हैं जो सिद्ध करते हैं कि इन स्थानों के समीप दूसरी तीसरी शताब्दी में संघाराम अवस्थित थे। पठियार-चड़ी आदि स्थानों पर वास्तु एवं मूर्त प्रमाणों के आधार पर स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में बुद्धमत लोकप्रिय था। धर्मशाला सडक़ पर चैतडृ गांव में भीमटोला में अन्वेषण पर पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। द्रोपदी का बाग स्थान पर एक मानवकद की प्रतिमा मिली है जो बुद्ध प्रतिमा रही होगी। वास्तव में ये बौद्ध चैत्य के अवशेष हैं।

छठी शताब्दी तक यह क्षेत्र बुद्ध धर्मावलम्बी रहा। मिहिर कुल (518-529) ने बौद्ध संस्थानों को नष्ट किया जो अन्तत: प्रभावीशाक्त, शैव, वैष्णव मान्यताओं में खो गई। कुछ विद्वान कांगड़ा के ब्रजेश्वरी देवी को बौद्ध तांत्रिक देवी वज्रवराही, मण्डी नगर में टारना अनेक अन्य मन्दिरों से जुड़ी परम्पराओं को मूल रूप से बौद्ध तांत्रिक देवी तारा से जोड़ते हैं और अन्य बौद्ध देवी-देवताओं से। रिवालसर झील पद्माकन नाम से अभिहित है। इसमें तैरते हुए भूखण्डों को बौद्ध लोग सात बौद्ध देवताओं का प्रतीकात्मक रूप मानते हैं। यहां भारी मेला लगता है। इस मेले में तिब्बती बुद्ध धर्म के अनुयायी बहुत बड़ी संख्या में शामिल होते हैं। पद्मसंभव की स्मृति में यहां का गोम्पा, भित्ति चित्रों, थंका के लिए विख्यात रहा है। हिन्दु रिवालसर को लोमस ऋषि से सम्बद्ध मानते हैं।

कुल्लू क्षेत्र प्राचीन काल से ही था पूर्ण रूप से बुद्धमत के प्रभाव में

कुल्लू क्षेत्र प्राचीन काल से ही पूर्ण रूप से बुद्धमत के प्रभाव में था। चीनी यात्री ने उल्लेख किया है कि यहां लगभग बीस हजार संघाराम हैं और एक हजार के करीब भिक्षु

 प्राचीन काल में लम्बे समय तक कुल्लू बौद्ध था

प्राचीन काल में लम्बे समय तक कुल्लू बौद्ध था

महायान सम्प्रदाय से सम्बन्धित रहते हैं। अशोक का बनाया एक स्तूप घाटी के मध्य है। मन्दिरों में बौद्ध प्रतिमाएं भी रखी हैं। गोशल गांव में मन्दिर में गर्भगृह में स्थापित बुद्ध प्रतिमा को गौतम ऋषि के नाम से जाना जाता है। प्राचीन काल में लम्बे समय तक कुल्लू बौद्ध था। कालान्तर में हिन्दू प्रभाव के कारण बुद्ध देवी-देवता वैष्णव, शैव, शाक्त देव परिवारों में विलयित हो गए। पद्म सम्भव वज्रयान सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इसका प्रमुख प्रतीक वज्र रहा है। कुल्लू के बिजली महादेव का इसी संदर्भ में मूल्यांकन प्रासंगिक है। प्रदेश के इस भाग में बुद्ध धर्म-राजधर्म, लोकधर्म और तांत्रिक रूप में प्राचीन काल से प्रभावी रहा। कालान्तर में परिस्थितियों अनुसार शिथिल होकर शैव, शाक्त, वैष्णव धर्म में परिवर्तित होता गया।

हिमालय पर्वत श्रृंखला के उस पार लाहौल, स्पिति, किन्नौर के जनजातीय क्षेत्र में बुद्धधर्म आज भी प्रभावी है और इस धर्म से सम्बन्धित प्रतिष्ठान-मन्दिर गोम्पा और महाविहार यहां के लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत और लोक जीवन के अनिवार्य अंग हैं। हिन्दू और बौद्धमत का मिश्रित रूप भी देखने को मिलता है, बौद्धमत को लामावाद से पहचाना जाता है। रत्नभद्र ने पश्चिमी तिब्बत में लामावाद को दृढ़ आधार दिया और आचार्य दिपान्कर श्री विज्ञान ने लामावाद की विकृतियों को हटाया। लद्दाख, लाहौल, स्पिति, किन्नौर और गूगे क्षेत्र में रत्नभद्र ने 108 से भी अधिक मन्दिरों, विहारों और महाविहारों का निर्माण करवाया। चन्द्र भागा के संगम पर स्थित गुरू घण्टाल का मठ सबसे महत्वपूर्ण है।

लाहौल में उदयपुर स्थान पर स्थानीय नाम मृकुला-प्राचीन मन्दिर बौद्ध तांत्रिक देवी वज्रवराह को समर्पित रहा है जो भारतीय बुद्धमत का प्राचीनतम स्मारक है किन्तु महिषासुर मर्दिनी देवी की कांस्य प्रतिभा भी स्थापित है जो पहले काष्ठ की थी। एक पुरालेख भी प्राप्त हुआ है। स्पिति में 30 से अधिक बौद्ध प्रतिष्ठान हैं। ये ग्रामवासियों की धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक आकांक्षाओं को पूरा करते हैं। ये प्रतिष्ठान पांच प्रमुख प्रतिष्ठानों के नियंत्रण में आते हैं। इनको गोम्पा न कहकर चोस खोर कहते हैं। ताबो महाविहार में सबसे महत्वपूर्ण है। प्रदेश में इस तरह की परम्पराओं का विशाल भण्डार है।

ताबो महाविहार

स्पिति उपखण्ड की सीमा पर पश्चिमी तिब्बत के पास एक छोटा सा ग्राम है ताबो

स्पिति उपखण्ड की सीमा पर पश्चिमी तिब्बत के पास एक छोटा सा ग्राम है ताबो

स्पिति उपखण्ड की सीमा पर पश्चिमी तिब्बत के पास एक छोटा सा ग्राम ताबो है जो 3280 मीटर ऊंचाई पर स्थित है और जनसंख्या केवल 250 के करीब है। शिमला से रामपुर, किन्नौर होकर ताबो 366 किलोमीटर है और मनाली से दूसरा मार्ग 268 किलोमीटर है। दो जोत रोहतांग और कुंजम पारकर इस इतिहासिक महत्व के स्थान ताबो पहुंचते हैं। ऐसे क्षेत्र में विहार का अस्तित्व, तपोभूमि का रूप, कलास्थली के रूप में पनपना अति महत्व और विशिष्टता का महान कार्य है। 1000 वर्ष पूर्व इसका निर्माण भिक्षुओं की अटूट आस्था, कठिन तपस्या, अडिग मनोबल का परिणाम है। ऊं मणि पद्में हुं के महामंत्र के निनाद से पुरानी संस्कृति प्राणवान हो उठती है। इस महाविहार का बड़ा महत्व है। इसकी स्थापना 996 ई. में पश्चिम तिब्बत के एक बौद्ध शासक, बौद्ध धर्माचार्य रिन-चन-जाम्पो (संस्कृत रत्नभद्र) द्वारा हुई और निर्माण 1004 में सम्पन्न हुआ। विहार में संस्थापक रत्नभद्र की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। भगवान बुद्ध के जन्म से महावीर निर्वाण तक की कथा का चित्रांकन मिलता है। ताबो परिसर के निकट 2-3 गिरिकन्दराएं हैं जिनमें एकान्तवास में साधनालीन लामा रहे होंगे। भारतीय प्राचीन संस्कृति की एक विधा बौद्ध संस्कृति के प्रचार-प्रसार में विद्वान भाषाई अनुवादकों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। ऐसे एक प्रज्ञा-चक्षु रिनछेन वड. छुग हुए हैं। भारत आकर इन्होंने संस्कृत ग्रन्थों का रूपान्तरण किया। अनेक स्तूप भी बनवाए, इनका इतिहासिक महत्व है। कई शिलाओं पर इनके चरण-चिन्ह हैं। किन्नौर आदि क्षेत्रों में बौद्ध संस्कृति के प्रचार-प्रसार में बड़ी भूमिका रही। भगवान बुद्ध के इस उपदेश- बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि को पहाड़ी अजपथों से सारे क्षेत्र में पहुंचाया। अनेक संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का भोट भाषा में रूपान्तरण किया।

Pages: 1 2

सम्बंधित समाचार

अपने सुझाव दें

Your email address will not be published. Required fields are marked *